यहाँ एक महीने बाद मनाई जाती है दिवाली

यहाँ एक महीने बाद मनाई जाती है दिवाली
डेस्क -भगवान श्रीराम के लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने की खबर इन क्षेत्रों में देर से पहुंची थी क्योंकि पहाड़ी इलाकों के दुर्गम स्थानों में यातायात की पर्याप्त व्यवस्था नही थी जिसके चलते यहां एक माह बाद दीपावली मनायी जाती है । कार्तिक मास की अमावस को मनायी जाने वाली दीपावली के ठीक एक माह बाद मार्गशीर्ष मास की अमावस को एक और दीपावली मनायी जाती है जिसे ‘बूढ़ी दीपावली’ के नाम जाना जाता है । पर यह दीपावली समस्त भारत में न मना कर केवल उत्तर भारत के पहाड़ी इलाकों में मनायी जाती है । दीपावली का यह त्योहार हिमाचल के सिरमौर, शिमला के ऊपरी क्षेत्र, कुल्लू के भीतरी व बाहरी सिराज क्षेत्र तथा समूचे किन्नौर में मनाया जाता है। इसके अलावा पड़ौसी राज्य उत्तराखंड के जौनसार बाबर क्षेत्र में भी मनायी जाती है । कहते हैं कि भगवान श्रीराम के लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने की खबर इन क्षेत्रों में देर से पहुंची थी क्योंकि पहाड़ी इलाकों के दुर्गम स्थानों में यातायात के उचित एवं पर्याप्त साधनों के अभाव में यह खुशी का समाचार समय से नहीं पहुंच पाया था । पहाड़ी लोगों ने जब यह सुखद समाचार सुना तो उन्होंने देवदार और चीड़ की लकडियों की मशालें जलाकर रोशनी की और खूब नाच-गाना करके अपनी खुशी जाहिर की। तभी से यहां बूढ़ी दीवाली मनाने की परम्परा चल पड़ी । सिरमौर क्षेत्र में देर से दीपावली मनाने का कारण है कि कार्तिक मास में यहां के इलाकों में काम की अधिकता रहती है। इन दिनों यहां मक्की की फसल की कटाई होती है, अरबी की खुदाई होती है और यहां की ‘नगद फसल’ कहीं जाने वाली अदरक की फसल को जमीन से खोदकर बाजार में बेचने के लिए तैयार करना होता है। घास काट कर रखनी होती है क्योंकि फिर सर्दी तेजी से पांव पसारने शुरू कर देती है। इन्हीं व्यस्तताओं की वजह से इस क्षेत्र के लोग कार्तिक माह की दीपावली न मनाकर अगले मास की अमावस को फुर्सत से दीपावली का जश्न मनाते हैं। यहां शिरगुल देवता की गाथा गायी जाती है। और इस अवसर पर किए जाने वाला नृत्य ‘बूढ़ा नृत्य’ कहलाता है । इस अवसर पर पुरेटुआ का गीत गाना जरूरी समझा जाता है । कहा जाता है कि पुरेटुआ बहुत वीर था और अपनी वीरता के अभिमान में वह त्योहार के दिन घर से बाहर चला गया और मारा गया । इसलिए पुरेटुआ गाथा गाकर लोगों को समझाया जाता है कि त्योहार के दिन घर से बाहर नहीं जाना चाहिए। इस दिन उड़द की भरवां रोटी या पूड़ी खासतौर से बनायी जाती है। इसके अलावा मक्की भून कर व धान को नमक के पानी में पन्द्रह दिन भिगोकर उसका छिलका अलग कर, उसे भून, कूट कर चिवड़ा बनाया जाता है जिस ‘मूड़ा’ कहा जाता है। इसके अलावा शिलाई के स्थानीय लोग गेहूं को उबाल कर पहले खूब फुला लेते हैं। फिर उसका पानी निकाल कर धूप में तब तक सुखाते हैं जब तक दाने पूरी तरह से सूख नहीं जाते। उसके बाद बड़े-बड़े कड़ाहों में बालू रेत डाल कर उन्हें भूना जाता है। भुनने के बाद वे फूलकर सफेद भूरे से हो जाते हैं। फिर उन्हें छान कर उसमें कुछ दाने अफीम के भूनकर मिला दिए जाते हैं। फिर इनमें मुरमुरे मिलाकर बड़े-बड़े बर्तनों मे भरकर रख दिया जाता है। इसे साल भर तक खाया जा सकता है । जो लोग आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं वे इसमें अखरोट की गिरी और भुने पापड़ का चूरा भी मिला लेते हैं। उत्सव पर पहाड़ी लोगों का उत्साह देखते ही बनता है । आग जलाकर उसके चारों ओर नृत्य करना और अपनी संस्कृति को सहेजकर जीवन्त रखने का उनका यह प्रयास सराहनीय है । Source Achary indu prakash

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