चित्र लगाने भर से नहीं बढ़ता क्रांतिकारियों का मान

चित्र लगाने भर से नहीं बढ़ता क्रांतिकारियों का मान

सियाराम पांडेय ‘शांत’

देश सभी का है लेकिन सबसे पहले उसका है जिसने देश को देश समझा। देश के हितों से न खुद समझौता किया और न ही किसी को करने दिया। जिनके लिए देश हमेशा सर्वोपरि रहा। जिन्होंने देश के लिए अपनी कुर्बानी दी। अपने परिजनों की कुर्बानी दी। ऐसे धरती के वीर सपूतों का पुण्य स्मरण भला कौन नहीं करना चाहेगा? अच्छाई जिस किसी भी रूप में हो, स्वागतव्य है। वरण योग्य है लेकिन साथ ही इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि केवल चित्र लगाने से महापुरुषों का मान नहीं बढ़ता, उनकी आत्मा तो तब तृप्त होती है जब उनके नक्शेकदम पर चला भी जाए।
विचारों का प्रवाह अनवरत होता रहता है। मानव मस्तिष्क में हर क्षण कोई न कोई विचार कौंधता जरूर है। उनमें बहुतेरे असंगत और अनुपयुक्त होते हैं लेकिन उनमें से कुछ काम के भी होते हैं। अगर उन काम के विचारों पर अमल कर लिया जाए तो देश और समाज के लिए बहुत कुछ उल्लेखनीय हो सकता है। दिल्ली विधानसभा में इन कुछ ऐसा ही अच्छा प्रयोग हो रहा है। यूं तो दिल्ली मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपराज्यपाल अनिल बैजल की जंग को लेकर ही चर्चा के केंद्र में रही है। यहां विकास के ज्यादा विवाद के हालात बने रहे हैं लेकिन हाल ही में दिल्ली ने जिस तरह का प्रयोग करने का मन बनाया है, उसकी सराहना ही नहीं की जानी चाहिए बल्कि इस बात के भी प्रयास होने चाहिए कि इस तरह का प्रयोग देश के सभी राज्यों की विधानसभाओं में किए जाएं।
दिल्ली विधानसभा ने देश के ऐसे महान लोगों के चित्र बनवाए हैं जो महान क्रांतिकारी और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हैं। देश के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। ऐसी महान आत्माओं के चित्र दिल्ली विधानसभा की गैलरी में लगाए जाने हैं। जिन महान विभूतियों के चित्र लगने हैं, उनमें टीपू सुल्तान, अशफाकउल्ला खान, भगत सिंह, बिरसा मुंडा और सुभाष चंद्र बोस, उधम सिंह, तिलका मांझी, मदन लाल ढिंगरा, राव तुला राम आदि के नाम प्रमुख हैं। सरकार का मानना है कि ये चित्र विधानसभा की गैलरी की दीवारों की शोभा तो बढ़ाएंगे ही, विधायकों व विधानसभा आने वालों को कुछ अच्छा करने की प्रेरणा भी देंगे। सरकारी सूत्रों की मानें तो इस तरह के 70 चित्र बनकर तैयार हो गए हैं। 6 माह पूर्व इन्हें बनाने का काम शुरू हुआ था। जब देश गणतंत्र दिवस समारोह मना रहा होगा तब दिल्ली सरकार इन क्रांतिकारी महा विभूतियों के चित्र विधानसभा की गैलरी में लगवा रही होगी, इससे बड़ी श्रद्धांजलि शहीदों को सरकार की ओर से भला और क्या हो सकती है?
दिल्ली विधानसभा के अध्यक्ष रामनिवास गोयल की मानें तो इनमें से अधिकांश गुमनाम नायक हैं। वे सभी महान स्वतंत्रता सेनानी और राष्ट्रभक्त थे। इस ऐतिहासिक विधानसभा में एक जगह होनी चाहिए जहां बहादुर स्वतंत्रता सेनानियों को याद किया जा सके और आने वाले आगंतुक उनसे प्रेरणा ले सकंे। प्रथम प्रयास में जितना भी संभव हो, वह प्रशंसनीय होता है। महापुरुषों के चित्रों को लेकर दिल्ली विधानसभा ने जो कुछ भी करना था, वह कर लिया। संभव है, आगे भी कुछ करने की उसकी योजना हो लेकिन अन्य राज्यों में जहां पहले से ही विधानसभाओं की दीवारों पर गैलरी में महापुरुषों के चित्र लगे हैं, वहां भी इस बात की कोशिश जरूर होनी चाहिए कि वे महापुरुष जो संबंधित राज्य के हों और उन्हें किन्हीं कारणों से महत्व नहीं मिल पाया हो, ऐसी गुमनाम हस्तियों के चित्रों को विधानसभा की गैलरी पर स्थान जरूर मिले। उनके चित्रों के नीचे उनका परिचय और उनकी उल्लेखनीय सेवाओं का जिक्र हो तो सोने पर सुहागा।
आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व गंवाने वाले, अंग्रेजों की जेल यातना सहने वाले या फिर देश पर कुर्बान हो जाने वालें असल क्रांतिकारियों का इतिहास खंगाला जाना चाहिए। इसमें कुछ ऐसे क्रातिकारी भी हो सकते हैं जिन्होंने क्रातिकारियों की मदद की हो, उनकी योजनाओं को एक जगह से दूसर जगह सुरक्षित पहुंचाने का काम किया हो लेकिन उन्हें कभी जेल न हुई हो, ऐसे लोगों का आचरण भी अनुकरणीय है। हर राज्य अगर अपने ही राज्य के क्रातिकारियों को तरजीह दें तो स्थानीयता को महत्व मिलेगा। वैसे भी उन क्रांतिकारियों का क्या अपराध कि वे पकड़े नहीं गए। जितने स्वतंत्रता संग्रामी हैं, उनमें सभी देश के लिए जेल जाने वाले नहीं हंै। उनमें बहुतेरे ऐसे भी हैं जो जेल दूसरे कारणों से गए थे लेकिन आजाद भारत ने उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का तमगा दे दिया।
सच तो यह है कि अनेक क्रान्तिकारी गुमनाम हैं, इसीलिए उनके मौन बलिदान को किताबों में दर्ज किया जाना बहुत जरूरी है ? हम जानते हैं भारत के ऐसे सपूतों की संख्या ज्ञात क्रांतिकारियों की तुलना में कई गुना है। 1757 से अंग्रेजी राज द्वारा जारी लूट तथा भारतीय किसानों, मजदूरों, कारीगरों की बर्बादी, धार्मिक, सामाजिक भेदभाव ने जिस गति से जोर पकड़ा उसी गति से देश के विभिन्न हिस्सों में विद्रोह की चिंगारियां भी फूटीं ं, जो 1857 में जंग-ए-आजादी के महासंग्राम के रूप में तब्दील हो गई। 1757 के बाद शुरू हुआ संन्यासी विद्रोह (1763-1800), मिदनापुर विद्रोह (1766-1767), रगंपुर व जोरहट विद्रोह (1769-1799), चिटगांव का चकमा आदिवासी विद्रोह (1776-1789), पहाड़िया सिरदार विद्रोह (1778), रंगपुर किसान विद्रोह (1783), रेशम कारिगर विद्रोह (1770-1800), वीरभूमि विद्रोह (1788-1789), मिदनापुर आदिवासी विद्रोह (1799), विजयानगरम विद्रोह (1794), केरल में कोट्टायम विद्रोह (1787-1800), त्रावणकोर का बेलूथम्बी विद्रोह (1808-1809), वैल्लोर सिपाही विद्रोह (1806), कारीगरों का विद्रोह (1795-1805), सिलहट विद्रोह (1787-1799), खासी विद्रोह (1788), भिवानी विद्रोह (1789), पलामू विद्रोह (1800-02), बुंदेलखण्ड में मुखियाओं का विद्रोह (1808-12), कटक पुरी विद्रोह (1817-18), खानदेश, धार व मालवा भील विद्रोह (1817-31,1846 व 1852), छोटा नागपुर, पलामू चाईबासा कोल विद्रोह (1820-37), बंगाल आर्मी बैरकपुर में प्लाटून विद्रोह (1824), गूजर विद्रोह (1824), भिवानी हिसार व रोहतक विद्रोह (1824-26), काल्पी विद्रोह (1824), वहाबी आंदोलन (1830-61), 24 परगंना में तीतू मीर आंदोलन (1831), मैसूर में किसान विद्रोह (1830-31), विशाखापट्टनम का किसान विद्रोह (1830-33), मुंडा विद्रोह (1834), कोल विद्रोह (1831-32) संबलपुर का गौंड विद्रोह (1833), सूरत का नमक आंदोलन (1844), नागपुर विद्रोह (1848), नगा आंदोलन (1849-78), हजारा में सय्यद का विद्रोह (1853), गुजरात का भील विद्रोह (1809-28), संथाल विद्रोह (1855-56) तक सिलसिला जारी रहा। इन विद्रोहों में कितने लोगों की जानें गई, इस देश के 95 प्रतिशत लोग नहीं जानते। रानी ल्क्ष्मी बाई, उदा देवी, दुर्गा भाभी के नाम तो सबको याद है लेकिन हाबड़ा की ननी बाला देवी, उनकी जेल में सहेली बनी टुकड़ी बाला देवी के नाम किसे याद हैं। राम प्रसाद बिस्मिल तो सबको याद हैं लेकिन राम प्रसाद की भेली बहन शास्त्री देवी जो अपने लहंगे में छिपाकर अस्त्र-शस्त्र क्रांतिकारियों तक पहुंचाया करती है, वह किसे याद है। क्रांतिकारियों के रूप में उसका तो जिक्र ही नहीं होता। आजाद भारत में उसकी क्या स्थिति है, यह जानने-समझने की भला किसे जरूरत है? 1919 के असहयोग आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाने वाले मौलाना हसरत मोहानी की तमाम उम्र अंग्रेजों की जेल में ही बीती, उनके बच्चे और परिवार किस हाल में हैं, इस पर कौन विचार करेगा?
देश हर साल गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस समारोह मनाता है। हर साल स्वतंत्रता संग्राम में आत्माहुति देने वाले वीर सपूतों को याद किया जाता है लेकिन उनके वंशज किस हाल में हैं, उन पर विचार नहीं होता। विधानसभाओं में चित्र टांग देने या सड़क पर लगी प्रतिमाओं पर एक दिन माला पहना देने भर से शहीदों का सम्मान नहीं हो जाता। इस देश के गुमनामों शहीदों की खोज होनी चाहिए। उनके वंशज आज किस हाल में रह रहे हैं, इसका पता लगाया जाना चाहिए और उन्हें सरकार और समाज के स्तर पर अपेक्षित मदद देनी चाहिए,यही देश के अमर शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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