जानिए क्यों होता है कोई दरिद्र और कोई दानी

संतशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी मानव के लिए दान को आवश्यक कार्य माना है, वह देने की भावना को वस्तु की मात्रा से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं- तुलसी जग में आय के कर लीजे दो काम। देने को टुकड़ा भला लेने को हरिनाम।।
धर्म और दान परस्पर घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। ‘ऋग्वेद’ ने दान के महत्व को प्रतिपादित करते हुए दाता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है-दक्षिणा देने वाले दानशील मनुष्य स्वर्ग में ऊंची स्थिति को प्राप्त करते हैं। जो अश्वदाता हैं, वे सूर्य के साथ रहते हैं। जो सुवर्ण का दान देने वाले हैं, वे अमरता पाते हैं। वस्त्रदाता लोग सोमलोक में निवास पाते हैं। सभी दीर्घायु वाले होते हैं। देवों का आदर-सत्कार से दिया जाने वाला द्रव्यादि का दान पुण्यकर्म की पूर्ति करने वाला है, वह देवपूजा का श्रेष्ठ साधन है। जो देवों को प्रसन्न-तृप्त करते हैं और यज्ञादि में अन्न-द्रव्य आदि का दान करते हैं, वे सप्त होताओं की दक्षिणा प्राप्त करते हैं। दाता को सबसे पहले बुलाया जाता है, वह प्रमुख माना जाता है। दक्षिणावान दानशील ग्रामाध्यक्ष सबसे आगे चलता है। उसे ही मैं सबका पालक राजा मानता हूं, जो सबसे पहले मनुष्यों के बीच में दक्षिणा देता है, उस दक्षिणा के दाता को ही ऋषि-तत्वार्थदर्शी और उसी को ही ब्रह्मा कहते हैं। उसी को यज्ञ का नेता, साम का गान करने वाला और वेद वचनों का स्तोता कहते हैं। दान करने वाले उदार लोग निकृष्ट गति को, दारिद्रय को प्राप्त नहीं होते, वे उदार दाता क्लेश-दुख को प्राप्त नहीं होते। हमारे पौराणिक ग्रंथों में कहा गया है कि भूख से पीड़ित मनुष्य को भोजन के लिए अन्न अवश्य देना चाहिए। उसको देने से महान पुण्य होता है तथा दाता अमृत का उपभोग करता है। मनुष्य को अपने वैभव के अनुसार प्रतिदिन दान करना चाहिए। अथर्ववेद तो यहां तक कहता है कि व्यक्ति को दान देने के लिए धन कमाना चाहिए, व्यर्थ संग्रह के लिए नहीं।सभी प्रमुख धर्मों में दान की महत्ता को स्वीकार करते हुए अपने जीवन में स्वयं की आमदनी से सामर्थ्यानुसार कुछ हिस्सा जरूरतमंदों को देने के लिए प्रेरित किया गया है, किंतु विश्व की प्रथम संस्कृति के रूप में मान्य भारतीय संस्कृति ने तो दान को मानव मात्र के लिए अनिवार्य आचरणीय कृत्य मानते हुए इसे नैत्यिक कर्म की श्रेणी में सम्मिलित किया है।
‘सौ हाथों से धन अर्जित करो और हजार हाथों से उसका दान करो’– कहकर वेद ने दान के महत्व को जनमानस के समक्ष प्रस्तुत किया है।
‘शतहस्त समाहर सहस्रहस्त सं किर।’ (अथर्ववेद 3/24/5)भारतीय संस्कृति में दातव्यता की गौरवशाली परंपरा अनादिकाल से ही चली आ रही है। सनातन धर्म जिन महत्वपूर्ण स्तंभों पर अविचल खड़ा है, उनमें ‘दानशीलता’ एक प्रमुख स्तंभ है। वैदिक ऋचाओं, उपनिषदों के पावन मंत्रों, पौराणिक ग्रंथों, श्रीमद् भागवद गीता, श्रीरामचरितमानस आदि शास्त्रों एवं संतों की वाणियों में दान के विषय में विस्तृत विवेचन मिलता है।आदिशंकराचार्य जी ने दान को अन्नादि जीवनोपयोगी वस्तुओं का समाज में सम्यक विभाजन माना है। रामानुजाचार्य के अनुसार न्यायोपार्जित धन को सत्पात्र के प्रति देने का नाम दान है। वृंद कवि ने दीन व्यक्ति को दान दिए जाने की वकालत की है-
दान दीन को दीजिए, मिटे दरिद्र की पीर। औषध ताको दीजिए, जाके रोग शरीर।
श्रीमद्भागवदगीता में दान की विशद विवेचना की गई है। गीता के अनुसार फल की बिल्कुल भी इच्छा न रखकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी शुद्ध कमाई का हिस्सा सत्पात्र को देने का नाम ‘दान’ है। भविष्य पुराण में महाराज युधिष्ठिर द्वारा दान की महिमा के संबंध में पूछे जाने पर भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, ‘‘महाराज! मृत्यु के उपरांत धनादि वैभव व्यक्ति के साथ नहीं जाते, व्यक्ति द्वारा सुपात्र को दिया गया दान ही परलोक में पाथेय बनकर उसके साथ जाता है। हृष्ट-पुष्ट बलवान शरीर पाने से भी कोई लाभ नहीं है, जब तक कि यह किसी का उपकार न करे।’’उपकारहीन जीवन व्यर्थ है। इसलिए एक ग्रास से आधा अथवा उससे भी कम मात्रा में किसी चाहने वाले व्यक्ति को दान क्यों नहीं दिया जाता? इच्छानुसार धन कब और किसको प्राप्त हुआ या होगा? इसी भावना को अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए किसी संत ने कहा है-
देह धरे का फल यही, देह देह कछु देह। देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह।।

