इच्छा मृत्यु जिम्मेदारी से भागने का इंतजाम

इच्छा मृत्यु जिम्मेदारी से भागने का इंतजाम
सियाराम पांडेय ‘शांत’
किसी भी व्यक्ति को इच्छा मृत्यु दी जा सकती है या नहीं, यह बड़ा सवाल एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है। न्यायालयों में अक्सर लोग इच्छा मृत्यु की अपील करते रहते हैं। राष्ट्रपति और राज्यपाल से भी इच्छामृत्यु की मांग करने के प्रकरण अखबारों में छपते रहते हैं। यह मामला बेहद संवेदनशील है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से पूरे देश का आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक है।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने मौत को मौलिक अधिकार माना है। उसने अपने निर्णय में कहा हैै कि हर व्यक्ति को सम्मान के साथ मरने का अधिकार है। निष्क्रिय इच्छामृत्यु कानून वैध है। केंद्र सरकार चाहे तो इस बावत कानून बना सकती है लेकिन सरकार इस संबंध में जब तक कानून नहीं बनाती, तब तक ये दिशानिर्देश लागू रहेंगे। हालांकि इसके लिए उसने यह भी कहा है कि मरीज ठीक हो सकता है या नहीं, मेडिकल बोर्ड से जब तक इसकी रिपोर्ट नहीं आ जाती तब तक असाध्य रोग से पीड़ित मरीज को इच्छा मृत्यु नहीं दी जा सकती।
सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2005 में स्वयंसेवी संस्था ‘कॉमन कॉज’ द्वारा दायर याचिका पर यह निर्णय सुनाया है। अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कोर्ट को चिकित्सा विशेषज्ञों के हवाले से बताया था कि मरीज गरिमा के ठीक होने क ेअब कोई आसर नहीं हैं। ऐसे में उसे जीवनरक्षक प्रणाली से हटा दिया जाना चाहिए। अदालत अगर ऐसा करने की अनुमति नहीं देती है तो उसकी तकलीफ में इजाफा होगा। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल 11 अक्तूबर को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। 42 साल तक कोमा में रही अरुणा शानबाग को इच्छा मृत्यु की अनुमति सर्वोच्च न्यायालय ने दी थी। यह और बात है कि इस संबंध में कोई कानूनी प्रावधान नहीं होने के चलते स्थिति स्पष्ट नहीं हो सकी थी।
किसी भी बुजुर्ग की यातनापूर्ण मृत्यु न हो, यह तय करना सरकार और न्यायालय का दायित्व है लेकिन गरिमा को दी गई इच्छा मृत्यु नजीर न बन जाए, इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। मुंबई के वयोवृद्ध दंपति नारायण लावते और इरावती ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से इच्छा मृत्यु की मांग की है। वे अपने बुढ़ापे से डरे हुए हैं। उनका कहना है कि वे निःसंतान हैं। उनके परिवार में भी कोई नहीं बचा है। बुढ़ापे में मौत बीमारी की वजह से ही आती है। वे बीमार हों, कष्ट झेलें। उनकी सेवा दूसरे लोग करें, इसलिए उन्हें इच्छामृत्यु दी जानी चाहिए। ऐसा करना आत्महत्या को प्रोत्साहन देना होगा। हर बुजुर्ग ऐसा चाहेगा तो सरकार के पास बड़ी विषम स्थिति पैदा हो जाएगी।
संयुक्त परिवार जिस तरह टूट रहे हैं। ‘हम दो-हमारे दो’ की भावना जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने तक तो ठीक थी लेकिन अब तो यह हमारी सोच में शामिल हो गई है। बुजुर्गों को उनके हाल पर छोड़ दिया जा रहा है। वे या तो एकाकी जीवन जीने को अभिशप्त हैं या फिर अनाथालय या वृद्धाश्रम में रह रहे हैं। वहां वे भावनात्मक दृष्टि से रोज मरते हैं। अगर इस तरह के दंपति बीमार होते हैं तो उनकी देख-रेख कौन करेगा तो क्या सम्मानजनक मौत को मौलिक अधिकार मानते हुए अपनों द्वारा उपेक्षित वृद्धों को घुट-घुटकर मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा या उन्हें इच्छामृत्यु की अनुमति दी जाएगी, यह अपने आप में बड़ा यक्षप्रश्न है।
जैन संत लंबे समय से संलेखना करते रहे हैं। कुछ हिंदू साधु-संत भी समाधि मरण की इच्छा रखते हैं। इस पर हमेशा देश के प्रबुद्धजन, कानूनविद सवाल उठाते रहे हैं। वर्षो तक कोमा में रहने वाले बुजुर्गों को जीवन से मुक्ति मिलनी चाहिए लेकिन यदि मौत को मौलिक अधिकार मान लिया जाएगा तो लोग बुजुर्गों की सेवा से अतिशीघ्र पिंड छुड़ा लेना चाहेंगे। यह प्रवृत्ति भारत की सेवाभावी परंपरा के विपरीत ही कही जाएगी। कुछ बुजुर्गों के इस सवाल में दम हो सकता है कि क्या उन्हें बिना कष्ट सहे मरने का अधिकार नहीं है। ऐसे लोगों को इतना जरूर जानना चाहिए कि जन्म लेते और मरते वक्त असह्य पीड़ा होती है। ‘जनमत-मरत दुसह दुख होई। यह मति गूढ़ जानि कोउ-कोउ।’ उसे दूसरा कोई नहीं जान सकता। बेटे को जन्म देते वक्त मां भी मरणांतक पीड़ा के दौर से गुजरती है और इस क्रम में अनेक माताओं की मौत भी हो जाती है। वृद्धजनों की इस अपील में दम हो सकता है कि जब जब राष्ट्रपति के पास मौत की सजा का सामना कर रहे लोगों के प्रति दया दिखाने की शक्ति है तो वे उन्हें अपना जीवन समाप्त करने की इजाजत क्यों नहीं दे सकते?
