भीड़ के आगे बेबस सरकार

भीड़ के आगे बेबस सरकार

अमेठी शिवकेश शुक्ला

भीड़ के आगे असहाय दिखती सरकारें और कराहते संविधान, आखिर धारा 144 लगाने के बावजूद कैसे पहुंचे बाबा के समर्थक

अमेठी बदलते राजनैतिक परिदृश्य में संगठित भीड़ के सामने सरकारें और कानून सब बौने साबित होते जा रहे हैं। संगठित भीड़ के दम पर कानून खिलवाड़ बनता जा रहा है और राजनैतिक फायदे के लिये अपनों को बचाने के लिये कानून बदल दिये जाते हैं। अब तक सरकारी अर्धसरकारी व संस्थागत कर्मचारियों के संगठनों के बारे में माना जाता था कि वह संगठित संख्या बल के सहारे जब चाहते हैं तब सरकार को झुकाकर अपनी बात मनवा लेते हैं।

एक समय था जबकि पुलिस को संगठित गिरोह कहा जाता था और तत्कालीन न्यायाधीश आनंद नारायण मुल्ला को टिप्पणी करना पड़ा था। वैसे हमारे सुरक्षा बलों का संगठन एकता एकरूपता और बहादुरी के लिये दुनिया में मशहूर है। अपने हक के लिये संगठित होना अच्छी बात है लेकिन अपनी नाजायज बात को मनवाने के संगठित होना अच्छी बात नहीं होता है। अब तक भीड़ के बल पर कर्मचारी सरकार को अपने सामने नतमस्तक कर रहे थे और शिक्षा मित्रों का ताजा आन्दोलन इस बात का जीता जागता उदाहरण है जिसमे सुप्रीम कोर्ट के स्पस्ट आदेश है फिर भी सूबे की सरकार कोई स्पष्ट लेने में सक्षम नहीं दिख रही है|

वर्तमान सरकार शिक्षामित्रो के संगठन और आंदोलन के आगे निरीह प्राणी की भूमिका में नजर आ रही है। शायद इसी लिये कहा भी गया है कि-” संघे शक्ति कलियुगें”। लेकिन संविधान में शक्ति के दुरुपयोग करने की छूट किसी को भी नहीं दी गयी। भीड़ के सहारे कानून अदालत और सरकार तीनों को मजाक बनाने का मामला अभी कल हरियाणा पंजाब में देखने को मिला है। यहाँ पर एक डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख बाबा राम रहीम पर पंचकूला में सीबीआई की अदालत में एक अपराधिक बलात्कार का मुकदमा चल रहा था| जिसमें कल फैसला तो नही सुनाया गया है लेकिन उन्हें दोषी मानकर पुलिस हिरासत में दे दिया गया है।

अदालत के आदेश के बावजूद उन्हें दोषी करार देने के पहले ही हजारों लाखों डेरा सच्चा सौदा के समर्थक वहाँ पर पहुँच गये थे। इतने भारी संख्या में आदमी कैसे वह पहुँच गए यह बड़ा सवाल है। जब खट्टर सर्कार यह जानती थी वावल हो सकता है तो समय रहते कोई सार्थक कदम नहीं उठाया गया । जानकारों का मानना है कि जैसे कई तस्वीरें दिखाई गई है की जिसमे बाबा राम रहीम भाजपा के उच्चस्थ पदों आसीन नेताओ के साथ कितने मधुर रिश्ते है।

इस तरह भीड़ व अराजकता करने वाले बाबा के समर्थक आज कानून व्यवस्था के लिये चुनौती बन गये है। उनसे इस समय न तो जनता व सुरक्षा बल सुरक्षित हैं और न ही मीडिया कर्मी सुरक्षित हैं।तीनों पर हमले हो रहे हैं और तमाम लोगों अब तक मर या घायल हो चुके हैं।स्थिति बद् से बदतर होती जा रही है।भीड़ के सहारे उत्पात करके क्या न्याय बदला जा सकता है, यह सवाल आज हर जिम्मेदार व्यक्ति के सामने है।इतनी भीड़ धारा 144 लागू लगी होने तथा अदालती आदेश के बावजूद वहाँ पर सरकार ने क्यों एकत्र होने दी?

