इस पत्रकार ने उन्हें धो डाला जो ,वोदका की चार बोतलें गटकने के बाद निष्पक्ष होने का सर्टिफिकेट देते हैं

इस पत्रकार ने उन्हें धो डाला जो ,वोदका की चार बोतलें गटकने के बाद निष्पक्ष होने का सर्टिफिकेट देते हैं

तमाम संपादक अब अरनब गोस्वामी की तस्वीर के आगे धरना देकर बैठ गए हैं।

बहुत दिनों से मीडिया पर कुछ लिखा नही तो आज अर्नब गोस्वामी के बहाने सही। हाल ही में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा का एक इंटरव्यू सुन रहा था। इंटरव्यू के बीच में ओबामा ने एक बात कही और मुस्कुरा दिए। मुझे ज़ोर की हंसी आई और साथ ही आंखोँ के आगे हिंदी पट्टी के कई स्वनाम धन्य संपादकोँ के चेहरे नाच गए। ओबामा ने कहा, “अगर मैं कुछ दिनो तक फॉक्स न्यूज देख लूं तो मैं अपने आप को वोट नही दूंगा।

वे मेरी सेलेक्टिव क्लिप उठाते हैं और दिन भर मेरे बारे में अनाप-शनाप चलाते हैं।“ वे मुस्कुराए और फिर बात पूरी की, “मगर बात ये भी है कि जो फॉक्स न्यूज कर रहा है, वही न्यूयार्क टाइम्स भी कर रहा है। फॉक्स न्यूज एक पाले में खड़ा है तो न्यूयार्क टाइम्स दूसरे पाले में।“ ओबामा बड़ी बेबाकी के साथ जिस सच्चाई को बयां कर रहे थे, अरनब गोस्वामी उसी की जीती जागती और काफी हद तक सच्ची तस्वीर हैं। जब से अरनब के हिंदी चैनल रिपब्लिक भारत ने बाजार में दस्तक दी है, हिंदी पट्टी के दसियों-बीसियों साल से जमे जमाए संपादक यूं बेचैन हो उठे हैं मानो मथुरा की गौशाला में कोई डायनासोर घुस आया हो। सालहा साल पत्रकारिता की नैतिकता को घृतराष्ट्र के दरबार की द्रौपदी बना देने वाले तमाम संपादक अब अरनब गोस्वामी की तस्वीर के आगे धरना देकर बैठ गए हैं।

सवाल पूछ रहे हैं। जवाब मांग रहे हैं। नैतिकता, ईमानदारी, फेक न्यूज़, भड़काऊ न्यूज़ जैसे जुमले उछाल रहे हैं। इतने लंबे सालों बाद अचानक से जागे इन लोगों की आंखों में वक्त की सूजन साफ नजर आ रही है। मैं हमेशा से उस चैनल या अखबार का दिल से सम्मान करता हूं जो पूरी ईमानदारी के साथ अपना चेहरा लेकर सामने आता है। इसीलिए मेरी नज़र में रिपब्लिक भारत भी सैल्यूट के काबिल है और नेशनल हेराल्ड भी। आज की तारीख में यही दो समूह हैं जो ईमानदारी के साथ अपना स्टैंड सामने रख रहे हैं, वो भी खुलकर, खुलेआम, डंके की चोट पर। बाकी तो कंबल ओढ़कर घी पी रहे हैं।

चाहे वो अशफाक उल्ला खां और रामप्रसाद बिस्मिल के हाथ से क्रांति का झंडा छीनकर पत्रकारिता के गुर्दों का प्रत्यारोपण करने निकले पुण्य प्रसून वाजपेयी हों जो फिलहाल एक बिस्कुट कंपनी के खर्चे पर न्यूयार्क टाइम्स निकालने चले हैं या फिर एनडीटीवी की नाक में लगी मनी लांड्रिंग की ऑक्सीजन पाइप से मोटी तनख्वाह की सांस लेकर नैतिकता के महात्मा गांधी का खुतबा हासिल करने वाले रवीश पांडेय उर्फ रवीश कुमार हों। सब के सब कड़ाके की सर्दी में दिल्ली के चोर बाजार का इलेक्ट्रिक कंबल लपेटे पत्रकारिता की नंगी आत्मा पर हायतौबा कर रहे हैं। एक चैनल ने तो अपने सबसे प्राइम शो का प्रोमो ही अरनब गोस्वामी के हिंदी चैनल को टारगेट करके उतार दिया है कि अंग्रेजी बोलने वाले अब हिंदी बोलने लगे। उन्हें हिंदी बोलना किसने सिखाया, हमने।

