क्या है नाथ सम्प्रदाय

क्या है नाथ सम्प्रदाय
नाथ सम्प्रदाय का परिचय---
डेस्क -वस्तुतः भारत ऋषि-मुनियों, पैगम्बरां, योगियों आदि की परम्पराओं वाला देश रहा है। यदि नाथ सम्प्रदाय के सामाजिक व राजनीतिक योगदान पर चर्चा की जाये तो यह बात स्पष्ट होती है कि नाथ योगियों ने अपनी भारतीय परम्पराओं व संस्कृति का निर्वहन करते हुए समाज का भला किया है और आम जनमानस की श्रद्धा भी इस सम्प्रदाय के प्रति रही है। यदि वर्तमान सन्दर्भ में देखा जाये तो नाथ सम्प्रदाय के कई योगी राजनीतिक पटल पर अच्छे कार्य करते रहे हैं और कर रहे हैं।
यह सम्प्रदाय भारत का परम प्राचीन, उदार, ऊँच-नीच की भावना से परे एंव अवधूत अथवा योगियों का सम्प्रदाय है।इसका आरम्भ आदिनाथ शंकर से हुआ है और इसका वर्तमान रुप देने वाले योगाचार्य बालयति श्री गोरक्षनाथ भगवान शंकर के अवतार हुए है। इनके प्रादुर्भाव और अवसान का कोई लेख अब तक प्राप्त नही हुआ। पद्म, स्कन्द शिव ब्रह्मण्ड आदि पुराण, तंत्र महापर्व आदि तांत्रिक ग्रंथ बृहदारण्याक आदि उपनिषदों में तथा और दूसरे प्राचीन ग्रंथ रत्नों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथायें बडे सुचारु रुप से मिलती है।
श्री गोरक्षनाथ वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत हुए है जिन्होने योग क्रियाओं द्वारा मानव शरीरस्थ महा शक्तियों का विकास करने के अर्थ संसार को उपदेश दिया और हठ योग की प्रक्रियाओं का प्रचार करके भयानक रोगों से बचने के अर्थ जन समाज को एक बहुत बड़ा साधन प्रदान किया।श्री गोरक्षनाथ ने योग सम्बन्धी अनेकों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे जिनमे बहुत से प्रकाशित हो चुके है और कई अप्रकाशित रुप में योगियों के आश्रमों में सुरक्षित हैं। श्री गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेकों बड़े-बड़े राजा इनसे दीक्षित हुए। उन्होंने अपने अतुल वैभव को त्याग कर निजानन्द प्राप्त किया तथा जन-कल्याण में अग्रसर हुए। इन राजर्षियों द्वारा बड़े-बड़े कार्य हुए। श्री गोरक्षनाथ ने संसारिक मर्यादा की रक्षा के अर्थ श्री मत्स्येन्द्रनाथ को अपना गुरु माना और चिरकाल तक इन दोनों में शका समाधान के रुप में संवाद चलता रहा। श्री मत्स्येन्द्र को भी पुराणों तथा उपनिषदों में शिवावतर माना गया अनेक जगह इनकी कथायें लिखी हैं।यों तो यह योगी सम्प्रदाय अनादि काल से चला आ रहा किन्तु इसकी वर्तमान परिपाटियों के नियत होने के काल भगवान शंकराचार्य से 200 वर्ष पूर्व है। ऐस शंकर दिग्विजय नामक ग्रन्थ से सिद्ध होता है।बुद्ध काल में वाम मार्ग का प्रचार बहुत प्रबलता से हुअ जिसके सिद्धान्त बहुत ऊँचे थे, किन्तु साधारण बुद्धि के लोग इन सिद्धान्तों की वास्तविकता न समझ कर भ्रष्टाचारी होने लगे थे।इस काल में उदार चेता श्री गोरक्षनाथ ने वर्तमान नाथ सम्प्रदाय क निर्माण किया और तत्कालिक 84 सिद्धों में सुधार का प्रचार किया।
यह सिद्ध वज्रयान मतानुयायी थे।इस सम्बन्ध में एक दूसरा लेख भी मिलता है जो कि निम्न प्रकार हैः-ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चौरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ। सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है।यह योगी सम्प्रदाय बारह पन्थ में विभक्त है, यथाः-सत्यनाथ, धर्मनाथ, दरियानाथ, आई पन्थी, रास के, वैराग्य के, कपिलानी, गंगानाथी, मन्नाथी, रावल के, पाव पन्थी और पागल।इन बारह पन्थ की प्रचलित परिपाटियों में कोई भेद नही हैं। भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में योगी सम्प्रदाय के बड़े-बड़े वैभवशाली आश्रम है और उच्च कोटि के विद्वान इन आश्रमों के संचालक हैं।श्री गोरक्षनाथ का नाम नेपाल प्रान्त में बहुत बड़ा था और अब तक भी नेपाल का राजा इनको प्रधान गुरु के रुप में मानते है और वहाँ पर इनके बड़े-बड़े प्रतिष्ठित आश्रम हैं। यहाँ तक कि नेपाल की राजकीय मुद्रा (सिक्के) पर श्री गोरक्ष का नाम है और वहाँ के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं। काबुल- गान्धर सिन्ध, विलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रान्तों में यहा तक कि मक्का मदीने तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और ऊँचा मान पाया था।
जब तांत्रिकों और सिद्धों के चमत्कार एवं अभिचार बदनाम हो गए, शाक्तमद्य, मांसादि के लिए तथा सिद्ध, तांत्रिक आदि स्त्री-संबंधी आचारों के कारण घृणा की दृष्टि से देखें जाने वाले तथा जब इनकी यौगिक क्रियाएँ भी मन्द पड़ने लगी, तब इन यौगिक क्रियाओं के उद्धार के लिए ही उस समय नाथ सम्प्रदाय का उदय हुआ। इसमें नवनाथ मुख्य कहे जाते हैं: गोरक्षनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, कारिणनाथ, गहिनीनाथ, चर्पटनाथ, रेवणनाथ, नागनाथ, भर्तृनाथ और गोपीचन्द्रनाथ। गोरक्षनाथ ही गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध है।
इस सम्प्रदाय के परम्परा संस्थापक आदिनाथ स्वयं शंकर के अवतार माने जाते हैं। इसका संबंध रसेश्वरों से है और इसके अनुयायी आगमों में आदिष्ट योग साधन करते हैं। अतः इसे अनेक इतिहासज्ञ शैव सम्प्रदाय मानते हैं। परन्तु और शैवों की तरह ये न तो लिंगार्चन करते हैं और न शिवोपासना के और अंगों का निर्वाह करते हैं। किन्तु तीर्थ, देवता आदि को मानते हैं, शिवमंदिर और देवीमंदिरों में दर्शनार्थ जाते हैं। कैला देवी जी तथा हिंगलाज माता के दर्शन विशेषतः कहते हैं, जिससे इनका शाक्त संबंध भी स्पष्ट है। योगी भस्म भी
रमाते हैं, परन्तु भस्मस्नान का एक विशेष तात्पर्य है-जब ये लोग शरीर में श्वास का प्रवेश रोक देते हैं। प्राणायाम की क्रिया मे ंयह महत्व की युक्ति है। फिर भी यह शुद्ध योगसाधना का पन्थ है। इसीलिए इसे महाभारतकाल के योगसम्प्रदाय की परम्परा के अंतर्गत हैं मानना चाहिए। विशेषता इसलिए कि पाशुपत सम्प्रदाय से इसका सम्बन्ध हलका सा ही देख पड़ता है। साथ ही योगसाधना इसके आदि, मध्य और अंत में हैं। अतः यह शैव मत का शुद्ध योग सम्प्रदाय है।
