जानिए क्या हैं विपरीत राजयोग?? क्या होते हैं विपरीत राजयोग के प्रभाव और परिणाम ??

जानिए क्या हैं विपरीत राजयोग?? क्या होते हैं विपरीत राजयोग के प्रभाव और परिणाम ??
प्रिय पाठकों/मित्रों, प्राय: ज्योतिष में अष्टम भाव को अशुभ भाव के रूप में परिभाषित किया गया है। किसी ग्रह का संबंध अष्टम भाव से होने पर उसके कुफल ही कहे गए हैं लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है। जितने भी सफल व्यक्ति हुए उनमें से अनेक व्यक्तियों की जन्मपत्रियों में अष्टमेश का संबंध पंचम अथवा लग्न पंचम अथवा लग्न भाव से रहा है। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार ऐसे योग वाले व्यक्तियों के पास कोई न कोई कला अवश्य रहती है जो उन्हें ईश्वर से उपहार स्वरूप प्राप्त होता है। पंचमेश और अष्टमेश का आपसी का संबंध होने पर आकस्मिक धन प्राप्ति के योग बनते हैं। ऐसे योग में व्यक्ति शेयर मार्केट,सट्टेबाजी अथवा लॉटरी द्वरा धन प्राप्त कर सकता है।
द्वादश भाव की अशुभता सभी प्रकार के सुख, वैभव, धन तथा शैय्या सुख का नाश करती है। षष्ठम्, अष्टम् व द्वादश भावों को ‘त्रिक’ भाव की संज्ञा दी गई है। इनमें से अष्टम भाव को सर्वाधिक अशुभ और द्वादश भाव सबसे कम अशुभ माना गया है। ‘भावात् भावम्’ के सिद्धान्त अनुसार षष्ठ से षष्ठ एकादश भाव, तथा अष्टम् भाव से अष्टम् तृतीय भाव को कुछ कम अशुभ माना गया है। परन्तु त्रिक भावों (6, 8 व 12) की एक विशेषता भी है। इन भावों के स्वामी अपने ही भाव में, या इनमें से किसी भाव में, स्थित होकर बिना परिश्रम के (लॅटरी, सट्टा, जुआ, गड़े धन, वसीयत आदि द्वारा) राजयेाग से भी अधिक धन-समृद्धि व यश प्रदान करते हैं। इस स्थिति को ‘विपरीत राजयोग’ की संज्ञा दी गई है।
कुण्डली में विपरीत राजयोग बनाने वाले ग्रहों की दशा-भुक्ति के समय राजयोग से कई गुना अधिक लाभ व समृद्धि व्यक्ति को मिलती है। आचार्य कालिदास ने अपने ग्रंथ ‘उत्तर कालामृत’ (अ.4.22) में विपरीत राजयोग के संदर्भ में कहा है: रन्ध्रेशो व्ययषष्ठगो रिपुपतौ रन्ध्रेव्यये व स्थिते रिःफेशोऽपि तथैव रन्ध्ररिपुभे यस्यास्ति तस्मिन्वदेत। अन्योन्यक्र्षगता निरीक्षण युताश्चान्यैर युक्तेक्षिता जातोऽसौ नृपतिः प्रशस्त विभवो राजाधिराजेश्वरः।। अर्थात् ‘‘ अष्टमेश यदि व्यय या षष्ठ में हो, षष्ठेश यदि अष्टम् अथवा व्यय में हो, व्ययेश यदि षष्ठ अथवा अष्टम् भाव में हो, और इन नेष्ट भावों के स्वामियों की युति, दृष्टि अथवा व्यत्यय द्वारा परस्पर सम्बन्ध भी हो, परन्तु अन्य किसी ग्रह से युति अथवा दृष्टि सम्बन्ध न हो, तो जातक वैभवशाली राजराजेश्वर समान होता है।’’ ऐसा शुद्ध ‘विपरीत राजयोग’ बहुत कम कुण्डलियों में मिलता है, अतः लाभ भी उसी अनुपात मे ंजातक को मिलता है।
