देश की चिंता करने वालों को भाजपा और आरएसएस का एजेंट करार दे दिया जाता है

देश की चिंता करने वालों को भाजपा और आरएसएस का एजेंट करार दे दिया जाता है

सेना प्रमुख बिपिन रावत ने असम में बढ़ रही बंगलादेशी घुसपैठ को लेकर वहां के राजनीतिक दल ऑल इंडिया युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट को लेकर जो ब्यान दिया है उस पर सियासी चिल्लपों की नहीं बल्कि उसे सही संदर्भ में समझते हुए गहन चिंतन और कार्रवाई करने की आवश्यकता है। जनरल ने देश के सीमावर्ती राज्य असम में बदल रही जनसांख्यिकी, बढ़ रहे आतंकवाद, कानून-व्यवस्था को लेकर पैदा हो रही चुनौती के मद्देनजर अपनी चिंता जताने का प्रयास किया है। इसको राजनीतिक चश्मे से देखना उतना ही अनैतिक व खतरनाक है जितना कि देश के पूर्वोत्तर में बंगलादेशी घुसपैठियों की अनदेखी करना।

मौलाना बदरुद्दीन अजमल ने 2005 में ऑल इंडिया युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट की नींव डाली। इसी दल को लेकर सेना प्रमुख ने 21 फरवरी को बयान दिया कि असम में एआईयूडीएफ नाम की एक पार्टी है। अगर आप देखेंगे तो वह बीजेपी के मुकाबले बेहद तेजी से बढ़ी है। यह पार्टी 'मुस्लिमों के हित' में काम करने का दावा करती है। अजमल की पार्टी असम के 5 राजनैतिक दलों में सबसे युवा है। गठन के सिर्फ 6 महीने बाद, 2006 में पार्टी ने 10 सीटों जीतीं। 2011 में विधानसभा में पार्टी के 18 सदस्य हो गए, इसी चुनाव में बीजेपी को सिर्फ 5 सीट हासिल हुई थीं। 2016 के असम विधानसभा चुनाव में ने 126 सीटों में से 13 सीटों पर जीत दर्ज की। इस चुनाव में उसने 13 प्रतिशत मत प्राप्त किए। वर्तमान में पार्टी के लोकसभा में तीन सदस्य हैं। इसके नेता बदरुद्दीन अजमल असम की धुबरी सीट से लोकसभा सांसद हैं। अजमल असम राज्य जामिया-उलेमा-ए-हिन्द के प्रमुख व दारूल उलूम देवबंद के सदस्य भी हैं। 2016 में चुनावी शपथपत्र में अजमल ने 54 करोड़ रुपये की संपत्ति घोषित की थी। लाइव मिंट की रिपोर्ट के अनुसार, इसमें परिवार की संपत्ति जोडऩे पर यह आंकड़ा 200 करोड़ को पार कर जाता है। 2016-17 में भाजपा को कुल 290.22 करोड़ रुपये का कॉर्पोरेट चंदा प्राप्त हुआ। अजमल का परिवार एशिया का सबसे अमीर गैर-सरकारी संगठन मरकज-उल मारिस चलाता है। इसके अलावा परिवार के पास एशिया का सबसे बड़ा चैरिटेबल अस्पताल- 500 बिस्तर का हाजी अब्दुल माजिद स्मृति अस्पताल एवं अनुसंधान केंद्र भी है।