इस सम्प्रदाय में कई भाँति के गुरु होते हैं यथाः- चोटी गुरु, चीरा गुरु, मंत्र गुरु, टोपा गुरु आदि।श्री गोरक्षनाथ ने कर्ण छेदन-कान फाडना या चीरा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित की थी। कान फाडने को तत्पर होना कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य का बल प्रकट करता है।श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने अनुयायियों शिष्यों के लिये एक कठोर परीक्षा नियत कर दी। कान फडाने के पश्चात मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता हैं। चिरकाल तक परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है। बिना कान फटे साधु को 'ओघड़' कहते है और इसका आधा मान होता है। भारत में श्री गोरखनाथ के नाम पर कई विख्यात स्थान हैं और इसी नाम पर कई महोत्सव मनाये जाते हैं।यह सम्प्रदाय अवधूत सम्प्रदाय है। अवधूत शब्द का अर्थ होता है " स्त्री रहित या माया प्रपंच से रहित" जैसा कि " सिद्ध सिद्धान्त पद्धति" में लिखा हैः-"सर्वान् प्रकृति विकारन वधु नोतीत्यऽवधूतः।"अर्थात् जो समस्त प्रकृति विकारों को त्याग देता या झाड़ देता है वह अवधूत है। पुनश्चः-" वचने वचने वेदास्तीर्थानि च पदे पदे।इष्टे इष्टे च कैवल्यं सोऽवधूतः श्रिये स्तुनः।""एक हस्ते धृतस्त्यागो भोगश्चैक करे स्वयम्अलिप्तस्त्याग भोगाभ्यां सोऽवधूतः श्रियस्तुनः॥"उपर्युक्त लेखानुसार इस सम्प्रदाय में नव नाथ पूर्ण अवधूत हुए थे और अब भी अनेक अवधूत विद्यमान है।नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से अपने इष्ट देव का ध्यान करते है। परस्पर आदेश या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है जिसका वर्णन वेद और उपनिषद आदि में किया गया है।योगी लोग अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते है जिसे 'सिले' कहते है। गले में एक सींग की नादी रखते है। इन दोनों को सींगी सेली कहते है यह लोग शैव हैं अर्थात शिव की उपासना करते है। षट् दर्शनों में योग का स्थान अत्युच्च है और योगी लोग योग मार्ग पर चलते हैं अर्थात योग क्रिया करते है जो कि आत्म दर्शन का प्रधान साधन है। जीव ब्रह्म की एकता का नाम योग है। चित्त वृत्ति के पूर्ण निरोध का योग कहते है। वर्तमान काल में इस सम्प्रदाय के आश्रम अव्यवस्थित होने लगे हैं। इसी हेतु "अवधूत योगी महासभा" का संगठन हुआ है और यत्र तत्र सुधार और विद्या प्रचार करने में इसके संचालक लगे हुए है।प्राचीन काल में स्याल कोट नामक राज्य में शंखभाटी नाम के एक राजा थे। उनके पूर्णमल और रिसालु नाम के पुत्र हुए। यह श्री गोरक्षनाथ के शिष्य बनने के पश्चात क्रमशः चोरंगी नाथ और मन्नाथ के नाम से प्रसिद्ध होकर उग्र भ्रमण शील रहें।
नाथ सम्प्रदाय का उल्लेख विभिन्न क्षेत्र के ग्रंथों में जैसे-योग (हठयोग) तंत्र (अवधूत मत या सिद्ध मत) आयुर्वेद (रसायन चिकित्सा) बौद्ध अध्ययन (सहजयान तिब्बतियन परम्परा 84 सिद्धों में) हिन्दी (आदिकाल के कवियों के रूप) में चर्चा मिलती हैं। यौगिक ग्रंथों में नाथ सिद्धः- हठप्रदीपिका के लेखक स्वात्माराम और इस ग्रंथ के प्रथम टीकाकार ब्रह्मानंद ने हठ प्रदीपिका ज्योत्स्ना के प्रथम उपदेश में 5 से 9 वे श्लोक में 33 सिद्ध नाथ योगियों की चर्चा की है। ये नाथसिद्ध कालजयी होकर ब्रह्माण्ड में विचरण करते है। इन नाथ योगियों में प्रथम नाथ आदिनाथ को माना गया है जो स्वयं शिव है जिन्होंने हठयोग की विद्या प्रदान की जो राजयोग की प्राप्ति में सीढ़ी के समान है। आयुर्वेद ग्रंथों में नाथ सिद्धों की चर्चा:- रसायन चिकित्सा के उत्पत्ति करता के रूप प्राप्त होता है। जिन्होंने इस शरीर रूपी साधन को जो मोक्ष में माध्यम है इस शरीर को रसायन चिकित्सा पारद और अभ्रक आदि रसायानों की उपयोगिता सिद्ध किया। पारदादि धातु घटित चिकित्सा का विशेष प्रवत्र्तन किया था तथा विभिन्न रसायन ग्रंथों की रचना की उपरोक्त कथन सुप्रसिद्ध विद्वान और चिकित्सक महामहोपाध्याय श्री गणनाथ सेन ने लिखा है।तंत्र गंथों में नाथ सम्प्रदाय: - नाथ सम्प्रदाय के आदिनाथ शिव है, मूलतः समग्र नाथ सम्प्रदाय शैव है। शाबर तंत्र में कपालिको के 12 आचार्यों की चर्चा है- आदिनाथ, अनादि, काल, वीरनाथ, महाकाल आदि जो नाथ मार्ग के प्रधान आचार्य माने जाते है। नाथों ने ही तंत्र गंथों की रचना की है। षोड्श नित्यातंत्र में शिव ने कहा है कि - नव नाथों- जडभरत मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, , सत्यनाथ, चर्पटनाथ, जालंधरनाथ नागार्जुन आदि ने ही तंत्रों का प्रचार किया है।नाथ सम्प्रदाय का उल्लेख विभिन्न क्षेत्र के ग्रंथों में जैसे-योग (हठयोग) तंत्र (अवधूत मत या सिद्ध मत) आयुर्वेद (रसायन चिकित्सा) बौद्ध अध्ययन (सहजयान तिब्बतियन परम्परा 84 सिद्धों में) हिन्दी (आदिकाल के कवियों के रूप) में चर्चा मिलती हैं। यौगिक ग्रंथों में नाथ सिद्धः- हठप्रदीपिका के लेखक स्वात्माराम और इस ग्रंथ के प्रथम टीकाकार ब्रह्मानंद ने हठ प्रदीपिका ज्योत्स्ना के प्रथम उपदेश में 5 से 9 वे श्लोक में 33 सिद्ध नाथ योगियों की चर्चा की है। ये नाथसिद्ध कालजयी होकर ब्रह्माण्ड में विचरण करते है। इन नाथ योगियों में प्रथम नाथ आदिनाथ को माना गया है जो स्वयं शिव है जिन्होंने हठयोग की विद्या प्रदान की जो राजयोग की प्राप्ति में सीढ़ी के समान है। आयुर्वेद ग्रंथों में नाथ सिद्धों की चर्चा रसायन चिकित्सा के उत्पत्ति करता के रूप प्राप्त होता है। जिन्होंने इस शरीर रूपी साधन को जो मोक्ष में माध्यम है इस शरीर को रसायन चिकित्सा पारद और अभ्रक आदि रसायानों की उपयोगिता सिद्ध किया। पारदादि धातु घटित चिकित्सा का विशेष प्रवत्र्तन किया था तथा विभिन्न रसायन ग्रंथों की रचना की उपरोक्त कथन सुप्रसिद्ध विद्वान और चिकित्सक महामहोपाध्याय श्री गणनाथ सेन ने लिखा है।