नवरात्री विशेष--यदि चाहिए राजसत्ता का सुख .... करें माँ विन्ध्याचल शक्तिपीठ के दर्शन और सेवा/आराधना..

नवरात्री विशेष--यदि चाहिए राजसत्ता का सुख .... करें माँ विन्ध्याचल शक्तिपीठ के दर्शन और सेवा/आराधना..
प्रिय पाठकों/मित्रों, हमारे देश के सभी राज्यों में कोई ना कोई शक्तिपीठ विराजित है, लेकिन माँ विन्ध्याचल शक्तिपीठ की महिमा अद्भूत व निराली है। पुराणों में विन्ध्याचल को शक्तिपीठ, सिद्धपीठ व मणिपीठ कहा गया है। चूणामणि में 51 शक्तिपीठ व श्रीमद्भागवत में 108 पीठों का उल्लेख मिलता है। जिसमें विन्ध्याचल शक्तिपीठ का विशेष महत्व है। विन्ध्य पर्वत माला की आंचलों में स्थित यह विंध्याचल शक्तिपीठ अनादिकाल से ही शक्ति की लीला भूमि रही है।
शास़्त्रों के अनुसार देवी सती के पृष्ठभाग का विपार्थ हुआ था। कहा जाता है कि मां देवी पार्वती ने यहीं पर तप कर अर्पणा नाम पाया व भगवान शिव को प्राप्त किया। इस क्षेत्र को साधना व तपस्या हेतु जागृत प्रदेश माना जाता है। विन्ध्य क्षेत्र में ही नारायण ने महादेव की आराधना कर चक्र सुदर्शन प्राप्त किया था। इसके पीछे कथा यह है कि भगवान विष्णु की आराधना से जब महादेव प्रसंन हुए तो बदले में उनका नेत्र मांगा और जैसे ही विष्णु ने चाकू से अपनी आंख निकालने की कोशिश की, महादेव नेे रोक लिया और विश्व कल्याण व सुरक्षा के लिए सुदर्शन चक्र भेंट किया। इसके बाद यहीं पर मां लक्ष्मी ने शिवशंकर की तपस्या की तथा महादेव से स्त्री यौवन व सदैव युवती रहने का वरदान प्राप्त किया। कहा जाता है कि देवासुर संग्राम के वक्त जब दानव देवों पर भारी पड़ने लगे तब स्वयं देवों के देव महादेव, ब्रह्मा एवं विष्णु ने मां विन्ध्यवासिनी के गर्भगृह में बने कुंड में हजारों साल तक तपस्या कर मां के आर्शीवाद से दानवों को परास्त कर सके थे।
ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री ने बताया की मां विंध्यवासिनी एक मात्र ऐसी जागृत शक्तिपीठ है जिसका अस्तित्व सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी रहेगा। यहां देवी के 3 रूपों का सौभाग्य भक्तों को प्राप्त होता है। पुराणों में विंध्य क्षेत्र का महत्व तपोभूमि के रूप में वर्णित है। त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल निवासिनी देवी लोकहिताय, महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती का रूप धारण करती हैं। विंध्यवासिनी देवी विंध्य पर्वत पर स्थित मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। यहां पर संकल्प मात्र से उपासकों को सिद्वि प्राप्त होती है। इस कारण यह क्षेत्र सिद्व पीठ के रूप में विख्यात है। ब्रह्मा, विष्णु व महेश भी भगवती की मातृभाव से उपासना करते हैं, तभी वे सृष्टि की व्यवस्था करने में समर्थ होते हैं। इसकी पुष्टि मार्कंडेय पुराण श्री दुर्गा सप्तशती की कथा से भी होती है। शास्त्रों में मां विंध्यवासिनी के ऐतिहासिक महात्म्य का अलग-अलग वर्णन मिलता है. शिव पुराण में मां विंध्यवासिनी को सती माना गया है तो श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी कहा गया है। मां के अन्य नाम कृष्णानुजा, वनदुर्गा भी शास्त्रों में वर्णित हैं। इस महाशक्तिपीठ में वैदिक तथा वाम मार्ग विधि से पूजन होता है। शास्त्रों में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि आदिशक्ति देवी कहीं भी पूर्णरूप में विराजमान नहीं हैं, विंध्याचल ही ऐसा स्थान है जहां देवी के पूरे विग्रह के दर्शन होते हैं। शास्त्रों के अनुसार, अन्य शक्तिपीठों में देवी के अलग-अलग अंगों की प्रतीक रूप में पूजा होती है।
ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री के अनुसार.कहा जाता है कि एक बार नारायण ने भगवान महादेव से विन्ध्य क्षेत्र की महिमा का वृतांत पूछा, महादेव ने कहा, विन्ध्य क्षेत्रस्य महात्मयम वक्तु शिशु परमेश्वर लिखतुम हहया क्षचु दृष्टतः सुरेश्यम् अर्थात विन्ध्य क्षेत्र की महिमा हजार मुख वाले सिस, लिखने को हजार भुजा वाले अर्जुन व सहस्त्र शस्त्रों से युक्त इंद्र भी बताने में असमर्थ है। जबकि एक बार ब्रहमा ने तराजु पर वैकुंठ व विंध्याचल को तौला था। वैकुंठ का पलड़ा हल्का होने से वह स्वर्ग चला गया, जबकि विंध्य पृथ्वी पर ही रह गया। इस तरह वैकुंठ स्वर्ग से भी विन्ध्यधाम अतिउत्तम है। कहा जाता है कि सूरज का रास्ता रोकने वाला इस संसार में एकमात्र विन्ध्य पर्वत ही था। विन्ध्य पर्वत द्वारा रास्ता रोक दिये जाने से परेशान सूर्यदेव, विन्ध्य के गुरु अगस्त्य मुनि की शरण में गये। सूरज की प्रार्थना सुनकर गुरु अगस्त्य मुनि ने विन्ध्य पर्वत से कहा कि, वह अपना आकार बढ़ाना रोक दे। अगस्त्य मुनि का कहना था, कि वे अब बूढ़े हो चले हैं। उनसे अब और ऊँचाई पर चढ़ पाना इस बढ़ती उम्र में असंभव है। अगस्त्य मुनि के लाख आग्रह के बाद भी जब विन्ध्य पर्वत नहीं माना तो उन्होंने श्राप देने को कहा, तभी विन्ध्य पर्वत शरणागत होते हुए क्षमा याचना की। मुनि द्वारा क्षमा किए जाने के बाद विन्ध्य पर्वत ने अपना आकार बढ़ाना रोक दिया। इसके बाद ही सूरज को आगे बढ़ने का रास्ता मिलना संभव हो पाया था। कहते हैं कि, तभी से विन्ध्य पर्वत आज भी जहां के तहां सिर झुकाये खड़ा है, अपने गुरु की आज्ञा पालन के लिए। इस तथ्य का उल्लेख श्वामन पुराण के 18वें अध्याय में भी है। कहते हैं कि, पर्वतराज विन्ध्य के ऊपरी शिखर पर ही मां भगवती दुर्गा आज भी निवास करती हैं। भगवान भास्कर की पहली किरण विध्याचल धाम पर ही पड़ती है। विन्ध्य क्षेत्रे समं क्षेत्रं, नास्ति ब्रहृमांड गोलके। विन्ध्य क्षेत्रं परम् दिव्यं, पावनं मंगलं प्रदत।

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