दान न करने वाले व्यक्तियों की शास्त्रों में घोर निंदा की गई है। वेदों में कृपण की संपत्ति को व्यर्थ माना गया है। केवल अपने लिए संपदा अर्जित करने वाले की भर्सना करते हुए वेद कहता है कि जो न देवों को हवि अर्पित करता है और न अपने समान पोष्य मित्र को देता है, केवल स्वयं खाता है, वह केवल पाप ही प्राप्त करता है। स्कंद पुराण में कहा गया है कि जो दान नहीं करते, वे दरिद्र, रोगी, मूर्ख तथा सदा दूसरों के सेवक होकर दुख के भागी होते हैं। जो धनवान होकर दान नहीं करता और दरिद्र होकर कष्ट सहन रूपी तप से दूर भागता है, इन दोनों को गले में बड़ा भारी पत्थर बांधकर जल में छोड़ देना चाहिए।दान वास्तव में प्राप्ति का ही दूसरा नाम है। सामर्थ्य के अनुसार दान करने से व्यक्ति दरिद्र नहीं होता। इस संबंध में शास्त्रों की स्पष्ट घोषणा है कि दूसरों को दान देने वाले, पोषण करने वाले का धन कभी कम नहीं होता और दूसरों को न पालने वाले अदाता को कोई सुखी नहीं कर सकता वह किसी से भी सुख नहीं पाता। प्रकृति के शाश्वत नियम के अनुसार अपनी शक्ति के अनुरूप दान देने से धन-संपदा आदि वस्तुएं घटती नहीं, अपितु परिणाम में कई गुना बढ़कर दाता के पास लौटती हैं।स्वामी विवेकानंद कहते हैं, ‘‘इस बात को आप कभी भी न भूलें कि आपका जन्म देने के लिए है, लेने के लिए नहीं। इसलिए आपको जो कुछ देना हो, वह बिना आपत्ति किए, बदले की इच्छा न रख कर दे दीजिए, नहीं तो दुख भोगने पड़ेंगे। प्रकृति के नियम इतने कठोर हैं कि आप प्रसन्नता से न देंगे, तो वह आपसे जबरदस्ती छीन लेगी। आप अपने सर्वस्व को चाहे जितने दिनों तक छाती से लगाए रहें, एक दिन प्रकृति आपकी छाती पर सवार हो उसे लिए बिना न छोड़ेगी। प्रकृति बेईमान नहीं है। आपके दान का बदला वह अवश्य चुका देगी, परंतु बदला पाने की इच्छा करेंगे, तो दुख के सिवा और कुछ हाथ न लगेगा। इससे तो राजी-खुशी देना ही अच्छा है।’’सूर्य समुद्र का जल सोखता है, तो उसी जल से पुन: पृथ्वी को तर भी कर देता है। एक से लेकर दूसरे को और दूसरे से लेकर पहले को देना सृष्टि का काम ही है। उसके नियमों में बाधा डालने की हमारी शक्ति नहीं है। कोठरी की हवा जितनी बार बाहर निकलती रहेगी, बाहर से उतनी ही ताजा हवा पुन: कोठरी में आती जाएगी और यदि आप दरवाजे बंद कर देंगे तो बाहर से हवा आना तो दूर रहा, कोठरी की हवा भी विषाक्त होकर आपको मृत्यु के अधीन कर देगी। आप जितना अधिक देंगे, उससे हजार गुना प्रकृति से आप पाएंगे, परंतु उसे पाने के लिए धीरज रखना होगा। दान सामाजिक जीवन को स्वस्थ रखने के लिए महत्वपूर्ण है। जिस समाज में दान-वृत्ति क्षीण हो जाती है वह अधिक नहीं टिक सकता। दान-वृत्ति कम होने का अर्थ है स्वार्थ-वृत्ति का बढऩा। स्वार्थ-वृत्ति से किसी समाज का कल्याण नहीं होता।
courtesy sanatan

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