तंत्र गंथों में नाथ सम्प्रदाय - नाथ सम्प्रदाय के आदिनाथ शिव है, मूलतः समग्र नाथ सम्प्रदाय शैव है। शाबर तंत्र में कपालिको के 12 आचार्यों की चर्चा है- आदिनाथ, अनादि, काल, वीरनाथ, महाकाल आदि जो नाथ मार्ग के प्रधान आचार्य माने जाते है। नाथों ने ही तंत्र गंथों की रचना की है। षोड्श नित्यातंत्र में शिव ने कहा है कि - नव नाथों- जडभरत मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, , सत्यनाथ, चर्पटनाथ, जालंधरनाथ नागार्जुन आदि ने ही तंत्रों का प्रचार किया है।बौद्ध अध्ययन में नाथ सिद्ध 84 सिद्धों में आते है। राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरात्त्वांक में बौद्ध तिब्बतियन परम्परा के 84 सहजयानी सिद्धों की चर्चा की है। जिसमें से अधिकांश सिद्ध नाथसिद्ध योगी है जिनमें लुइपाद मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षपा गोरक्षनाथ, चैरंगीपा चैरंगीनाथ, शबरपा शबर आदि की चर्चा है जिन्हंे सहजयानीसिद्धों के नाम से जाना जाता है। हिन्दी में नाथसिद्ध:- हिन्दी साहित्य में आदिकाल के कवियों में नाथ सिद्धों की चर्चा मिलती है।चर्चा है। अपभ्रंस, अवहट्ट भाषाओं की रचनाऐं मिलती है जो हिन्दी की प्रारंभिक काल की है। इनकी रचनाओं में पाखंड़ों आडंबरो आदि का विरोध हैं तथा इन्की रचनाओं में चित्त, मन, आत्मा, योग, धैर्य, मोक्ष आदि का समावेश मिलता है जो साहित्य के जागृति काल की महत्वपूर्ण रचनाऐं मानी जाती है। जो जनमानष को योग की शिक्षा, जनकल्याण तथा जागरूकता प्रदान करने के लिए था। बौद्ध अध्ययन में नाथ सिद्ध:- 84 सिद्धों में आते है। राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरात्त्वांक में बौद्ध तिब्बतियन परम्परा के 84 सहजयानी सिद्धों की चर्चा की है। जिसमें से अधिकांश सिद्ध नाथसिद्ध योगी है जिनमें लुइपाद मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षपा गोरक्षनाथ, चैरंगीपा चैरंगीनाथ, शबरपा शबर आदि की चर्चा है जिन्हंे सहजयानीसिद्धों के नाम से जाना जाता है। हिन्दी में नाथसिद्ध:- हिन्दी साहित्य में आदिकाल के कवियों में नाथ सिद्धों की चर्चा मिलती है।चर्चा है। अपभ्रंस, अवहट्ट भाषाओं की रचनाऐं मिलती है जो हिन्दी की प्रारंभिक काल की है। इनकी रचनाओं में पाखंड़ों आडंबरो आदि का विरोध हैं तथा इन्की रचनाओं में चित्त, मन, आत्मा, योग, धैर्य, मोक्ष आदि का समावेश मिलता है जो साहित्य के जागृति काल की महत्वपूर्ण रचनाऐं मानी जाती है। जो जनमानष को योग की शिक्षा, जनकल्याण तथा जागरूकता प्रदान करने के लिए था।
इस पंथ वालों की योग साधना पातंजल विधि का विकसित रूप है। उसका दार्शनिक अंश छोड़कर हठयोग की क्रिया जोड़ देने से नाथपंत की योगक्रिया हो जाती है। नाथपंत में ‘ऊर्ध्वरेता’ या अखण्ड ब्रह्मचारी होना सबसे महत्व की बात है। मांस-मद्यादि सभी तामसिक भोजनों का पूरा निषेध है। यह पंथ चौरासी सिद्धों के तांत्रिक वज्रयान का सात्विक रूप में परिपालक प्रतीत होता है।
उनका तात्विक सिद्धांत है कि परमात्मा ‘केवल’ है। उसी परमात्मा तक पहुँचना मोक्ष है। जीव का उससे चाहे जैसा संबंध माना जाए, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से उससे सम्मिलित ही कैवल्य मोक्ष या योग है। इसी जीवन में उसकी अनुभूति हो जाए, पंथ का यही लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रथम सीढ़ी काया की साधना है। कोई काया को शत्रु समझकर भाँति-भाँति के कष्ट देता है और कोई विषयवासना में लिप्त होकर उसे अनियंत्रित छोड़ देता है। परन्तु नाथपंथी काया को परमात्मा का आवास मानकर उसकी उपयुक्त साधना करता है। काया उसके लिए वह यंत्र है जिसके द्वारा वह इसी जीवन में मोक्षानुभूति कर लेता है, जन्म मरण जीवन पर पूरा अधिकार कर लेता है, जरा-भरण-व्याधि और काल पर विजय पा जाता है।
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह पहले काया शोधन करता है। इसके लिए वह यम, नियम के साथ हठयोग के षट् कर्म(नेति, धौति, वस्ति, नौलि, कपालभांति और त्राटक) करता है कि काया शुद्ध हो जाए। यह नाथपंतियों का अपना आविष्कार नहीं है; हठयोग पर लिखित ‘घेरण्डसंहिता’ नामक प्राचीन ग्रंथ में वर्णित सात्विकयोग प्रणाली का ही यह उद्धार नाथपंथियों ने किया है।
इस मत में शुद्ध हठयोग तथा राजयोग की साधनाएँ अनुशासित हैं। योगासन, नाड़ीज्ञान, षट्चक्र निरूपण तथा प्राणायाम द्वारा समाधि की प्राप्ति इसके मुख्य अंग हैं। शारीरिक पुष्टि तथा पंच महाभूतों पर विजय की सिद्धि के लिए रसविद्या का भी इस मत में एक विशेष स्थान है। इस पंथ के योगी या तो जीवित समाधि लेते हैं या शरीर छोड़ने पर उन्हें समाधि दी जाती है। वे जलाये नहीं जाते। यह माना जाता है कि उनका शरीर योग से ही शुद्ध हो जाता है, उसे जलाने की आवश्यकता नहीं। नाथपंथी योगी अलख(अलक्ष) जगाते हैं। इसी शब्द से इष्टदेव का ध्यान करते हैं और इसी से भिक्षाटन भी करते हैं। इनके शिष्य गुरू के ‘अलक्ष’ कहने पर ‘आदेश’ कहकर सम्बोधन का उत्तर देते हैं। इन मंत्रों का लक्ष्य वहीं प्रणवरूपी परम पुरूष है जो वेदों और उपनिषदों का ध्येय हैं। नाथपंथी जिन ग्रंथों को प्रमाण मानते हैं उनमें सबसे प्राचीन हठयोग संबंधी ग्रंथ घेरण्डसंहिता और शिवसंहिता है। गोरक्षनाथकृत हठयोग, गोरक्षनाथ ज्ञानामृत, गोरक्षकल्प सहस्त्रनाम, चतुरशीत्यासन, योगचिन्तामणि, योगमहिमा, योगमार्तण्ड, योग सिद्धांत पद्धति, विवेकमार्तण्ड, सिद्ध सिद्धांत पद्धति, गोरखबोध, दत्त गोरख संवाद, गोरखनाथ जी रा पद, गोरखनाथ के स्फुट ग्रंथ, ज्ञान सिद्धांत योग, ज्ञानविक्रम, योगेश्वरी साखी, नरवैबोध, विरहपुराण और गोरखसार ग्रंथ भी नाथ सम्प्रदाय के प्रमाण ग्रंथ हैं।
श्री नवनाथ
1.श्री गुरु आदिनाथ जी(ज्योति स्वरुप) 2.श्री गुरु उदयनाथ जी(पार्वती स्वरुप) 3.श्री गुरु सत्यनाथ जी(ब्रह्मा स्वरुप) 4.श्री गुरु सन्तोषनाथ जी(विष्णु स्वरुप) 5.श्री गुरु अचल अचम्भेनाथ(शेषनाग स्वरुप) 6.श्री गुरु गज कन्थड़नाथ(गणेश स्वरुप) 7.श्री गुरु चौरंगीनाथ जी(चन्द्रमा स्वरुप) 8.श्री गुरु मत्स्येँद्रनाथ जी(माया स्वरुप) 9.श्री गुरु गोरखनाथ जी(शिव स्वरुप)