वाकई हिंदी पट्टी में अंग्रेजी पृष्ठभूमि से आए एक पत्रकार का “टेरर” सिर चढ़कर बोल रहा है। लोग सुबह शाम उसे गाली दे रहे हैं और सुबह शाम उसी को देख रहे हैं। उसके दिखाए जिन कागजों को फर्जी बता रहे हैं, दो घंटे के अंतर पर उसे अपने ही चैनलों में “एक्सक्लूसिव” बताकर चला रहे हैं।

सवाल ये भी है कि किसी पार्टी या विचारधारा के समर्थन में या सीधा सीधा कहें कि सत्ता की विचारधारा के साथ खड़े होकर टीवी चैनल चलाना गुनाह “कब” से हो गया? जब से अरनब गोस्वामी ने टीवी मीडिया में अपना वेंचर लॉंच किया, क्या उसी दिन से? इस मुल्क की कथित सेक्युलर लॉबी जिस बीबीसी को वोदका की चार बोतलें गटकने के बाद निष्पक्ष होने का सर्टिफिकेट देती हो, वो क्या है? उसकी फंडिंग कहां से आती है? कभी सोचा है क्या? यूनाइटेड किंगडम की सरकार उसकी फंडिंग के लिए हर घर से कंपल्सरी लाइसेंस फीस वसूलती है। जिन घरों ने इसे देना से मना किया उन पर कानूनी कार्यवाही तक की जा चुकी है। इसके बाद इंग्लैंड का यही सरकारी चैनल विश्व भर की टीवी स्क्रीन पर उसके राष्ट्रीय हितों का प्रतिनिधि बनकर अवतार लेता है और भारत में प्रसारित होकर भारत के हिस्से वाले कश्मीर को “इंडियन ऑक्युपाइड कश्मीर” यानि भारत के कब्जे वाला कश्मीर बताता है। लेकिन उस पर कोई शोर नही होता है क्योंकि वो इस देश के दोगले वामपंथियों और छर्रे टाइप के सेक्युलर वादियों की विचारधारा का हंसिया हथोड़ा होता है। संक्षेप में कहें तो अपना आदमी होता है।

अरनब गोस्वामी के हिंदी चैनल के लॉंच से सिर्फ सात दिन पहले नीरा राडिया के टेप वाली भभूत लगाकर तपस्या कर रहीं सेल्फ सर्टिफाइड महान पत्रकार बरखा दत्त का भी एक चैनल लॉंच हुआ। नाम है हार्वेस्ट टीवी। इस टीवी में कांग्रेसी नेता कपिल सिब्बल के घर का रुपया लगा हुआ है। वो भी घोषित तौर पर। उनकी पत्नी प्रोमिला सिब्बल इसमें पार्टनर हैं। कपिल सिब्बल इस नए नवेले चैनल के किसी वजह से थोड़ी देर के लिए ब्लैक ऑउट हो जाने को लेकर मोदी सरकार पर हमला बोलते हैं। ट्वीट करते हैं। बरखा दत्त पूरी बेशर्मी के साथ कांग्रेसी नेता के इस मालिकाना के प्रति नतमस्तक होती हुई उसे रिट्वीट करती हैं। अब सोचिए। अरनब गोस्वामी के चैनल में बीजेपी सांसद राजीव चंद्रशेखर की पार्टनरशिप पर सवाल उठा उठा अपने कपड़े फाड़ लेने वाले बड़े बड़े महान सेक्युलर पत्रकार इस महान घटना पर एकदम से चुप्पी साध गए। राजदीप सरदेसाई कितनी ही बार कैकेयी की तरह आंसू बहाते हुए अरनब के चैनल में बीजेपी सांसद की पार्टनरशिप का जिक्र कर चुके हैं।

पर बरखा दत्त के नाम पर वे उसी तरह चुप हैं जैसे नैतिकता की डेनिम जींस का दूसरा नाम आशुतोष अपनी कलम बेचने के बदले राज्यसभा सीट हासिल न कर सकने की फ्रस्टेशन में आप छोड़ चुके हैं, पर अरविंद केजरीवाल के बारे में अब भी चुप हैं। पद की भूख के फोले-फफोले छिल चुकने के बावजूद मा-बदौलत को कौन नाराज करे? पता नही कब राज्य सभा का कॉल लेटर फिर से लौट जाए! आखिर राज्य सभा की खातिर अरविंद के उपर दो दो किताबें लिखकर प्राविडेंट फंड में जमा कर चुके हैं, जाने ये बरफ कब पिघल जाए!

