संघ समारोह में मुखर्जी, रामकथा कही राम के आगे
डेस्क - पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी में कहा कि भारत की आत्मा बहुलतावाद व उदारता में बसती है। हमारे समाज में यह सदियों से चले आ रहे तमाम विचारों के मिलन से आई है। सेक्युलरिज्म व सर्वसमावेशी विचार हमारी आस्था के विषय हैं। इस मिश्रित संस्कृति के कारण ही हम एक राष्ट्र बन सके हैं। हिंदूू एक उदार धर्म है।
राष्ट्रवाद किसी धर्म व भाषा में बंटा हुआ नहीं है। सहनशीलता हमारी ताकत है। हमारा राष्ट्रवाद कोई एक भाषा, एक धर्म या एक शत्रु से पैदा नहीं हुआ, यह तो सवा अरब लोगों की सदाबहार सार्वभौमिकता का परिणाम है, जो दैनिक जीवन में 122 भाषाएं इस्तेमाल करते हैं। जब यहां आर्य, मंगोल और द्रविड़ सभ्यताओं के लोग एक झंडे के नीचे भारतीय बनकर रहते हैं और कोई किसी का शत्रु नहीं होता, तब हमारा भारत एक राष्ट्र बनता है। संविधान से राष्ट्रवाद की भावना बहती है। विविधिता व सहिष्णुता में ही भारत बसता है।
संवाद न सिर्फ विरोधी विचारों के बीच संतुलन बनाने के लिए, बल्कि सामंजस्य बैठाने के लिए भी जरूरी होता है। हम आपस में बहस कर सकते हैं। हम सहमत हो सकते हैं नहीं भी हो सकते, लेकिन विचारों की बहुतायत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि जब भी किसी बच्चे या महिला के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार होता है तो भारत की आत्मा घायल होती है। क्रोध जताने के विभिन्न तरीकों से हमारे सामाजिक ढांचे को क्षति पहुंच रही है। हम रोज अपने इर्द-गिर्द हिंसा बढ़ते देख रहे हैं।
हमें अपने समाज को हर प्रकार की हिंसा से दूर रखना चाहिए। चाहे वह शारीरिक हो, या शाब्दिक। सिर्फ अहिंसात्मक समाज से ही लोकतंत्र में सभी वर्गों, खासतौर से वंचितों व पिछड़ों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है। सात धर्म, 122 भाषाएं, 1600 बोलियों के बावजूद सवा अरब भारतीयों की पहचान एक है।
सरदार पटेल ने 565 रियासतों को एक किया तो नेहरू जी ने भारत एक खोज में राष्ट्रवाद की नई परिभाषा बताई। इससे पूर्व संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत द्वारा व्यक्त किए गए विचारों का सारांश भी लगभग यही था कि हमारा समाज बहुलतावादी संस्कृति, विविधता में एकता, वसुधैव कुटुंबकम, सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वेसंतु निरामया के सिद्धांतों पर टिका है। इसमें शारीरिक व वैचारिक हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।