नाथ सम्प्रदाय के बारह पंथ
नाथ सम्प्रदाय के अनुयायी मुख्यतः बारह शाखाओं में विभक्त हैं, जिसे बारह पंथ कहते हैं । इन बारह पंथों के कारण नाथ सम्प्रदाय को ‘बारह-पंथी’ योगी भी कहा जाता है । प्रत्येक पंथ का एक-एक विशेष स्थान है, जिसे नाथ लोग अपना पुण्य क्षेत्र मानते हैं । प्रत्येक पंथ एक पौराणिक देवता अथवा सिद्ध योगी को अपना आदि प्रवर्तक मानता है । नाथ सम्प्रदाय के बारह पंथों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - 1. सत्यनाथ पंथ - इनकी संख्या 31 बतलायी गयी है । 2. धर्मनाथ पंथ – इनकी संख्या २५ है । 3. राम पंथ - इनकी संख्या ६१ है । 4. नाटेश्वरी पंथ अथवा लक्ष्मणनाथ पंथ – इनकी संख्या ४३ है । 5. कंथड़ पंथ - इनकी संख्या १० है । 6. कपिलानी पंथ - इनकी संख्या २६ है । 7. वैराग्य पंथ - इनकी संख्या १२४ है । 8. माननाथ पंथ - इनकी संख्या १० है । 9. आई पंथ - इनकी संख्या १० है । 10. पागल पंथ – इनकी संख्या ४ है । 11.ध्वजनाथ पंथ - इनकी संख्या ३ है । 12. गंगानाथ पंथ - इनकी संख्या ६ है । कालान्तर में नाथ सम्प्रदाय के इन बारह पंथों में छह पंथ और जुड़े - १॰ रावल (संख्या-७१), २॰ पंक (पंख), ३॰ वन, ४॰ कंठर पंथी, ५॰ गोपाल पंथ तथा ६॰ हेठ नाथी । इस प्रकार कुल बारह-अठारह पंथ कहलाते हैं । बाद में अनेक पंथ जुड़ते गये, ये सभी बारह-अठारह पंथों की उपशाखायें अथवा उप-पंथ है । कुछ के नाम इस प्रकार हैं - अर्द्धनारी, अमरनाथ, अमापंथी। उदयनाथी, कायिकनाथी, काममज, काषाय, गैनीनाथ, चर्पटनाथी, तारकनाथी, निरंजन नाथी, नायरी, पायलनाथी, पाव पंथ, फिल नाथी, भृंगनाथ आदि
84 नाथ सम्प्रदाय सिद्ध
सनक नाथ जी लंक्नाथ रैवेन नाथ जी सनातन नाथ जी विचार नाथ जी / भ्रिथारी नाथ जी चक्रनाथ जी नरमी नाथ जी रतन नाथ जी श्रृंगेरी नाथ जी सनंदन नाथ जी निवृति नाथ जी सनत कुमार नाथ जी ज्वालेंद्र नाथ जी i सरस्वती नाथ जी ब्राह्मी नाथ जी प्रभुदेव नाथ जी कनकी नाथ जी धुन्धकर नाथ जी नारद देव नाथ जी मंजू नाथ जी मानसी नाथ जी वीर नाथ जी हरिति नाथ जी नागार्जुन नाथ जी भुस्कई नाथ जी मदर नाथ जी गहिनी नाथ जी भूचर नाथ जी हम्ब्ब नाथ जी वक्र नाथ जी चर्पट नाथ जी बिलेश्याँ नाथ जी कनिपा नाथ जी बिर्बुंक नाथ जी ज्ञानेश्वर नाथ जी Tara नाथ जी सुरानन्द नाथ जी सिद्ध बुध नाथ जी भागे नाथ जी पीपल नाथ जी चन्द्र नाथ जी भद्र नाथ जी एक नाथ जी मानिक नाथ जी घेहेल्लेअरो नाथ जी काय नाथ जी नाथ जी बाबा Mast नाथ जी याग्यवलक्य नाथ जी गौर नाथ जी तिन्तिनी नाथ जी दया नाथ जी हवाई नाथ जी दरिया नाथ जी खेचर नाथ जी घोडा नाथ जी संजी नाथ जी सुखदेव नाथ जी आघॉद नाथ जी देव नाथ जी प्रकाश नाथ जी कोर्ट नाथ जी बालक नाथ जी बाल्गुँदै नाथ जी शबर नाथ जी विरूपाक्ष नाथ जी मल्लिका नाथ जी गोपाल नाथ जी लाघी नाथ जी अलालम नाथ जी सिद्ध पढ़ नाथ जी आडबंग नाथ जी गौरव नाथ जी धीर नाथ जी सहिरोबा नाथ जी प्रोद्ध नाथ जी गरीब नाथ जी काल नाथ जी धरम नाथ जी मेरु नाथ जी सिद्धासन नाथ जी सूरत नाथ जी मर्कंदय नाथ जी मीन नाथ जी काक्चंदी नाथ जी भागे नाथ जी पीपल नाथ जी Chandra Nath Ji भद्र नाथ जी एक नाथ जी मानिक नाथ जी घेहेल्लेअरो नाथ जी काय नाथ जी बाबा मस्त नाथ जी Yagyawalakya नाथ जी गौर नाथ जी तिन्तिनी नाथ जी दया नाथ जी हवाई नाथ जी दरिया नाथ जी खेचर नाथ जी घोडा नाथ जी संजी नाथ जी सुखदेव नाथ जी आघॉद नाथ जी देव नाथ जी प्रकाश नाथ जी कोर्ट नाथ जी बालक नाथ जी बाल्गुँदै नाथ जी शबर नाथ जी मल्लिका नाथ जी गोपाल नाथ जी लाघी नाथ जी अलालम नाथ जी सिद्ध नाथ जी आडबंग नाथ जी गौरव नाथ जी धीर नाथ जी सहिरोबा नाथ जी प्रोद्ध नाथ जी Garib नाथ जी काल नाथ जी धरम नाथ जी मेरु नाथ जी सिद्धासन नाथ जी सूरत नाथ जी मर्कंदय नाथ जी मीन नाथ जी काक्चंदी नाथ जी
नवनाथ-शाबर-मन्त्र
“ॐ नमो आदेश गुरु की। ॐकारे आदि-नाथ, उदय-नाथ पार्वती। सत्य-नाथ ब्रह्मा। सन्तोष-नाथ विष्णुः, अचल अचम्भे-नाथ। गज-बेली गज-कन्थडि-नाथ, ज्ञान-पारखी चौरङ्गी-नाथ। माया-रुपी मच्छेन्द्र-नाथ, जति-गुरु है गोरखनाथ। घट-घट पिण्डे व्यापी, नाथ सदा रहें सहाई। नवनाथ चौरासी सिद्धों की दुहाई। ॐ नमो आदेश गुरु की।।
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श्री नवनाथ-स्तुति
“आदि-नाथ कैलाश-निवासी, उदय-नाथ काटै जम-फाँसी। सत्य-नाथ सारनी सन्त भाखै, सन्तोष-नाथ सदा सन्तन की राखै। कन्थडी-नाथ सदा सुख-दाई, अञ्चति अचम्भे- नाथ सहाई। ज्ञान-पारखी सिद्ध चौरङ्गी, मत्स्येन्द्र-नाथ दादा बहुरङ्गी। गोरख-नाथ सकल घट-व्यापी, काटै कलि- मल, तारै भव-पीरा। नव-नाथों के नाम सुमिरिए, तनिक भस्मी ले मस्तक धरिए। रोग-शोक-दारिद नशावै, निर्मल देह परम सुख पावै। भूत-प्रेत-भय-भञ्जना, नव-नाथों का नाम। सेवक सुमरे धर्म नाथ, पूर्ण होंय सब काम।।” प्रतिदिन नव-नाथों का पूजन कर उक्त स्तुति का २१ बार पाठ कर मस्तक पर भस्म लगाए। इससे नवनाथों की कृपा मिलती है। साथ ही सब प्रकार के भय-पीड़ा, रोग- दोष, भूत-प्रेत-बाधा दूर होकर मनोकामना, सुख-सम्पत्ति आदि अभीष्ट कार्य सिद्ध होते हैं। २१ दिनों तक, २१ बार पाठ करने से सिद्धि होती है।
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गोरखनाथ जी की प्रमुख शिक्षाएँ सबदी बसती न सुन्यं सुन्यं न बसती अगम अजोचर ऐसा।। गगन सिषर महि बालक बोलै ताका नाँव धरहुगे कैसा।।1।।
अदेषि देषिबा देषि बिचारिबा अदिसिटि राषिबा चीया।। पाताल की गंगा ब्रह्मण्ड चढ़ाइबा, तहाँ बिमल-बिमल जल पीया।।2।।
इहाँ ही आछै इहाँ ही अलोप। इहाँ ही रचिलै तीनि त्रिलोक।। आछै संगै रहै जुवा। ता कारणि अनन्त सिधा जोगेस्वर हूवा।।3।।
वेद कतेब न षाँणी बाँणी। सब ढँकी तलि आँणी।। गगन सिषर महि सबद प्रकास्या। तहँ बूझै अलष बिनाँणीं।।4।।
अलष बिनाँणी दोइ दीपक रचिलै तीन भवन इक जोती। तास बिचारत त्रिभवन सूझै चुणिल्यौ माँणिक मोती।।5।।
वेदे न सास्त्रे कतेबे न कुरांणे पुस्तके न बंच्या जाई।। ते पद जांनां बिरला जोगी और दुनी सब धंधे लाई।।6।।