जिसे इच्छा मृत्यु कहा जा रहा है, क्या उसमें मरीज की अपनी सहमति है या उनके परिजन उनके लिए इच्छामृत्यु मांग रहे हैं। इस धरती पर मरना कोई नहीं चाहता। सभी जानते हैं कि मौत निश्चित है फिर भी जीने की इच्छा रखते हैं। यही संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है। बुजुर्ग तो उसी दिन मर जाता है जिस दिन उसके परिजन उसे उपेक्षित कर देते हैं। उसके बेटे-बहू उसे अलग रहने को अभिशप्त कर देते हैं। बुजुर्गों के प्रति सेवा भाव रखने वाला कोई भी व्यक्ति उसे मरने नहीं देना चाहेगा लेकिन यहां तो स्वयंसेवी संस्था बुजुर्ग के लिए इच्छा मृत्यु मांग रही है। क्या परिजनों के अतिरिक्त अन्य लोगों को भी किसी बुजुर्ग के लिए इच्छा मृत्यु मांगने का हक है? देश की सबसे बड़ी अदालत को विचार तो इस पर भी करना चाहिए।
विचारणीय तो यह है कि 2005 से 2018 तक जो वेंटीलेटर पर जिंदा है, उसके जीने की संभावना कैसे नहीं है। जो जी सकता है, वह ठीक भी हो सकता है। यह तो भारतीय चिकित्सा पद्धति और चिकित्सकों की काबिलियत पर भी सवाल है। चिकित्सा वैज्ञानिकों को इस पर शोध करना चाहिए कि प्राचीन काल में बेहोश व्यक्ति एक खुराक बूटी के सेवन से कैसे जीवित हो जाते थे? गंभीर रूप से घायल योद्धा जड़ी-बूटियों के लेप से ठीक होकर दूसरे दिन युद्ध लड़ने कैसे पहुंच जाते थे? आज किसी का पैर टूट जाता है तो उसे महीनों बेड रेस्ट की जरूरत क्यों पड़ती है? क्या यह हमारी चिकित्सा पद्धति का दोष है या लोगों की सहन शक्ति,जीने की इच्छाशक्ति कम हो गई है?
इच्छा मृत्यु का वरदान पूरी धरती पर केवल भीष्म पितामह को मिला था। यह वरदान उनके पिता शांतनु ने दिया था। इच्छा मृत्यु का वरदान या तो मां दे सकती है या पिता लेकिन हममें पिता के लिए अपना सर्वस्व त्यागने की क्षमता ही नहीं है। सेवा से ही मेवा मिलता है लेकिन इस देश में लगता है कि सेवा की अवधारणा ही खत्म हो गई है। भीष्म पितामह के बाद धरती पर किसी को भी इच्छा मृत्यु का वरदान नहीं मिला। भीष्म पितामह ने इस वरदान का प्रयोग इसलिए किया कि वे सूर्य के दक्षिणायन रहते मरना नहीं चाहते थे। वे हस्तिनापुर को समर्थ हाथों में देखना चाहते थे। उनका पूरा शरीर बाणों से छिदा हुआ था। बाणों की शय्या सजी थी। कितना कष्ट रहा होगा उन्हें लेकिन जब तक हस्तिनापुर को उसका योग्य उत्तराधिकारी नहीं मिल गया तब तक उन्होंने अपने प्राण नहीं त्यागे।
भीष्म भी बुजुर्ग थे। क्या इस देश के बुजुर्ग भीष्म नहीं बन सकते? शरीर का कष्ट मायने नहीं रखता। मन का कष्ट भारी होता है। सच तो यह है कि अपनों की उपेक्षा से वृद्धों का मनोबल टूट गया है। उसे बढ़ाने की जरूरत है। इच्छामृत्यु की वैधानिकता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता लेकिन यह परंपरा न बन जाए, उत्तरदायित्वों से बचने का जरिया न बन जाए, चिंता तो इस बात की है।

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