आखिर कौन देगा बापू के सपनों की आजादी का सही सबूत

आखिर कौन देगा बापू के सपनों की आजादी का सही सबूत

सियाराम पांडेय ‘शांत’गणतंत्र यानी जनता का तंत्र। व्यक्ति का तंत्र। समूह का तंत्र। काम का तंत्र। नाम का तंत्र। ज्ञान का तंत्र। विज्ञान का तं़त्र। धर्म का तंत्र। कर्म का तंत्र। तंत्र एकांगी नहीं है। सभी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। शरीर और जान की तरह। साॅफ्टवेयर और हार्डवेयर की तरह। तंत्र के बिना कुछ भी संभव नहीं है। शरीर का अपना तंत्र है। तंत्रिकाएं हैं। एक की भी उपेक्षा आरोग्य से वंचित कर सकती है। बीमार कर सकती है। पोलियो प्रतिरोध अभियान के दौर में एक नारा दिया गया था कि ‘एक भी बच्चा छूटा। सुरक्षा चक्र टूटा।’ यह सामान्य नारा नहीं था। इसके अपने गूढ़ार्थ भी हैं। जीवन और व्यवहार के दूसरे क्षेत्रों में भी यह सिद्धांत किसी न किसी रूप में लागू होता है। इस पर आज गहन आत्ममंथन की जरूरत है। इसकी जरूरत इस लिए भी है क्योंकि इस देश का तंत्र बीमार है और इस कदर बीमार है कि उम्मीद की किरण नजर नहीं आती। देश 68वां गणतंत्र दिवस मना रहा है और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि इस देश में तंत्र गड़बड़ है। उसमें सुधार-परिष्कार की जरूरत है। हमने जनता से जो वादे किए हैं, उन्हें पूरा करने में हमें कड़ी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ेगी। अगर देश के प्रथम नागरिक को भी तं़त्र में खोट नजर आ रही है तो यह चैंकाने वाली बात है। तंत्र की खामियां आजादी के इतने वर्षों बाद भी क्यों नहीं ठीक की जा सकी, इसके लिए कौन जिम्मेदार है, यह अहम सवाल है। सरकार तंत्र में गड़बड़ी की बात कहकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकती। यह सच है कि तंत्र को एक आदमी ठीक नहीं कर सकता। इसके लिए सामूहिक प्रयास की जरूरत है। राष्ट्रपति ने यह भी कहा है कि हमें ये मानना होगा कि हमारा सिस्टम परफेक्ट नहीं हैं, इसकी खामियों की पहचान कर उन्हें सुधारना होगा। मतलब अभी खामियों की पहचान भी बाकी है। सिस्टम गड़बड़ है, इतना तो पता है लेकिन कहां गड़बड़ है, यह नहीं पता। कैसे गड़बड़ है। किसकी गड़बड़ी से गड़बड़ है, यह नहीं पता। इस गड़बड़ी को तलाशने और उसका समाधान करने के लिए भी एक तंत्र है। मतलब तंत्र पर तंत्र। कहीं कोई गड़बड़ी न हो, इसलिए सभी एक दूसरे पर नजर रखे हुए हैं। सीसीटीवी कैमरे का तो अपना वजूद है ही, हर आदमी की आंख में सीसीटीवी कैमरा फिट है। अपने को कोई नहीं देख रहा, सब दूसरों को देख रहे हैं। जिस सिस्टम की बात हो रही है, उसमें मैं भी कुछ कर सकता हूं, यह सोचने-समझने की जरूरत कोई नहीं समझ रहा। मतलब समूचे कुएं में भांग मिली हुई है। गरीबी अब भी बड़ी समस्या बनी हुई है, हमें फूड सिक्योरिटी सुनिश्चित करनी है. राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने यह भी कहा कि देश में गरीबी आज भी सबसे बड़ी समस्या है। उसे दूर करना है। गांवों में लोगों को बेहतर जीवन स्तर उपलब्ध कराना है। महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित वातावरण देना है। आजादी के 68 साल बाद भी अगर गांव-गरीब की बात करनी पड़ रही है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है, इस बावत भी तो विमर्श होना चाहिए। यह सच है कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिए जाने वाले राष्ट्रपति के संबोधन भले ही उनके मुख से निःसृत होते हैं जबकि विचार तो सरकार के ही होते हैं। लेकिन यह भी सच है कि राष्ट्रपति अपने अभिकथन से असहमति भी जाहिर नहीं कर सकते। देश के पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में चुनावी रणभेरी बज चुकी है।