हसिबा षेलिबा रहिबा रंग। काम क्रोध न करिबा संग।। हसिबा षेलिबा गाइबा गीत। दिढ करि राषि आपनां चीत।।7।।
हरिबा षेलिबा धरिबा ध्यांन। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियाँन। हसै षेले न करै मन भंग। ते निहचल सदा नाथ के संग।।8।।
सबदहिं ताला सबदहिं कूँची, सबदहिं सबद जगाया। सबदहिं सबद सूँ परचा हूआ, सबदहिं सबद समाया।।9।।
गगन मँडल मैं ऊँधा कूवा, तहाँ अमृत का बासा।। सगुरा होइ सु भरि भरि पीवै निगुरा जाइ पियासा।।10।।
गगने न गोपंत तेज न सोषंत पवने न पेलंत बाई।। मही भारे न भाजंत उदके न डूबन्त कहौ तौ को पतियाई।।11।।
नाथ कहै तुम सुनहु रे अवधू दिढ करि राषहु चीया।। काम क्रोध अहंकार निबारौ तौ सबै दिसंतर कीया।।12।।
थोड़ा बोलै थोड़ा षाइ तिस घटि पवनां रहै समाइ।। गगन मंडल में अनहद बाजै प्यंड पड़ै तो सतगुर लाजै।।13।।
अति अहार यंद्री बल करै नासै ग्याँन मैथुन चित धरै।। ब्यापै न्यंद्रा झंपै काल ताके हिरदै सदा जंजाल।।14।।
धूतारा ते जे धूतै आप, भिष्या भोजन नहीं संताप।। अहूठ पटण मैं भिष्या करै, ते अवधू सिव पुरी संचरै।।15।।
यहु मन सकती यहु मन सीव। यहु मन पाँच तत्त का जीव।। यहु मन लै जे उनमन रहै। तौ तिनि लोक की बाताँ कहै।।16।।
अवधू नव घाटी रोकि लै बाट। बाई बणिजै चौसठि हाट।। काया पलटै अबिचल बिध। छाया बिबरजित निपजै सिध।।17।।
अवधू दंम कौ गहिबा उनमनि रहिबा, ज्यूँ बाजबा अनहद तूरं।। गगन मंडल मैं तेज चमकै, चंद नहीं तहाँ सूरं।।18।।
सास उसास बाइकौ भषिबा, रोकि लेहु नव द्वारं।। छठै छमासि काया पलटिबा, तब उनमँनी जोग अपारं।।19।।
अवधू प्रथम नाड़ी नाद झमकै, तेजंग नाड़ी पवनं।। सीतंग नाड़ी ब्यंद का बासा, कोई जोगी जानत गवनं।।20।।
मन मैं रहिणाँ भेद न कहिणाँ, बोलिबा अमृत बाँणी।। आगिला अगनी होइबा अवधू, तौ आपण होइबा पाँणी।।21।।
उनमनि रहिबा भेद न कहिबा, पीयबा नींझर पाँणीं।। लंका छाड़ि पलंका जाइबा, तब गुरमुष लेबा बाँणी।।22।।
प्यंडे होइ तौ मरै न कोई, ब्रह्मंडे देषै सब लोई।। प्यंड ब्रह्मंड निरंतर बास, भणंत गोरष मछ्यंद्र का दास।।23।।
उत्तरषंड जाइबा सुंनिफल खाइबा, ब्रह्म अगनि पहरिबा चीरं।। नीझर झरणैं अमृत पीया, यूँ मन हूवा थीरं।।24।।
नग्री सोभंत बहु जल मूल बिरषा सभा सोभंत पंडिता पुरषा।। राजा सोभंत दल प्रवांणी, यूँ सिधा सोभंत सुधि-बुधि की वाँणी।।25।।
गोरष कहै सुणहु रे अवधू जग मैं ऐसैं षैं रहणाँ।। आँषैं देखिबा काँनैं सुणिबा मुष थैं कछू न कहणाँ ।।26।।
नाथ कहै तुम आपा राषौ, हठ करि बाद न करणाँ।। यहु जुग है कांटे की बाड़ी, देषि देषि पग धरणाँ ।।27।।
दृष्टि अग्रे दृष्टि लुकाइबा, सुरति लुकाइबा काँनं।। नासिका अग्रे पवन लुकाइबा, तह रहि गया पद निरबाँनं।।28।।
अरध उरध बिच धरी उठाई, मधि सुँनि मैं बैठा जाई।। मतवाला की संगति आई, कथंत गोरषनाथ परमगति पाई।।29।।
गोरष बोलै सुणि रे अवधू पंचौं पसर निवारी।। अपणी आत्माँ आप बिचारी, तब सोवौ पान पसारी।।30।।
षोडस नाड़ी चंद्र प्रकास्या द्वादस नाड़ी मानं।। सहँसु्र नाड़ी प्राँण का मेला, जहाँ असंष कला सिव थांनं।।31।।
अवधू ईड़ा मारग चंद्र भणीजै, प्यंगुला मारग भाँमं।। सुषमनां मारग बांणीं बोलिये त्रिय मूल अस्थांनं।।32।।
संन्यासी सोइ करै सर्बनास गगन मंडल महि माँडै आस।। अनहद सूँ मन उनमन रहै, सो संन्यासी अगम की कहै।।33।।
कहणि सुहेली रहणि दुहेली कहणि रहणि बिन थोथी।। पढ्या गुंण्या सूवा बिलाई खाया पंडित के हाथि रहि गई पोथी।।34।।
कहणि सुहेली रहणि दुहेली बिन षायाँ गुड़ मींठा।। खाई हींग कपूर बषांणं गोरष कहै सब झूठा।।35।।
मूरिष सभा न बैसिबा अवधू पंडित सौ न करिबा बादं।। राजा संग्रांमे झूझ न करबा हेलै न षोइबा नादं।।36।।
कोई न्यंदै कोई व्यंदै कोई करै हमारी आसा।। गोरष कहै सुणौं रे अवधू यहु पंथ षरा उदासा।।37।।
यंद्री का लड़बड़ा जिभ्या का फूहड़ा। गोरष कहै ते पर्तषि चूहड़ा।। काछ का जती मुष का सती। सो सतपुरूष उतमो कथी।।38।।
अधिक तत्त ते गुरू बोलिये हींण तत्त ते चेला।। मन माँनै तौ संगि रमौ नहीं तौ रमौ अकेला।।39।।
आकास तत सदा सिब जाँण। तसि अभिअंतरि पद निरबाँण।। प्यंडे परचाँनै गुरमुषि जोइ। बाहुडि आबागमन न होइ।।40।।
या पवन का जाणैं भेव। सो आपै करता आपै देव। गोरख कहै सुणौ रे अवधू। अन्ते पांणी जोग।।41।।
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नाथ सम्प्रदाय का जाति के रूप में विकसित होना
यह एक सुस्थापित सिद्धान्त है कि, प्रारमिभक काल मेंं जाति षब्द से अभिप्राय योनि होता था यथा पषु योनि, पक्षी योनि, मनुष्य योनि आदि। प्रत्येक योनि मेंं लिंग के आधार पर मनुष्य योनि मेंं भी प्रमुख रूप से दो ही जातियां अर्थात नर और मादा थी। प्रत्येक योनि मेंं चारों वर्ण थे। मनुष्य योनि के अतिरिä षेष जीवों का वर्ण जन्म से निर्धारित है। केवल मनुष्य योनि को अपने गुणजनित विषेषताओं और कर्म अनुसार अपना वर्ण निर्धारण करने की स्वतन्त्रता थी। भगवदगीता के चौथे अध्याय के 13वें ष्लोक का पूर्वाद्र्ध इस सम्बन्ध मेंं प्रकाष डालता है। ”चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागष: अर्थात मेरे द्वारा गुणों और कमोर्ं के विभागपूर्वक वर्णों की रचना की गयी है। यहां ‘चातुर्वण्र्यं पद सम्पूर्ण ब्रह्रााण्ड का उपलक्षण है। जिसका अर्थ है कि, न केवल मनुष्य वरन अखिल ब्रह्रााण्ड के ग्रह-नक्षत्र तथा उनकी छोटी से छोटी व बड़ी से बड़ी र्इकार्इ सहित समस्त सजीव-निर्जीव, चरन्द, परन्द, जलन्द, अण्डज (सरल शब्दों मेंं पषु, पक्षी, जलीय जीव-जन्तु, उभयचर, वनस्पति, देव, दानव, नर, किन्नर, प्रेत, यक्ष, गन्धर्व, पितर तथा तिर्यक) आदि सभी गुण और कर्म के अनुसार चार प्रकार के होते हैं। स्व विवेक अनुसार कर्म करने का अधिकार केवल मनुष्य को है अत: वह अपना वर्ण कर्म के अनुसार कितनी भी बार चुनने तथा बदलने का अधिकारी है। यह अधिकार देवताओं को भी नहींं है कि, वे अपना वर्ण बदल सकें। किन्तु ‘नाथ वर्ण व्यवस्थातीत है। चारों वर्णों मेंं से प्रबल प्रारब्ध के कारण जब कोर्इ व्यä ‘िनाद और ‘बिन्दु परंम्परा में से किसी भी एक के द्वारा योग मार्ग का अनुसरण