जानिए गर्भाधान संस्कार द्वारा कैसे पाएं सुंदर, स्वस्थ, तेजस्वी, गुणवान, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और दीर्घायु संतान---

जानिए गर्भाधान संस्कार द्वारा कैसे पाएं सुंदर, स्वस्थ, तेजस्वी, गुणवान, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और दीर्घायु संतान---
ज्योतिष डेस्क - शुभ मुहूर्त में गर्भाधान संस्कार करने से सुंदर, स्वस्थ, तेजस्वी, गुणवान, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और दीर्घायु संतान का जन्म होता है। इसलिए इस प्रथम संस्कार का महत्व सर्वाधिक है।संस्कार का अर्थ संस्करण, परिष्करण, विमलीकरण अथवा विशुद्धिकरण से लिया जाता है। हिंदू धर्म में जातक के जन्म की प्रक्रिया आरंभ होने से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक कई संस्कार किये जाते हैं। पहला संस्कार गर्भधान का माना जाता है तो अंतिम संस्कार अंत्येष्टि संस्कार होता है। इस प्रकार मुख्यत: सोलह संस्कार निभाये जाते हैं। इन संस्कारों का महत्व इस प्रकार समझा जा सकता है कि जिस तरह अग्नि में तपा कर सोने को पवित्र और चमकदार बनाया जाता है उसी प्रकार संस्कारों के माध्यम से जातक के पूर्व जन्म से लेकर इस जन्म तक के विकार दूर कर उसका शुद्धिकरण किया जाता है। पहला संस्कार गर्भधान का माना जाता है।
पितृ-ऋण उऋण होने के लिए ही संतान-उत्पादनार्थ यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार से बीज तथा गर्भ से सम्बन्धित मलिनता आदि दोष दूर हो जाते हैं। जिससे उत्तम संतान की प्राप्ति होती है।भारतीय संस्कृति में कलिकाल में मनुष्य के सोलह संस्कारों का वर्णन किया है उसमें प्रथम संस्कार है। हमारे घर में उत्तम संतान का जन्म हो यही सभी चाहते हैं। हर मनुष्य की इच्छा होती है उसकी संतान उत्तम गुणयुक्त, संस्कारी, बलवान, आरोग्यवान एवं दीर्घायु हो। इसके लिए संतान के जन्म के बाद अच्छी देखभाल करते हैं लेकिन संतान को उत्तम बनाने के लिए उसके जन्म के बाद ध्यान देने से ज्यादा जरूरी है जन्म से पहले से ही आयोजन करना। लेकिन इसके लिए कोई प्रयत्न नहीं करता है। हम यह विज्ञान तो जानते हैं कि उत्तम प्रकार के पशु कैसे होते हैं लेकिन उत्तम संतान कैसे उत्पन्न होते हैं, यह विज्ञान हम नहीं जानते हैं। यह विज्ञान आयुर्वेद में बताया गया है। उत्तम संतान कैसे हो, यह विज्ञान प्रत्येक गृहस्थ स्त्री-पुरुष को जानना चाहिए।
संस्कार का अर्थ संस्करण, परिष्करण, विमलीकरण अथवा विशुद्धिकरण से लिया जाता है। हिंदू धर्म में जातक के जन्म की प्रक्रिया आरंभ होने से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक कई संस्कार किये जाते हैं। पहला संस्कार गर्भधान का माना जाता है तो अंतिम संस्कार अंत्येष्टि संस्कार होता है। इस प्रकार मुख्यत: सोलह संस्कार निभाये जाते हैं। इन संस्कारों का महत्व इस प्रकार समझा जा सकता है कि जिस तरह अग्नि में तपा कर सोने को पवित्र और चमकदार बनाया जाता है उसी प्रकार संस्कारों के माध्यम से जातक के पूर्व जन्म से लेकर इस जन्म तक के विकार दूर कर उसका शुद्धिकरण किया जाता है। पहला संस्कार गर्भधान का माना जाता है।