आचार्य मंत्रेश्वर ने अपने ग्रंथ ‘फल दीपिका’ में ‘षष्ठेश’ की 6,8,12 भाव में स्थिति को ‘हर्ष योग’ (अ.6.62) का नाम दिया है। ऐसा व्यक्ति सुखी, भाग्यशाली, स्वस्थ, शत्रुहन्ता, यशस्वी, उच्च मित्रों वाला और पुत्रवान होता है। अष्टमेश की ऐसी स्थिति से ‘सरल योग’ (अ.6.65) बनता है। ऐसा व्यक्ति दृढ़ बुद्धि, दीर्घायु, निर्भय, वि़द्वान, पुत्र व धन से युक्त, शत्रु विजेता, सफल और विख्यात होता है। द्वादशेश की ऐसी स्थिति होने पर ‘विमलयोग’ (अ.6.69) बनता है। ऐसा व्यक्ति धनी, कम खर्च करने वाला, स्वतंत्र, श्रेष्ठ, गुणी और प्रसिद्व होता है। जन्म लग्न के साथ-साथ चन्द्र राशि से भी ‘विपरीत राजयोग’ का आकलन करना चाहिए। दोनो लग्नों से बने विपरीत राजयोग के फल पूर्ण रूप से मिलते हैं। ‘विपरीत राजयोग’ बनाने वाले ग्रह कम अंशो पर , दुर्बल होने, तथा उन पर दुष्प्रभाव के अनुपात में अधिकाधिक शुभ फल देते हैं। परन्तु शक्तिशाली पापी ग्रह के अशुभ भाव में स्थित होने पर जातक की हानि करते हैं।
ज्‍योतिषी ज्ञान के अनुसार योग का अर्थ ग्रहों के एक विशेष क्रम या विन्‍यास में बनी व्‍यवस्‍था एवं संयोजन है। जन्‍म पत्रिका में अनेक राजयोग होते हैं किंतु विपरीत राजयोग की अपनी खास विशेषता है।
पौराणिक धर्मग्रंथों में छठे, आठवें और बारहवें घर को दुष्‍टस्‍थान के रूप में चित्रित किया गया है। ऐसा माना जाता है कि इस तरह के संयोजन में इन घरों के स्‍वामी तो प्रतिकूल प्रभाव डालते ही हैं साथ ही उनमें विराजे ग्रह भी शत्रुवत हो जाते हैं। विपरीत राजयोग स्वयं 6ठे, 8वें, और 12वें घरों और उनके स्वामियों का एक संयोजन है।
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार जन्मपत्रिका में अष्टम भाव को मृत्यु का भाव कहा जाता है। मृत्यु का भाव होने के साथ ही यह भाव गूढ़ विद्या तथा अकस्मात धन प्राप्ति का भाव भी कहलाता है। इसके अतिरिक्त अष्टम भाव से आयु निर्णय, मृत्यु का कारण, दुर्गम स्थान में निवास, संकट, पूर्वाजित धन का नष्ट होना, किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति का प्राप्त होना, पूर्वजों से प्राप्त संपत्ति, मन की पीड़ा, मानसिक क्लेश, मृत्यु का कष्टपूर्वक होना, गुप्त विद्या व पारंपरिक विद्याओं में निपुणता, अचानक धनप्राप्ति, लम्बी यात्राएं, विदेश में जाकर नौकरी करना, गड़े खजाने की प्राप्ति, कुएं आदि स्थानों में गिरने से मृत्यु आदि का भी विचार किया जाता है। अष्टम भाव से त्रिकोण का संबंध उत्तम होता है।
अष्टम भाव का लग्न या पंचम भाव से संबंध होने पर व्यक्ति गूढ़ विद्याओं व पारंपरिक विद्याओं को जानने वाला तथा किसी विशेष कला में पारंगत होता है। अष्टमेश द्वाददेश के साथ संबंध बनाते हुए यदि पंचम भाव से युति करे तो व्यक्ति घर से दूर अथवा विदेश में प्रवास कर अध्ययन करता है तथा धनार्जन भी घर से दूर रहकर करता है। ऐसे व्यक्ति का मस्तिष्क बहुत ही कुशाग्र होता है। वह हर तथ्य को बारीकी के साथ सोचता और समझता है। वह ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करता है तथा किसी भी प्रकार की समस्या में पड़ने पर अपने धैर्य को नहीं छोड़ता है। अष्टम भाव में विपरीत राजयोग होने पर व्यक्ति निश्चित रूप से अपने कार्य क्षेत्र में उन्नति करता है। अष्टमेश का सबंध नवम भाव से बहुत ही उत्तम होता है। ऐसे व्यक्ति दर्शन के विशेष ज्ञाता होता है।