प्रारम्भ करता है उसी काल से वह चारों वणोर्ं से उभयातीत होकर परम पुरुषार्थ अर्थात ‘मोक्ष की ओर अग्रसर हो जाता है। महाकाव्य काल के रामायण काल मेंं स्वयं विष्णु द्वारा निम्न जाति के डाकू रत्नाकर (महर्षि वाल्मीकि को वाल्मीकि समाज अछूत वर्ग का मानते हैं जबकि ब्राह्राण समाज उन्हें ब्राह्राण कुल में उत्पन्न होना मानते हैं) को और महाभारत के नायक Ñष्ण द्वारा अजर्ुन को योगमार्ग मेंं पृवत्त करना इस तथ्य के सर्वोत्Ñष्ट उदाहरण हैं। कहने का तात्पर्य यह कि नाथ सम्प्रदाय पृथक से कोर्इ जाति नहींं थी वरन समाज के सभी वर्ण और वगोर्ं के लियेे इस सम्प्रदाय के कपाट खुले हुए थे और आज भी कोर्इ भी व्यä चिहे वह किसी भी जाति, वंष, गोत्र, वर्ण अथवा स्थान का हो, इस सम्प्रदाय मेंं समिलित हो सकता है। इस सम्प्रदाय मेंं आज भी मनुष्य की नर और नारी नामक केवल दो ही जातियां हैं और सामाजिक प्रासिथ्ति के नाम पर भी केवल विरä तथा गृहस्थ नाथयोगी होते हैं। इस सम्प्रदाय के विस्तार का अनुमान केवल इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि, प्रत्येक वर्ण के परिवारों मेंं से कम से कम एक सदस्य नाथ सम्प्रदाय मेंं दीक्षित होता था, किन्तु उसका अपने मूल परिवार से संबन्ध कट नहींं जाता था जब तक कि वह संन्यास धारण नहींं कर ले। केवल विरä तथा संन्यासी होने पर ही उसकी सामाजिक प्रासिथति मेंं परिवर्तन होता था।
इस तथ्य के यूं तो मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम, उज्जैन नरेष श्री भर्तृहरि सहित अनेक पौराणिक व ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं तथापि विषयपूर्ति के लियेे निकटवर्ती इतिहास के चरित्रों मेंं मलिक मुहम्मद जायसी की अनमोल Ñति पùावत के नायक राजा रतनसेन को इस Üांृखला मेंं सर्वप्रथम रखकर आमेर के तत्कालीन महाराजा पृथ्वीराज (1503-1527 र्इ0) के पुत्र रतननाथ तथा जोधपुर के महाराजा मान (1803-1843) को यहां प्रसंग की आवष्यकता पूर्ति के निमित्त उदधृत किया जा सकता है। इस Üांृखला की नवीनतम और उल्लेखनीय कड़ी के रूप मेंं वि. सं. 1951 (सन 1894) की वैषाख पूर्णिमा को मेवाड़ के शासक राणाकुल मेंं जन्में कुंवर नान्हूसिंह का नाम है। जिनके राजतिलक की चर्चा और तैयारियां अपने चरम पर थी किन्तु नियति कहें, प्रारब्ध या भाग्य कि मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम की तरह राजतिलक से ठीक पहले वे गोरक्षनाथ मनिदर, गोरखपुर (वर्तमान उत्तर प्रदेष) पहुंचा दिये गये। जहां उनकी नाथ सम्प्रदाय मेंं दीक्षा हुर्इ और वे महाराजकुंवर नान्हूसिंह से संन्यासी दिगिवजयनाथ बन गये। सन 1935 मेंं गोरक्षनाथ मनिदर के पीठाधीष्वर के पद पर आसीन हो महन्त दिगिवजयनाथ के रूप मेंं 34 वषोर्ं तक नाथ सम्प्रदाय की कीर्ति को अपने नये नाम के अनुरूप दिगिदगंतर मेंं फैलाने के चिर स्मरणीय कार्य किये। इनमेंं स्वतन्त्रता संग्राम मेंं वालनिटयर कोर का गठन, चोरा-चोरी काण्ड मेंं सक्रिय भूमिका के कारण गिरफ्तारी, सन 1961 मेंं अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के अध्यक्ष पद पर रहते हुए 1965 मेंं विष्व हिन्दू धर्म सम्मेलन करवाना और 1967 मेंं लोकसभा सदस्य निर्वाचित होना आदि विषेष उल्लेखनीय हैं। पंडित कुलदीप चतुर्वेदी ‘निर्भय द्वारा रचित ‘आदर्ष योगी नामक पुस्तक मेंं वर्णन अनुसार 28 सितम्बर, 1969 (आषिवन Ñष्णा तृतीया) को षिवलीन हुए।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी अमूल्य Ñति ‘नाथ सम्प्रदाय मेंं लिखा है कि, नाथ सम्प्रदाय के अनुयायियों के घर मेंं किसी एक या दो व्यäयिें द्वारा ही कान छिदवा कर कुण्डल धारण करने की प्रथा है। यहां तक कि न केवल हिन्दू अपितु हिन्दुओं के परम्परागत कथित विरोधी मुसिलम समुदाय के लोगों मेंं भी नाथ सम्प्रदाय के अनुयायियों की एक आकर्षक संख्या रही है। पषिचमी विद्वान जार्ज वेस्टन बि्रग्स द्वारा अपनी मूल्यवान पुस्तक ‘गोरक्षनाथ एण्ड दर्षनी योगीज मेंं अलग-अलग वषोर्ं की दी गयी जनसंख्या इस सम्प्रदाय के सभी धमोर्ं की जातियों मेंं लोकप्रिय होने का प्रमाण है। वर्ष 1891 मेंं सारे भारतवर्ष मेंं नाथयोगियों की संख्या 2,14,546 थी वह वर्ष 1921 मेंं 8,02,268 हो गयी जिनमेंं 6,28,978 योगी हिन्दू थे, शेष 31,158 योगी मुसलमान व 1,41,132 योगी फकीर थे।
यधपि इस सम्प्रदाय मेंं दीक्षित लोगों का जातिक्रम मेंं व्यवहार करना 20वीं षताबिद मेंं प्रारम्भ हुआ जान पड़ता है किन्तु आत्यनितक रूप से नाथयोगी जाति की संज्ञा स्वतन्त्रता से कुछ ही वर्ष पूर्व अंगीकार हुर्इ है। क्याेंकि वर्ष 1921 की जनगणना मेंं मात्र दर्षनी योगियों की संख्या 8,02,268 थी। तब तक केवल दर्षनी योगियों को ही नाथ समझा जाता था। कारण स्पष्ट है कि, नाथयोगी के नाम पर केवल तपस्वी वेषधारी की ही कल्पना की जाती थी और नाथ अथवा योगी पद किसी जाति का परिचायक न होकर किसी व्यä किी सिथति का धोतक हुआ करता था। जबकि औगड़, अवधूत, दषनामी, गिरि, पुरी, स्वामी, गोस्वामी, सिद्ध तथा अन्य पदनाम वाले योगियों को इसमेंं षामिल नहींं किया गया है। इसके मूल मेंं कारण यह रहा कि सभी वर्ण और जातियों के लोग यधपि नाथपंथ के अनुयायी थे किन्तु, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि, उनका अपने मूल परिवार से संबन्ध कट नहींं जाता था, उनका खान-पान एवं विवाह संबन्ध अपने ही वर्ण और जाति मेंं किया जाता रहा था। बाद मेंं ये परिवार अपनी मूल जातियों से कटते चले गये और मुसिलम शासक औरंगजेब ने जब तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाना प्रारम्भ किया तो अनेक हिन्दुओं द्वारा मुसिलम धर्म अपना लिया गया केवल नाथ सम्प्रदाय के अनुयायियों द्वारा औरंगजेब को करारी षिकस्त दी गयी जिसे एक चमत्कार का दर्जा औरंगजेब द्वारा दिया गया और परिणामस्वरूप सिन्ध प्रदेष के भैरागढ़ नामक स्थान पर पहले से स्थापित काफी बड़े नाथ मठ को औरंगजेब द्वारा मान्यता और जागीर प्रदान की गयी।