लोग सरकार की चुप्पी और उसकी भूमिका दोनों को संदेह की नजरिए से देखकर उसे कटघरे में खड़ा कर रहें हैं ।फैसला होने से पहले ही भीड़ को बुलाकर उसे संगठित होने का अवसर देकर आज सरकार ने अपने लिये खुद समस्या ही नहीं खड़ी कर दी है बल्कि अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है।इस समस्या से कितना जानी माली नुकसान सरकार का और आमजनता का होगा इसका अभी अनुमान लगा पाना कठिन है।इसके बावजूद वहाँ की सरकार का गंभीर न होना उनकी नियत पर संदेह पैदा करता है।

अदालत ने बाबा जी को खुद जानबूझकर कर कानून से बाहर हटकर तो दोषी ठहराया नहीं है बल्कि साक्ष्य गवाह सबूत के आधार पर दोषी करार दिया है। अदालत का फैसला अगर संवैधानिक दायरे में न भी हो तो उसके विरुद्ध कानूनी ढंग से अपील करने की व्यवस्था है न कि अदालत के फैसले के विरूद्ध संगठित हिंसा फैलाकर जनमानस का जीना हराम कर दिया जाय। निजी व सार्वजनिक सम्मति को जलाकर या तोड़फोड़ करने का मतलब आतंक कायम करके जंगलराज कायम करने का प्रयास है।

राजनैतिक लाभ के इसे लगातार नजरअंदाज करने का मतलब भारतीय संविधान का अपमान है।यहीं कारण है कि सरकार की ढुलमुल नीति के चलते शायद इतिहास में पहली बार मीडिया के माध्यम से पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय को अपने आदेश के परिप्रेक्ष्य एक विशेष बैंच गठित करके हर गतिविधियों पर कड़ी चौकसी रखकर बिना किसी याचिका के खुद घटनाओं को संज्ञान में लेकर अपने निर्णय सुनाना पड़ रहा है।

न्यायालय ने तोड़ फोड़ आगजनी को देखते हुये डेरा सच्चा सौदा की सम्पत्तियों को जब्त करने के आदेश दिये हैं।कल कोई पहली बार किसी संत को अपराधिक मुकदमें में दोषी नहीं ठहराया गया है बल्कि इससे पहले आशाराम बापू जैसे तमाम लोगों को सजा सुनाई जा चुकी हैं। संविधान से बड़ा न तो कोई सरकार होती है न कोई व्यक्ति होता है।संविधान सर्वोच्च होता है और संविधान के तहत सुनवाई करके फैसला करने का कार्य न्यायपालिका करती है। न्यायपालिका में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद उसमें क्षमादान देने का अधिकार सिर्फ महामहिम राष्ट्रपति को नियमानुसार होता है।

अदालत ने अभी सिर्फ दोषी ही करार दिया है अभी सजा नहीं सुनाई है। लोगों का मानना है कि सजा की पूर्व आशंका के आधार पर भीड़ को वहाँ पर एकत्र किया गया था। दोषी करार देने का फैसला होते ही हिंसक विरोध करने की तैयारी जैसे पहले से ही थी। सभी संबंधित प्रभावित राज्यों की सरकारें भी बाबा समर्थकों से परिपूर्ण लगती हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो मुकदमे की तिथि आने से पहले वहाँ पर इतना बड़ा जमावड़ा नहीं होने नहीं दिया जाता ? आखिर हिंसक भीड़ क्या चाहती हैं क्या बाबा जी संविधान से ऊपर हैं? सरकारी सम्पत्ति के साथ आमजन की जान माल की भी रक्षा करने का उत्तरदायित्व सरकार का होता है।

सरकार कानून से चलती है और न्यायालय कानून का अनुपालन कराने के लिये अपराध करने पर सजा व व्यवस्था दोनों देता है।हम मानते हैं कि बाबा जी को षड्यंत्र के तहत फंसाया गया है| लेकिन अदालत के सामने षड्यंत्र को साबित क्यों नहीं कर सके? भीड़ यानी वोट का राजनैतिक लाभ लेना आज सरकार के गले की हड्डी बन गया है। यह भीड़ शक्ति का दुरुपयोग कर न्यायालय को आंख दिखाकर सजा सुनाने से पहले दबाव बनाना लोग मान रहे हैं।

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