कई बड़े दार्शनिक, संत एवं सन्यासियों की जन्मपत्रिका में इस प्रकार के योग देखे जाते हैं। ऐसे योग में व्यक्ति में पूर्वानुमान की क्षमता बहुत ही दृढ़ होती है। प्रत्येक कार्य करते हुए उसके दूरगामी परिणामों को वह देख लेता है। अष्टम भाव अथवा अष्टमेश का संबंध धन एवं कर्म भाव के साथ होने पर व्यक्ति शीघ्र उन्नति करता है। यह उन्नति किसी प्रकार के हथकंडों को अपनाकर प्राप्त की हुई होती है। जो व्यक्ति अपने जीवन में गलत राह चुनकर उन्नति प्राप्त करते हैं, उनकी जन्मपत्रिका में यह योग देखा जा सकता है। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार ऐसे योग में व्यक्ति अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर अपनी कुशाग्र गति से येन-केन-प्रकारेण सफलता प्राप्त कर लेता है।अष्टम भाव अथवा अष्टमेश का लाभ भाव से संबंध आकस्मिक लाभ को दर्शाता है। हालांकि स्वास्थ्य की दृष्टि से यह योग उत्तम नहीं होता है परन्तु आर्थिक दृष्टि से यह योग अत्यंत उत्तम है।
व्यक्ति को अनपेक्षित धन की प्राप्ति होती है तथा पूर्वजों से धन प्राप्ति के योग बनते हैं। अष्टम भाव का शेष भावों से संबंधभी शुभ तथा अशुभ दोनों ही परिणाम प्रदान करने वाला होता है। हालांकि स्वास्थ्य की दृष्टि से अष्टमेश का प्रबल होना उत्तम नहीं माना जाता है परन्तु प्रबल अष्टमेश का त्रिकोण भाव से संबंध बनाना मनुष्यॉ को रहस्यमयी बनाता है। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार किसी भी स्त्री की जन्मपत्रिका में अष्टम भाव से उसके होने वाले जीवनसाथी की आयु का विचार किया जाता है। अष्टमेश की दशा-अंतर्दशा उसके जीवन में होने वाले बड़े परिर्वतन को दर्शाती है। इस दशा में उसके विवाह होने के योग भी बनते हैं। इसी भाव से पूर्वजों का भी विचार किया जाता है। पितृदोष का विचार भी इसी भाव से किया जाता है। मनुष्य के पूर्वार्जित कर्मों तथा मनुष्य की आयु का विचार भी इसी भाव से किया जाता है।
सामान्य तौर पर फलकथन में इस भाव के महत्व पर ध्यान नहीं दिया जाता है। जब मनुष्य किसी बड़ेदु:ख में पड़ता है तभी अष्टम भावकी तरफ ध्यान जाता है। मनुष्य की उन्नति में इस भाव का बहुत ही महत्व है। यह बहुत ही विचित्र भाव है जो अपने गर्भ में अनेक प्रकार के फलों को समेट कर रखता है। चूंकि जन्मपत्रिका में सभी भावों और भावेशों के आपसी तालमेल से ही किसी व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का निर्माण होता है। अत: फलादेश कथन में इस भाव के महत्व को कदापि नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।!