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की गर्भाधान संस्कार हेतु स्त्री (पत्नी) की जन्म राशि से चंद्र बल शुद्धि आवश्यक है। जन्म राशि से 4, 8, 12 वां गोचरीय चंद्रमा त्याज्य है। आधान लग्न में भी 4, 8, 12वें चंद्रमा को ग्रहण नहीं करना चाहिए। आधात लग्न में या आधान काल में नीच या शत्रु राशि का चंद्रमा भी त्याज्य है। जन्म लग्न से अष्टम राशि का लग्न त्याज्य है।आघात लग्न का सप्तम स्थान शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट होना चाहिए। ऐसा होने से कामसूत्र में वात्स्यायन द्वारा बताये गये सुंदर आसनों का प्रयोग करते हुए प्रेमपूर्वक संभोग होता है और गर्भाधान सफल होता है।आघात लग्न में गुरु, शुक्र, सूर्य, बुध में से कोई शुभ ग्रह स्थित हो अथवा इनकी लग्न पर दृष्टि हो तो गर्भाधान सफल होता है एवं गर्भ समुचित वृद्धि को प्राप्त होता है तथा होने वाली संतान गुणवान, बुद्धिमान, विद्यावान, भाग्यवान और दीर्घायु होती है। यदि उक्त ग्रह बलवान हो तो उपरोक्त फल पूर्ण रूप से मिलते हैं। गर्भाधान में सूर्य को शुभ ग्रह माना गया है और विषम राशि व विषम नवांश के बुध को ग्रहण नहीं करना चाहिए।आघात लग्न के 3, 5, 9 भाव में यदि सूर्य हो तो गर्भ पुत्र के रूप में विकसित होता है।गर्भाधान के समय लग्न, सूर्य, चंद्र व गुरु बलवान होकर विषम राशि व विषम नवांश में हो तो पुत्र जन्म होता है। यदि ये सब या इनमें से अधिकांश ग्रह सम राशि व सम नवांश में हो तो पुत्री का जन्म होता है।आधान काल में यदि लग्न व चंद्रमा दोनों शुभ युक्त हों या लग्न व चंद्र से 2, 4, 5, 7, 9, 10 में शुभ ग्रह हों, तथा पाप ग्रह 3, 6, 11 में हो और लग्न या चंद्रमा सूर्य से दृष्ट हो तो गर्भ सकुशल रहता है।गर्भाधान संस्कार हेतु अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, हस्त, स्वाती, अनुराधा, तीन उत्तरा, धनिष्ठा, रेवती नक्षत्र प्रशस्त है।पुरुष का जन्म नक्षत्र, निधन तारा (जन्म नक्षत्र से 7, 16, 25वां नक्षत्र) वैधृति, व्यतिपात, मृत्यु योग, कृष्ण पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा व सूर्य संक्रांति काल गर्भाधान हेतु वर्जित है। स्त्री के रजोदर्शन से ग्यारहवीं व तेरहवीं रात्रि में भी गर्भाधान का निषेध है। शेष छठवीं रात्रि से 16वीं रात्रि तक लग्न शुद्धि मिलने पर गर्भाधान करें।
गर्भाधान संस्कार के विषय में महर्षि चरक ने कहा है कि मन का प्रसन्न होना गर्भधारण के लिए आवष्यक है इसलिए स्त्री एवं पुरुष को हमेषा प्रसन्न रहना चाहिए और मन को प्रसन्न करने वाले वातावरण में रहना चाहिए। गर्भ की उत्पत्ति के समय स्त्री और पुरुष का मन जिस प्राणी की ओर आकृष्ट होता है, वैसी ही संतान उत्पन्न होती है इसलिए जैसी संतान हम चाहते हैं वैसी ही तस्वीर सोने के कमरे की दीवार पर लगानी चाहिए। जैसे कि राम, कृष्ण, अर्जुन, अभिमन्यु, छत्रपति षिवाजी एवं महाराणा प्रताप आदि। गर्भाधान के लिए स्त्री को आयु सोलह वर्ष से ज्यादा तथा पुरुष की आयु पच्चीस वर्ष से ज्यादा लेनी चाहिए।

Share this story