इसमें दो राय नही कि हिंदी टीवी मीडिया में अरनब गोस्वामी की एंट्री “कैटालिस्ट” का काम करेगी। उसे कुछ नया करने की दिशा में ढकेलेगी। हिंदी पट्टी के Status quo को झिंझोड़ देगी। इस मुल्क के टीवी चैनलों की सबसे बड़ी समस्या यही है कि यहां पिछले दस-बीस सालों से एक “कॉकश” कुंडली मारकर बैठा है। वामपंथ की उबली हुई चर्बी का ये सुविधाभोगी कॉकश न तो खुद कुछ नया कर सकने में सक्षम है, न ही किसी नए को एक भी प्रयोग करने का मौका देता है। सो लगभग हर टीवी चैनल की स्क्रीन एक जैसी दिखती है। अपवाद छोड़कर। कारण सब एक ही है। ये वही लोग हैं जो घूम घूमकर एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे पहुंचते हैं और उसे पहले जैसा ही रंगकर फिर आगे निकल लेते हैं। यही वजह है कि अपवाद छोड़ दें तो हर दुकान पर एक सा माल है। बस हर होली दीवाली दुकानों पर नए सिरे से पोताई कर दी जाती है और शटर बदल दिए जाते हैं।

मतलब टीवी की भाषा में लुक और फील चेंज कर दिया जाता है। बड़ी अजीब विडंबना है। कपड़ा से लेकर परचून तक और जूता से लेकर फीता तक इस देश की हर इंडस्ट्री में नए लीडर दिखाई पड़ जाएंगे पर टीवी पत्रकारिता में ये मुमकिन ही नही है। यहां सालों से एक ही कॉकश एक दूसरे का हाथ पकड़कर चल रहा है। एक को हाथ लगाइए तो दूसरा मारने को दौड़ता है। मानो आदि शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन इनके ही लिए जन्मा है।

हिंदी टीवी चैनलों के इस थमे और थके हुए माहौल में अरनब गोस्वामी की एंट्री किसी भूचाल की तरह है। उम्मीद की जानी चाहिए कि ये भूचाल पूरी इंटस्ट्री के लिए सकारात्मक साबित होगा। नई हवाएं आएंगी। नए विचार आएंगे। नए चेहरे आएंगे। एक नई सुबह होगी। एक तरफ अमेरिका का मीडिया है जो इस कदर लोकतांत्रिक है कि एनबीसी की एंकर मेगिन केली का कांट्रैक्ट खत्म होने की चर्चा सीएनएन और सीबीएस से लेकर फॉक्स न्यूज तक हो जाती है। सोचिए, एक एंकर के लिए दूसरे चैनलो में शो बनते हैं। डिसकशन प्रोग्राम होते हैं। उसका इंटरव्यू लिया जाता है। एक तरफ हिंदुस्तान का मीडिया है जो आज भी मशहूर जनवादी कवि गोरख पांडेय के लिखे को सही साबित करता आ रहा है कि

"राजा बोला रात है
रानी बोली रात है
मंत्री बोला रात है
संतरी बोला रात है
सब मिल बोले रात है
ये सुबह सुबह की बात है।"

मैं बात यहीं खत्म कर रहा हूं पर मौका मिले तो इस दौरान ट्विटर देखिए। फेसबुक पर जाइए। अरनब गोस्वामी से नैतिकता का सर्टिफिकेट मांगने वाली दत्त साहिबा, सरदेसाई साहब और अन्य संपादकों को आम और गुमनाम से लोग जवाब दे रहे हैं। उनके पिछले किए धरे का “मैग्नाकार्टा” खोलकर पेश कर रहे हैं। उन्हें राजेश खन्ना की सुपरहिट फिल्म “रोटी” का ये मशहूर गीत सुना रहे है- “इस पापन को आज सजा देंगे मिलकर हम सारे, लेकिन जो पापी न हो, वो पहला पत्थर मारे।“ सो इस दुआ के साथ कि इस बार हिंदी पट्टी में कोई बड़ा बदलाव हो। जमकर आलोचना करी जाए। जमकर आलोचना सुनी जाए। अरनब के बहाने सही, अपनी अपनी कॉलरों में भी झांककर जरूर देखा जाए। शेष कुशल है। जय हो।

पत्रकारिता के स्तम्भ अभिषेक उपाध्याय के फेसबुक वॉल से

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