कुदरत नहीं लेकिन मनुष्य इस तरह टाल सकता है प्रलय

कुदरत नहीं लेकिन मनुष्य इस तरह टाल सकता है प्रलय

पाप और पुण्य को हमने धर्म से जोड़कर उसकी अलग धारा बना दी है

डेस्क-हमारा एक स्वभाव बन गया है- बाढ़, भूस्खलन, भूकंप आदि के लिए सीधे-सीधे प्रकृति को दोषी ठहराकर खुद को किनारे कर लेते हैं। हम मान लेते हैं कि प्रलय प्रकृति का आतंक है। कभी-कभी, दबी जुबान से ही सही, यह भी स्वीकार करते हैं कि यह किसी पाप की सजा है। वह पाप क्या है, इस पर अगर हम संजीदगी से चर्चा भी करते तो निश्चित रूप से हमें आपदा से जुड़े सारे सवालों के जवाब मिल जाते। पाप और पुण्य को हमने धर्म से जोड़कर उसकी अलग धारा बना दी है, जिसका इस्तेमाल धर्मगुरु और पंथ धड़ल्ले से अंधविश्वास फैलाने में कर रहे हैं। जबकि यह एक सामाजिक दृष्टि है जो हमारे कर्मों की समीक्षा करती है।

  • हम प्राकृतिक आपदाओं पर अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने में कभी पीछे नहीं रहते, लेकिन अपने उन कार्यकलापों पर ध्यान नहीं देते जिनका संबंध विनाश से है।
  • मनुष्य खुद अपनी हरकतों से विनाश को निमंत्रण दे रहा है।
  • राष्ट्रवाद और संप्रदायवाद के नाम पर एक अलगाव की अवधारणा तैयार की जा रही है
  • तो औद्योगिक क्रांति की आड़ में मानव-पशु-प्राणी-वनस्पति-जगत के साथ-साथ नदी-नाले, पर्वत, जंगल आदि प्राकृतिक संपदा को संकट में डाला जा रहा है।
  • आधुनिक सभ्यता को अपनाने से इंकार नहीं है, लेकिन चिंता इस बात की है
  • कि इस सभ्यता ने जीवन-धारण के लिए सभी आवश्यक प्राणदायी संरचना पर सीधा प्रहार कर दिया है।
  • क्या यह प्राकृतिक प्रलय से अधिक चिंताजनक महाविनाश नहीं है |

सचमुच आदमी की निरंकुश सोच विनाशक संस्कृति को जन्म दे रही है। इससे ऐसी मानसिकता का विस्तार हो रहा है जो अपने सिवाय किसी को सहन करना नहीं चाहती है। हर कोई एक-दूसरे को निगल जाना चाहता है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को, एक मजहब दूसरे मजहब को, एक जाति-समुदाय दूसरे जाति-समुदाय को, एक राजनीतिक दल दूसरे दल को। मनुष्य रचित जो विनाश है, वह प्राकृतिक आपदाओं से अधिक मारक बन गया है। सबको पता है कि इस विनाश-लीला में सबकी जान जाएगी, फिर भी हम सीखने-समझने को तैयार नहीं हैं।

  • प्रलय या विनाश को टालना आदमी के हाथ में है, प्रकृति के हाथ में नहीं।
  • प्रकृति तो जीवन और जगत में उत्पन्न असुंतलन को पुनः संतुलन में लाती है।
  • असंतुलन का प्रमुख कारण मनुष्य है। हम अपनी सुविधा के लिए प्रकृति का हर तरह से दोहन कर रहे हैं।
  • दोहन की मानसिकता दरअसल हिंसा और हत्या का ही छद्म रूप है।
  • यह रूप जितना भयावह होगा, प्रकृति का संतुलन उतना ही बिगड़ेगा। अपनी चरम स्थिति में वही असंतुलन प्रलय का रूप धारण कर लेता है
  • जो संसार के विनाश का कारण बनता है। महाविनाश या महानिर्माण के लिए जिम्मेदार केवल हम हैं।
  • इसलिए प्रकृति के साथ सामंजस्य हमारी जिम्मेदारी है।

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