इतिहास के इस संक्राति काल के पष्चात एक समय ऐसा आया कि इन नाथयोगियों ने अपनी मूल जाति के लोगों को प्रदूषित मानकर खान-पान और विवाह व्यवहार अपने समान नाथपंथ का अनुगमन करने वाले परिवारों मेंं करना प्रारम्भ कर दिया। यहां से गृहस्थ नाथयोगियों की जाति का विकास क्रम प्रारम्भ हुआ और कालान्तर मेंं जब समान विचारधारा, जीवन यापन, रोजगार, जीवन स्तर तथा अन्य समानताओं के आधार पर वैवाहिक संबन्ध होने प्रारम्भ हुए तो इस सम्प्रदाय मेंं दीक्षित लोगों की भी एक जाति बन गयी किन्तु इसके विकासक्रम की गति वैदिक काल की वर्ण व्यवस्था से जाति व्यवस्था के विकास क्रम की गति से बहुत कम रही। इसकी तीव्रता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि, वर्ष 1970-75 तक विभिन्न वर्ण और जातियों से नाथ सम्प्रदाय मेंं दीक्षित लोग केवल अपनी मूल जाति के परिवारों से विवाह संबन्ध तथा खान-पान का व्यवहार करते रहे। अलमोडा के सतनाथी व धर्मनाथी, पंजाब व गुजरात के रावल योगी, अम्बाला के संयोगी, गढवाल के भैरव, अलर्इपुरा व रंगपुर के जुलाहे, बंगाल के जुगी, मुम्बर्इ के मराठे, कोंकण के गोसवी, उत्तर प्रदेष के ब्राह्राण, पषिचमी उत्तर प्रदेष के उपाध्याय, पूर्वी उत्तर प्रदेष के गोस्वामी, पटवा व स्वामी, हरियाणा व पंजाब के शर्मा, राजस्थान के राजपूत और दक्षिण भारत के कर्णाटकी, उड़ीसा के ओडि़या, बंगाल मेंं दक्षिणी विक्रमपुर के त्रिपुरा और नोयाखाली व उत्तरी विक्रमपुर व ढाका के एकादषी संज्ञा वाले नाथयोगी इस तथ्य का उदाहरण है। नाथयोगियों के इन अनुयायियों को गृहस्थ नाथ अथवा गृहस्थ योगी कहा जाने लगा है।
विचारणीय प्रष्न यह भी है कि, योगी पद का उच्चारण कब और किन परिसिथतियाें मेंं जोगी हो गया।
भाषा के ही सन्दर्भ मेंं देखा जावे तो देवनागरी मेंं लिखा जाने वाला ‘योग पद युरोप से श्रवह बन कर लौटता है। यूरोप के अधिकांष भू-भागों मेंं अंग्रेजी के श्र अक्षर का उच्चारण ‘य किया जाता है, जबकि भारत सहित पूर्ववर्ती भू-भागों मेंं इसे ‘ज ही बोला जाता है। इस प्रकार ‘श्रवह पद का यूरोप मेंं जो उच्चारण ‘योग किया जाता है उसे हम अंग्रेजी मेंं जोग उच्चरित करते हैंंं। इसके लिये भाषा के संबंध में किये गये शोध को उदधृत करने की न तो आवष्यकता है न हमारी मंषा हैं, किन्तु साधारण व्यकित के लिये भी यह विषय ग्राहय हो, इस हेतु यह उल्लेख करना प्रासंगिक है कि, एक ही प्रदेष में 15 से 20 कि.मी. की दूरी पर भौगोलिक, सांस्कृतिक, परम्परा, खान-पान आदि के साथ भाषा में भी परिवर्तन हो जाता है। एक-एक वर्ण की मीमांसा के लिये तो एक पृथक पुस्तक लिखने की आवष्यकता होगी। विषय की मांग के लिये ‘ह व ‘स वर्ण को लें तो हम पाते हैं कि, राजस्थान के मारवाड़ व मेवाड़ क्षेत्र में इन दोनों वणोर्ं का उच्चारण राजस्थान के अन्य स्थानों की अपेक्षा अलग है। जोधपूर-उदयपुर में ‘साबुन को ‘हाबुन और ‘सिद्ध को ‘हिद्ध उच्चारित किया जाता है। हिन्दी साहित्य की ब्रजभाषा, अवधी व भोजपुरी में ‘य के स्थान पर ‘ज लिखा व बोला जाता है, जैसे यमुना को जमुना, यशोदा को जशोदा, युग को जुग, यज्ञ को जज्ञ, यदुवंंशी को जदुवंशी, संयोग को संजोग, योग को जोग आदि। इसी भारत भूमि के पंजाब भाग में षिष्य को सिक्ख बोला जाता है जो नाथयोगियों की तर्ज पर पंजाब मूल के गुरूओं द्वारा स्थापित षिष्य परंपरा का स्थानीय उच्चारण के कारण ‘सिक्ख परंपरा के रूप में विकसित हुर्इ है। महायोगी गोरक्षनाथ की कृतियों और नाथयोगियों द्वारा गूढ शब्दावलियों की वाणियों का अध्ययन करें तो बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि उनकी लिपि में ‘ष वर्ण नहीं है और ‘ष का उच्चारण ‘ख (”आओ सिद्धों षोज (खोज) बताऊं) है। इस विषय पर अधिक प्रकाष तो भाषा विज्ञानी कर सकते हैं। गुरू गोविन्दसिंहजी द्वारा अमृत चखा कर दीक्षित होने वाले पंज प्यारों के सन्दर्भ से हम केवल इतना तर्क दे सकते हैं कि पंजाब में रहने वाला हर व्यकित सिक्ख नहीं है वरन केवल जिसने षिष्य परंपरा से दीक्षित होकर इस मत को अपना लिया वह सिक्ख (षिष्य) की संज्ञा से जाना जाता है।
इन्हीं दो वणोर्ं के संबंध में ऐतिहासिक घटनाओं पर दृषिटपात करें तो भारत से सुदूर पषिचमी क्षेत्र र्इरान-र्इराक के समरकन्द, बुखारा और दजला फरात की खाड़ी के आक्रान्ताओं का ‘सिन्ध व ‘सिन्धु को ‘हिन्द व ‘हिन्दू उच्चारित किया जाना एक ऐसा घटनाक्रम है जिसके अन्तर्गत भारत में उस काल के सभी वर्ण, वर्ग, व जातियों को एक सम्प्रदाय ‘हिन्दू में समाहित कर दिया। जबकि हिन्दू शास्त्रों में किसी भी स्थान पर ‘हिन्दू पदवाची कोर्इ व्यä अिथवा धार्मिक संस्था नहींं है।
स्पष्ट है कि, नाथयोगी पूर्व मेंं एक सम्पूर्ण जाति होते हुए भी जाति संज्ञा से युä नहींं थी। यधपि यह सामाजिक व्यवस्था का एक अनुपम आदर्ष थी और जिसमेंं सभी वर्ण और जातियों के लोगों को समान सामाजिक स्तर प्राप्त था। कर्णच्छेद संस्कार पष्चात षिव वेषधारी ‘योगी जाति और वर्ण व्यवस्था से भी ऊपर उठकर समाज मेंं सभी के लियेे पूज्य हो जाता था। किसी व्यकित के नाम के साथ नाथ अथवा योगी पद लगने के बाद सम्पूर्ण विष्व उसका परिवार और स्वयं का मोक्ष व जगत का कल्याण ही उसका उíेष्य रह जाता है।
पंथ जनित मतभेद तथा प्रत्येक परिवार की मूल जाति और पारिवारिक पृष्ठभूमि अलग-अलग होने के कारण यह समाज आज बहुत सीमित और बिखरा हुआ है। वर्ष 1973 मेंं पहली बार इस सम्प्रदाय के गृहस्थ नाथयोगियों को संगठित करने के प्रयास नेपाल के योगी प्रवर नरहरिनाथजी शास्त्री की प्रेरणा से भूतपूर्व राष्ट्र अध्यक्ष श्री वी.वी गिरि की संरक्षकता मेंं प्रारम्भ हुए और अखिल भारतवर्ष नाथ समाज नाम से इस संगठन का पंजीयन हुआ। जिसके प्रथम अध्यक्ष डा0 लक्ष्मीचन्द्र शास्त्रीजी निर्वाचित हुए और जिसकी राजस्थान शाखा के प्रथम अध्यक्ष जयपुर निवासी योगी मानसिंह तंवर (नाथजी बापू) तथा महामंत्री योगी कन्हैयानाथ मिश्रा रहे। प्रान्तीय स्तर पर भी राजस्थान नाथ समाज एवं राजस्थान नाथयोगी समाज और इसी प्रकार जिला स्तर पर भी संगठन चल रहे हैं।