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार किसी भी जातक की जन्म जातक की जन्म कुण्डली में स्थित ‘राजयोग’ उसके पूर्वजन्म के अच्छे कर्मों का फल होता है, जबकि ‘विपरीत राजयोग’ पूर्व जन्म में अच्छे कार्य, परिश्रम एवं तात्कालिक सामाजिक आचार संहिता के पालन के बावजूद पीड़ित रहने वाले जातक की इस जन्म की कुण्डली में पाये जाते हैं। वह पूर्व जन्म में जिन लोगों द्वारा सताया गया था उन्हीं लोगों की ओर से इस जन्म में उसके वर्तमान कर्मों का कई गुना अधिक फल देने का कार्य ‘विपरीत राजयोग’ करते हैं। इस जन्म में विपरीत राजयोग के कारण जातक को अत्यधिक लाभ होता है। परन्तु पूर्व संस्कार-वश उसकी नियति परमार्थिक हो जाती है जिससे मृत्योपरान्त उसकी ख्याति काफी समय तक रहती है।
"रन्ध्रेशो व्ययषष्ठगो,रिपुपतौ रन्ध्रव्यये वा स्थिते।
रिःफेशोपि तथैव रन्ध्ररिपुभे यस्यास्ति तस्मिन वदेत,
अन्योन्यर्क्षगता निरीक्षणयुताश्चन्यैरयुक्तेक्षि ता,
जातो सो न्रपतिः प्रशस्त विभवो राजाधिराजेश्वरः॥
जब छठे,आठवें,बारहवें घरों के स्वामी छठे,आठवे,बारहवें भाव में हो अथवा इन भावों में अपनी राशि में स्थित हों और ये ग्रह केवल परस्पर ही युत व द्रष्ट हों, किसी शुभ ग्रह व शुभ भावों के स्वामी से युत अथवा द्रष्ट ना हों तो "विपरीत राजयोग" का निर्माण होता है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य धनी,यशस्वी व उच्च पदाधिकारी होता है।
स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि षष्ठ और अष्टम् दुष्ट भावों के स्वामी किस प्रकार ‘विपरीत राजयोग’ बनाकर जातक को लाभ पहुंचाते हैं। यह कार्य प्रणाली इस प्रकार है लग्न भाव जातक को दर्शाता है और सप्तम भाव उस व्यक्ति को जिससे वह सम्बन्ध रखता है। षष्ठ भाव सप्तम से द्वादश (व्यय) भाव है, तथा अष्टम भाव सप्तम से द्वितीय (धन) भाव है। सम्बन्धी व्यक्ति के 2 व 12 भावों का विनिमय उसकी हानि करता है। और उसका लाभ जातक को मिलता है। उदाहरणार्थ, जब जातक की षष्ठ व अष्टम भावेशों की दशा-भुक्ति चलती है उस समय पर कोई व्यक्ति किसी मजबूरी से अपनी प्रोपर्टी कम मूल्य में जातक को बेच देता है। कुछ समय बाद उसकी कीमत अत्यधिक ऊँची हो जाती है और जातक उसे बेच कर बहुत अधिक लाभ कमा लेता है। छठे और आठवें भाव के स्वामी पापी ग्रह हों, और उन पर जितना पाप प्रभाव हेागा, उतना ही अधिक शुभ फल प्राप्त होगा।
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार जिस प्रकार कुण्डली में राजयोग सुख, वैभव, उन्नति और सफलता देता है उसी प्रकार विपरीत राजयोग भी शुभ फलदायी होता है।
फलदीपिका ग्रंथ के अनुसार:- दुःस्थानभष्टमरिपु व्ययभावभाहुः सुस्थानमन्य भवन शुभदं प्रदिष्टम्। (अ. 1.17) अर्थात् ‘‘जन्मकुण्डली के 6,8,12 भावों को दुष्टस्थान और अन्य भावों को सुस्थान कहते हैं।’’ अन्य भावों में केन्द्र (1,4,7,10) तथा त्रिकोण (5,9) भाव विशेष षुभकारी माने गये हैं। इन भावों मे स्थित राषियों के स्वामी ग्रह जातक को जीवन में सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं। इन षुभ भावों के स्वामियों की षुभ भावों में युति अथवा सम्बन्ध होने पर ‘राजयोग’ का निर्माण होता है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति अपने पुरूषार्थ द्वारा प्रगति और सुख-समृद्धि का उपभोग कर संतोष प्राप्त करता है। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार केन्द्र व त्रिकोण के स्वामियों की परस्पर दृष्टि, युति व स्थान परिवर्तन से उत्तम राजयोग का निर्माण होता है। षष्टम भाव की अशुभता रोग, चोट, ऋण और शत्रु के कारण सुखों को कम करती है। अष्टम भाव की अशुभता जातक की क्षीण आयु/ स्वास्थ्य, वैवाहिक सुख की कमी तथा अन्य कठिनाइयों के कारण सुखों में कमी करती है।
ज्योतिषशास्त्र के नियमानुसार जब विपरीत राजयोग बनाने वाले ग्रह की दशा चलती है तब परिस्थितयां तेजी से बदलती हैं और व्यक्ति को हर तरफ से कामयाबी व सफलता मिलती है। विपरीत राजयोग में व्‍यक्‍ति को किसी की हानि और पतन से लाभ पहुंचता है। आइए जानते हैं विपरीत राजयोग के प्रकार -
विपरीत सरल राजयोग----
भारतीय ज्‍योतिष अनुसार जन्‍मकुंडली में छठे, आठवें और बारहवें घर में अष्‍टमेश की उपस्‍थिति में यह योग बनता है। कुंडली में इस योग के बनने सक जातक मं विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता आती है और वह प्रतिकूल परिस्थितियों से नहीं घबराता।
विपरीत विमल राजयोग----
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार छठे, आठवें और बारहवें घर में द्वादश की उपस्‍थिति में यह योग बनता है। इस योग के बनने के कारण व्‍यक्‍ति स्‍वतंत्रता पसंद करता है। उसे जीवन में खुश रहना अच्‍छा लगता है एवं वह न्‍यायप्रिय होता है। वह समाज में अपने अच्‍छे आचरण और व्‍यवहार के लिए जाना जाता है। ऐसे जातक धन संग्रह करने मे प्रवीण होता है।
कठिन विपरीत राजयोग---
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार छठे, आठवें और बारहवें घर में षष्‍ठमेश की उपस्‍थिति में यह योग बनता है। इस योग में जातक अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्‍त करता है, समाज में उसकी प्रतिष्‍ठा बढ़ती है, उसे अच्छे मित्रों, परिवार, जीवन साथी तथा बच्चों का वरदान मिलता है। वह धनी और प्रसिद्ध बनता है। उसके भाग्‍य में सारी सुख-सुविधाएं होती हैं।
इन राजयोगों के उदाहरण भी बहुत महान है जिनमे भारत के पूर्व प्रधान मंत्री नरसिम्हा राव, पूर्व गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी, पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गांधी, उडीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, स्वामी विवेकानंद एवं सचिन तेंदुलकर तथा लता मंगेशकर जैसे सुप्रसिद्ध लोगो की जन्म कुंडलियो में यह योग विराजमान है।इसी प्रकार कटरीना कैफ की कुंडली में शुक्र ६वे घर का स्वामी होकर ८ वें घर में विराजमान है। जितना यह दुर्बल है, अस्त है कटरीना को उतना ही अच्छा फल दे रहा है।
श्रीमान जी, धन्यवाद..
Thank you very much .
पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री,
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