सभी राजनीतिक दल देश से गरीबी हटाने की बात कर रहे हैं। यह पहला और अंतिम चुनाव नहीं है जिसमें गरीबी हटाने की बात की जा रही है। आजादी के बाद से आज तक राजनीतिक दलों ने गरीबी हटाने की ही बात की है। तंत्र की गड़बड़ी सुधारने की ही बात की है लेकिन न तंत्र सुधरा और न ही गरीब हटी। हमें सोचना होगा कि हम कैसे गणतंत्र हैं और अगर हमारे गणतंत्र में खोट नहीं है तो बार-बार ‘जिमि दसनन मह जीभ बिचारी ’ वाली बात कही ही क्यों जा रही है। गरीबों के निरंतर गरीब होते जाने का सिलसिला थम क्यों नहीं रहा है? प्रख्यात कवि गोपाल सिंह नेपाली की कविता ऐसे में बेहद समीचीन नजर आती है।‘दिन गए बरस गए, यातना गई नहीं।रोटियां गरीब की प्रार्थना बनी रही।श्याम की वंशी बजी, राम का धनुष चढ़ा। बुद्ध का भी ज्ञान बढ़ा, निर्धनता गई नहीं। यह कविता पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने संसद में भी पढ़ी। इस पर तालियां भी बजीं लेकिन गरीबी के कारण और निवारण जानने की दिशा में व्यवस्थित काम नहीं हुआ। गरीबी कैसे घटेगी, इस दिशा में सोचा तक नहीं गया। आज देश योजना आयोग से नीति आयोग तक आ गया है। गरीबी पर संसद में सवाल उठाने वाले अब सत्ता में हैं और इस देश पर साठ साल से अधिक शासन करने वाली कांग्रेस एक बार फिर गरीबी हटाने की बात कर रही है। इस देश की गरीबी हटे या न हटे लेकिन नेता जरूर अमीर बन जाते हैं। ऐसा क्यों है, इसका जवाब किसी भी राजनीतिक दल, स्वयंसेवी संगठन और अर्थशास्त्री के पास नहीं है। मोदी सरकार का आरोप है कि कांग्रेस ने साठ साल सत्ता में रहकर भी जनता के लिए कोई काम नहीं किया। यही बात कांग्रेस कह रही है कि मोदी सरकार ने ढाई साल में नया क्या काम किया? सिवा योजनाओं के नाम बदलने के। उसने तो रेसकोर्ट रोड के नाम तक बदलने की सोच ली थी। उसकी जगह नया नाम भी तय कर लिया था-लोक कल्याण मार्ग। उस समय इस अवधारणा के पक्ष-विपक्ष में सोशल मीडिया पर काफी बावेला मचा था। मशहूर कार्टूनिस्ट मंजुल ने तो यहां तक लिख दिया था कि महात्मा गांधी के मार्ग पर चलकर सभी महात्मा बन गए। लोक कल्याण मार्ग पर चलकर लोक कल्याण हो जाएगा। यह कटाक्ष कुछ उसी तरह का है जैसा बहुत पहले कबीरदास ने किया था-‘ राम कहै दुनिया गति पावै खांड़ कहै मुख मीठा।’ केवल गरीबी-गरीबी चिल्लाने भर से तो गरीब नहीं मिट जाएगी। कभी कल्याण सिंह ने इस देश की संसद में यह बात कही थी कि गरीबी का जन्म बेरोजगारी की कोख से होता है। यह बात तब कही गई थी जब केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार राष्ट्रीय ग्रामीण सुरक्षा बिल-2004 ला रही थी। तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने संसद में देश की 72 करोड़ जनता की ओर से प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी को धन्यवाद दिया था। मतलब बकौल रघुवंश प्रसाद सिंह उस समय देश में 72 करोड़ गरीब थे।वर्ष 2004 में जब यूपीए सरकार बनी थी तब से कांग्रेस गरीबी और बेरोजगारी को हिंदुस्तान के माथे का कलंक बता रही है। यह भी विचारणीय है कि इसी कांग्रेस ने नेशनल काॅमन मिनिमम प्रोग्राम में पहले से चले आ रहे पुअर हाउस होल्ड शब्द से पुअर शब्द हटा लिया था। क्या गरीब शब्द हटा देने भर से इस देश की गरीबी मिट गई। इसका जवाब आज भी कांग्रेस के पास नहीं है। अपने गठन के बाद ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से संसद में दो विधेयक कांग्रेस ले आई थी। पहला पंचायती राज विधेयक था और दूसरा राष्ट्रीय ग्रामीण नियोजन गारंटी विधेयक। रघुवंश प्रसाद ने उस समय यह भी माना था कि ग्रामीण विकास विभाग गरीबों का विभाग है।