स्वतन्त्रता आन्दोलन से लेकर वर्तमान तक के राष्ट्रीय विकास मेंं इस समाज का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस समाज के लोग उच्च षिक्षा प्राप्त चिकित्सक, इन्जीनियर, वकील, पुलिस आफिसर, अघ्यापक, पत्रकार, होने के अलावा साहित्य, कला और विज्ञान के क्षेत्र मेंं भी अपनी सेवाएं राष्ट्र को अर्पित कर रहे हैं। (यधपि इनकी संख्या बहुत कम है किन्तु इनकी कुल जनसंख्या के आनुपातिक प्रतिषत को दृषिटगत रखा जावे तो यह योगदान उल्लेखनीय हो जाता है)। कुरीतियों के नाम पर मात्र भर्तृहरि बैराग पंथ के नाथयोगियों मेंं भिक्षावृति अवष्य है, जो कि वास्तव में अहंकार के निवारणार्थ और सामाजिक एकता के लियेे गुरु गोरक्षनाथजी द्वारा बताया गया उपाय है। तदनुसार जाति, वर्ण और कुल के आधार पर भेद किये बिना याचना करने पर मात्र तीन घरों से जो कुछ भी, जैसा भी और जितना भी मिल जाये उससे निर्वाह करने की आज्ञा हैं, किन्तु इस आज्ञा का अतिक्रमण करके लोगों ने इसे व्यवसाय ही बना लिया। बहरहाल यह कुरीति केवल ग्रामीण क्षेत्रों मेंं है, जो बदलते परिवेष मेंं अपनी अनितम सांसें ले रही है।
इस प्रसंग को मात्र यह लिखकर समाप्त करना चाहूंगा कि नाथ सम्प्रदाय के आदि प्रवर्तक गुरु गोरक्षनाथजी का ही इतिहास मेंं कोर्इ उल्लेख नहींं है। जिनके बिना कम से कम भारतवर्ष के दर्षन, संस्Ñति, साहित्य और इतिहास की कल्पना तक नहींं की जा सकती। योग और योग के सिद्धान्तों की चर्चा करने वाले सर्वप्रथम जिनके आषीर्वाद और Ñपा की कामना करते हों, किसी भी क्षेत्र मेंं जागृति और चेतना लाने के लियेे पर्याय के रूप मेंं उनके महावाक्य ‘अलख जगाने षब्द को अधिक प्रभावकारी और षुभ मानते हों, ”घट-घट वासी गोरक्ष अविनाषी, टले काल मिटे चौरासी जैसी पंäयिं बोलकर उन्हें परमात्मा का दर्जा देते हों, ऐसे महान व्यकितत्व के जन्म स्थान, जन्म काल तथा समाधिस्थ होने के संबन्ध मेंं इतिहास मौन हो, यहां तक कि षिक्षा के किसी भी स्तर की पाठय पुस्तकों मेंं उनका और उनके दर्षन का संक्षिप्त सा परिचय भी नहींं दिया गया हो तो फिर छोटी-छोटी सिद्धियों से युä इन नाथयोगियों की इतिहास मेंं चर्चा नहींं होना कोर्इ आष्चर्य की बात नहींं है। इसके मूल मेंं केवल दो ही कारण हैं।
प्रथमत: नाथयोगियों ने अपनी योग विधा को आजीविका का साधन नहींं बना कर वर्गजनित पक्षपात और वर्णजनित भेदभाव के बिना, सभी दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों से दूर रहकर प्रत्येक जिज्ञासु को उदारतापूर्वक अपना समस्त ज्ञान धन दे दिया। Ñतज्ञ लोगों ने इसे मात्र आत्मोद्धार के लियेे अपनाया और इस ज्ञान केा केवल दान स्वरूप देने की परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं। किन्तु जो स्वार्थी तत्त्व रहे उन्होंने इस विधा को व्यवसाय बना लिया। सिद्धयोग के दो सोपानों में से कुछ के द्वारा हठयोग के आरमिभक आसनों और राजयोग की कि्रयाओं के अल्पज्ञान के साथ विष्व स्तर पर कुकुरमुत्तों की तरह गली-गली मेंं खोले गये योग साधना केन्द्र और संस्थाएं ऐसे स्वार्थियों की Ñतघ्नता का जीवन्त प्रमाण है।
द्वितीयत: कोर्इ भी सिद्ध पुरुष इतिहास का हिस्सा बनने की नीयत से न तो साधना करता है और ना साधना के मार्ग मेंं स्वत: प्राप्त होने वाली सिद्धियों के चमत्कार का प्रदर्षन करता है। जो जीवन काल मेंं ही जीवन मुä हो जाने की कामना मात्र से विरä और संन्यासी होकर गुमनाम स्थानों पर साधना करते हैंंं, वे इतिहास मेंं मृत षब्द की भांति अमर होना अपने उíेष्य से भटक जाना मानते हैं। सत्य तो यह है कि, एक बार योग मार्ग मेंं प्रवृत्त हो जाने वाला व्यä अिैर किसी मार्ग पर जा ही नहींं सकता। क्योंकि उपासना के सभी मार्ग अन्ततोगत्वा ‘योग मेंं ही समाप्त होते है और इसका कोर्इ विकल्प भी नहींं है। साधक चाहै कि,सी भी साधन से अपने साध्य की साधना करे उसका अनितम उíेष्य अपने साध्य से योग स्थापित करना ही होता है। फिर साध्य चाहे महादेव जैसा महायोगी हो या Ñष्ण जैसा कर्मयोगी। इस तथ्य से कौन इन्कार कर सकता है कि, श्रीÑष्ण योग मार्ग मेंं षिव के एक प्रतिनिधि मात्र हैं और श्रीÑष्ण का एक विग्रह श्रीनाथजी के नाम से प्रख्यात है। महादेव षिव की विष्व मेंं सब जगहों पर ‘नाथ के नाम से पूजा नहींं होती तो भी वह रहते ‘विष्वनाथ ही हैं। इसी प्रकार ‘श्रीनाथजी मुरलीमनोहर, रासबिहारी, बृजबिहारी, गोविन्ददेव या किसी भी उपमा से पूजित क्यों ना हों, वह रहते द्वारिकानाथ और ‘श्रीनाथजी ही हैं। इसी प्रकार श्रीराम की भी सभी संज्ञाएं अन्ततोगत्वा श्रीराम रघुनाथ समाहित होकर समाप्त हो जाती है। यह आवष्यक नहींं कि प्रत्येक योगी के नाम के साथ ‘नाथ उपमा लगी हो जैसे- संत ज्ञानेष्वर, नामदेव, गोपीचन्द, भर्तृहरि आदि। अर्थ की दृषिट से ‘देव और ‘नाथ का मतलब स्वामी होता है अत: गोविन्दनाथजी के मनिदर को गोविन्ददेवजी का मनिदर कहने से भी महाराजा जयसिंह या पष्चातवर्ती नरेष नाथ मत से परामुख नहींं हो जाते।
वस्तुत: इस सम्बन्ध मेंं नाथ सम्प्रदाय, उसकी परम्पराओं एवं विभिन्न 12 पंथों की जानकारी के अभाव मेंं कोर्इ भी व्यä टिप्पणी करने मेंं सक्षम नहींं हो सकता। इस सम्प्रदाय पर टिप्पणी करने से पूर्व टीकाकार को यह जान लेना चाहिये कि यह सम्प्रदाय न केवल आदि सम्प्रदाय होकर पष्चातवर्ती समस्त सम्प्रदायों का जनक है वरन यह भी कि प्रचलित सम्प्रदायों मेंं मात्र यही सम्प्रदाय ऐसा है, जो उपासना की सगुण और निगर्ुण दोनों पद्धतियों को समान रूप से अपनाता है। अर्थात सगुण रूप से षिव को स्वरूप से और निगर्ुण रूप से षिव को तत्त्व रूप से आराधना करना इस सम्प्रदाय की विषेषता है।
उä सभी 12 पंथों व उनकी परम्पराओं का संक्षिप्त वर्णन करने के लियेे भी एक पृथक ग्रन्थ की रचना करनी पड़ेगी जो यहां अभीष्ट नहींं है और जोधपुर नरेष मानसिंह ने इस विषय पर कहने लिखने के लियेे अधिक कुछ नहींं छोड़़ा।
पंडित दया नंद शास्त्री

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