मौलाना अजमल की इन उपलब्धियों से किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, परंतु उन पर सबसे गंभीर आरोप यह लगते हैं कि वे बंगलादेशी घुसपैठियों को शरण देते हैं। उन्हें भारतीय नागरिकता दिलवाने के लिए अपने प्रभाव का प्रयोग कर उनका आधार कार्ड, राशन कार्ड और वोटर कार्ड जैसे सरकारी दस्तावेज उपलब्ध करवाने में सहायता करते हैं। इन्हीं दस्तावेजों के आधार पर घुसपैठिए भारतीय नागरिक होने का दावा पेश करते हैं। चाहे मौलाना इन आरोपों को नकारते रहे हैं परंतु धरातल की सच्चाई चिंता पैदा करती है। इन घुसपैठियों के कारण केवल असम ही नहीं बल्कि पूरे पूर्वोत्तर भारत की जनसांख्यिकी में परिवर्तन हुआ है। भारत सरकार के सीमा प्रबंधन कार्यदल की वर्ष 2000 की रिपोर्ट के अनुसार 1.5 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठ कर चुके हैं और लगभग तीन लाख प्रतिवर्ष घुसपैठ कर रहे हैं। असम में जिन तीन जिलों में जातीय संघर्ष चल रहा है, सबसे पहले कोकराझार जिले पर नजर डाले। 2001-2011 में यहां जनसंख्या में वृद्धि दर 5.19 प्रतिशत रही और 2001 के जनगणना के अनुसार इस जिले में मुस्लिमों की संख्या बढ़कर लगभग 20 प्रतिशत हो गई है। अगर हम असम मुस्लिम जनंसख्या में वृद्धि दर को देखे तो बंगलादेश से सटे जिलो में यह सबसे अधिक है जिसके पीछे बंगलादेशी घुसपैठ मुख्य कारण है। धुबड़ी जिला भी बंगलादेश के सीमा से सटा हुआ है। 1971 में यहां मुस्लिम जनसंख्या 64.46 प्रतिशत थी जो 1991 में बढ़कर 70.45 और 2001 में 75 प्रतिशत हो गई। कमोबेश यही हाल 2004 में बने चिरांग जिले का भी है। जनसंख्या की बढ़ोतरी का अनुपात देखकर यह साफ प्रतीत होता है कि यह जनसंख्या में सहज हुई वृद्धि नहीं है अपितु यह बंग्लादेशी घुसपैठ का नतीजा है। इतने सारे विदेशी लोग किसी राजनीतिक संरक्षण के घुसपैठ नहीं कर सकते और न ही यहां अपना अड्डा बना सकते। स्वभाविक है कि यह एक खतरनाक राजनीतिक सौदा है इसके लिए देश चाहे जाए भाड़ में, केवल वोट दो और भारत की नागरिकता ले लो। इसके लिए केवल मौलाना की पार्टी को ही जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता बल्कि सेक्युलरिज्म की राजनीति करने वाले वामपंथी, कांग्रेस, समाजवादी दलों के वह नेता भी बराबर के कसूरवार हैं जो आज जनरल रावत के ब्यान को केवल भाजपा व गैर-भाजपा या हिंदू-मुसलमान की तुला में तोलने कोशिश कर रहे हैं। अंतर केवल इतना मौलाना की एआयूडीएफ घुसपैठियों को शरण देने व दिलवाने में बाकी दलों से आगे हो सकती है। बंगलादेशी घुसपैठियों और मौलाना की पार्टी साथ-साथ हो रही बढौत्री को लेकर जनरल रावत ने इस पार्टी का उल्लेख किया है न कि किसी और कारण से। रावत का उद्देश्य इलाके में बंगलादेशियों की घुसपैठ की समस्या को उजागर करना है कि कि किसी दल विशेष के साथ पक्षपात करना। आश्चर्य है कि सेक्युलरवादी यह शिकायत करते रहते हैं कि सरकार का विरोध करने वालों को देशद्रोही ठहरा दिया जाता है जबकि वास्तविकता यह है कि देश की चिंता करने वालों को भाजपा और आरएसएस का एजेंट करार दे दिया जाता है। आज जनरल रावत को भी इसी आधार पर संघ और भाजपा का एजेंट बताया जाने लगा है।

वैसे जनरल रावत पहले सैनिक अधिकारी नहीं है जिन्होंने असम में बंगलादेशी घुसपैठियों पर चिंता जताई हो। 8 नवंबर, 1998 में राज्यपाल लेफ्टीनेंट जनरल एस.के. सिन्हा ने देश के राष्ट्रपति को भेजी अपनी रिपोर्ट में भी इसकी चेतावनी दी गई है। जनरल सिन्हा अपनी रिपोर्ट के पृष्ठ क्रमांक 1 से 18 तक में बताते हैं कि किस प्रकार असम के सीमांत जिलों का जानसांख्यिक परिवर्तन हो रहा है, बंगलादेशी घुसपैठिए किस प्रकार अवैध गतिविधियों में लिप्त हो कानून-व्यवस्था, देश की एकता-अखण्डता के लिए चुनौती बनते जा रहे हैं। जनरल रावत ने गुप्तचर एजेंसियों के हवाले से देश को चेताया है न कि किसी दल विशेष पर अंगुली उठाई या किसी को प्रोत्साहन दिया। भारतीय सेना राजनीति से सदैव अलिप्त रही है और यही कारण है कि जनरल रावत ने बेबाकी से अपनी बात कही है न कि राजनीतिक नफा नुक्सान देख कर। यूं तो असम में स्थानीय निवासियों की पहचान का काम बड़ी तेजी से चल रहा है परंतु जनरल की चिंता बताती है कि इसमें तेजी लाने की आवश्यकता है। पूरे मुद्दे पर राजनीतिक दलों से आग्रह ही किया जा सकता है कि वह सेना को राजनीति में न घसीटें और राष्ट्रीय हितों पर तो कम से कम हमारा एकमत होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि जनरल बिपिन रावत के एआईयूडीएफ बनाम भाजपा संबंधी ब्यान पर चिल्लपों मचाने की बजाय चिंतन किया जाए।

- राकेश सैन

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