इसमें कानून बनाने की अधिक गुंजाइश नहीं है। इसलिए इस विभाग का जो भी विधेयक बन रहा है, वह गांव के भले के लिए, गरीबों की सहायता के लिए, गरीब को छूने के लिए, गरीबी को हटाने के लिए बन रहा है। यह ऐतिहासिक विधेयक है। सवाल उठता है कि क्या इन दोनों विधेयकों की बदौलत गरीबी इस देश में इतिहास बन पाई। क्या केंद्र में कुछ ऐसे भी विभाग थे जिन्हें अमीर विभाग कहा जा सकता है और वे केवल अमीरों के लिए काम कर रहे थे। देश से गरीबी न हटने की वजह सभी राज्यों में समान वेतन व्यवस्था लागू न हो पाना भी रही। यह अलग बात है कि सरकार ने 60 रुपये न्यूनतम मजदूरी का भी प्राविधान किया लेकिन यह व्यवस्था धरातल पर कितनी उतर पाई, यह भी किसी से छिपा नहीं है। कल्याण सिंह ने देश की संसद में कहा था कि वह चीज हटती है जो होती है। गरीबी अपने आप में कुछ नहीं है, वह तो बेरोजगारी का नतीजा है। जिस हाथ को काम मिल जाएगा, उसकी जेब में दाम आ जाएगा और उसके आंगन में खुशहाली आ जाएगी। जो हाथ खाली रह जाएगा, उसकी जेब खाली रह जाएगी और उसके आंगन में कंगाली आ जाएगी। इसलिए यदि गरीबी मिटानी है तो बेरोजगारी मिटानी होगी। कांग्रेस को इतना तो बताना ही चाहिए कि कि जवाहर रोजगार योजना,रोजगार बीमा योजना, जवाहर समृद्धि योजना, सुनिश्चित रोजगार योजना, काम के बदले अनाज योजना और संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना विफल कैसे हो गई। उनमें भ्रष्टाचार का घुन कैसे लग गया। क्या उन पर विचार करने, उनकी समीक्षा करने की जरूरत महसूस की गई। 1978 में बनी महाराष्ट्र रोजगार योजना का मूल्यांकन महालेखा परीक्षक ने सिर्फ 1980 में एक बार किया था। 1980 से 2025 तक 24 सालों में किसी ने भी यह जानने-समझने की कोशिश नहीं की कि केंद्र की कांग्रेस सरकार ने इस योजना पर जो धन दिया, उसका उपयोगकहां और किस रूप में किया गया। इससे कितने लोगों को रोजगार मिला। महात्मा गांधी ने कभी नेहरू जी से कहा था कि ‘सही आजादी का सबूत। गांव हो मजबूत। अगर देश के गांव आज तक मजबूत नहीं हो सके हैं तो क्या यह माना जाना चाहिए कि इस देश में सही नीति निर्धारक नहीं है या फिर तंत्र की कमान नाकाबिलों के हाथ है। रंगराजन कमेटी, तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर गरीबी रेखा के सतही मानक तय कर देने भर से गरीबी तय नहीं हो जाती। इसके लिए गरीबों के बीच जाना और उनकी समस्याओं को पहचानना होगा। बंद कमरे में नीति बनाकर हम कुछ लोगों का तो भला कर सकते हैं लेकिन गरीबी नहीं मिटा सकते। संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2005 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत भूखों का देश है। इस कलंक को क्या हम मिटा पाए और अगर नही ंतो उसके पीछे कौन से कारक महत्वपूर्ण रहे। यूपी, बिहार, झारखंड,उड़ीसा,मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में करीब 60 प्रतिशत गरीब हैं जो शहरी और ग्रामीण मानक के मुताबिक 32 और 22 रुपये रोज भी कमा नहीं पा रहे हैं। ऐसे में गरीबी कैसे हटेगी। गांव कैसे मजबूत होंगे और गांधी जी के सपनों की आजादी का सही सबूत इस देश को कब मिलेगा, इस बावत कांग्रेस की क्या योजना है। अन्य राजनीतिक दलों को भी इस बावत अपनी योजना सुस्पष्ट करनी ही चाहिए।

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