गरुण पुराण की खास बातें

गरुण पुराण की खास बातें

गरुड़ मोह' (सर्ग-१)
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रणलीला कर रहे राम ।
घोर युद्ध चरम पर था।।
मेघनाद ने साधा शस्त्र।
'नागपाश' भयंकर था।।
हाहाकार हुआ भीषण ।
विराम लगा संग्राम पर।।
सहसा वह ब्रह्म बाण ।
टूट पड़ा था 'राम' पर।।
हाय! हाय! स्वर गूंजा।
दैत्यों ने उत्थान किया।।
असहाय हुए जगदीश्वर।
नागों ने था बांध लिया।।
राम राम चिल्लाए सब ।
मेघनाद मन में हर्षाया।।
नारद भी थे विस्मय में ।
ध्यान गरुड़ का आया।।
देवर्षि बोले हे सर्पों के शत्रु!
प्रमाण भक्ति का दीजिए।।
संकट में प्रभु जगन्नाथ हैं।
अब आप ही रक्षा कीजिए।।
नाम 'हरि' का लेकर के ।
विपदा का अनुमान किए।।
नारदजी की आज्ञा पाकर ।
'पक्षीराज' प्रस्थान किए।।
पहुँचे तब पास प्रभु के ।
देखे दृश्य अकल्पित थे।।
राम लखन दोउ भाई ।
'नागपाश' में मूर्छित थे।।
शोक-संतप्त थी पूरी सेना।
वानर सब स्तब्ध खड़े थे।।
देख ऐसा दृश्य विदारक ।
सर्पभक्षी विक्षुब्ध बड़े थे।।
काट गए तब बन्धन को ।
रामचन्द्र को नमन किए।।
अनुमति प्रभु की पाकर ।
गगन मार्ग में गमन किए।।
पथभर व्यथित रहे गरुड़ ।
विस्मय संशय बहुतेरे थे।।
घोर विषाद और उत्पात ।
खगेश के मन को घेरे थे।।
भवबंधन भी जिनसे डरता,
उनको बंधक कौन बनाया?
वासुकीनाथ को बांधे नाग,
यह कैसे सम्भव हो पाया?
दिन प्रति दिन ये मोह बढ़ा,
हो व्यथित देवर्षि से पूछे-
जो सबके हैं बन्धनहर्ता !
उनपर बन्धन आए कैसे ?
भवसागर भी तर जाते हैं ।
इस 'राम' नाम पतवार से ।।
वो राम स्वयं धराशायी हुए।
इक तुच्छ असुर के वार से।।
नारद बोले हे खगराज !
है सृष्टि उनकी छाया में।।
निदान करेंगे ब्रह्मा ही ।
आप फँसे हैं माया में।।
शीश नवा कर गरुड़देव।
ब्रह्मलोक प्रस्थान किए।।
परमपिता ब्रह्मा के पास।
विस्मय का बखान किए।।
मंद मुस्काए बोले ब्रह्मा ।
कैसी दुविधा साध गयी।।
हे गरुड़! हे विष्णुवाहन !
माया तुमको व्याप गयी।।
देव-दनुज, सिद्ध-सुरासुर।
सबको खूब नचाया है।।
कौन रहा है वंचित इससे।
ये उन्हीं हरि की माया है।।
जो त्रिनेत्र हैं त्रिशूलधारी।
घोर व्यूह को चूर करेंगे।।
यह महामोह का संकट।
शम्भु ही अब दूर करेंगे।।
आतुर होकर पक्षीराज।
शंकर के सम्मुख आए।।
शीश नवाए मंगल गाए।
और सारा संदेह सुनाए।।
शम्भु बोले, सुनिए बन्धु !
भक्ति बिन कोई ज्ञान नहीं।।
विश्वास जहाँ अखंडित है।
वहाँ संशय का स्थान नहीं।।
माया की यह मरीचिका ।
यूँ ही विचलित करती है।।
लेकिन विक्षत होकर के ।
श्रीराम के आगे डरती है।।
प्रताप जब 'रामावतार' का।
अटल अलौकिक मानोगे।।
उनकी लीला सारी महिमा।
तब गूढ़ मर्म तुम जानोगे।।
दीर्घकालिक सत्संग से ।
जब राम कथा में डूबोगे।।
निःसन्देह, हे गरुड़राज !
तुम हर सन्देह से छूटोगे।।
उत्तर दिशा में जाओ गरुड़ !
जहाँ सुंदर नील पर्वत होंगे।।
कण-कण है वहाँ राममयी ।
सब हरिनाम में अनुरत होंगे।।
काकभुशुण्डि जिनका नाम ।
उसी 'नीलगिरि' में रहते हैं।।
गुणों के धाम! भक्त महान !
नित रामकथा वो कहते हैं।।
ज्ञान का वह मूल शिखर।
ना माया ही ना मिथ्या है।।
कहीं भरम का चिह्न नहीं।
बस वहाँ अगाध श्रद्धा है।।
प्रेम जहाँ वहीं भक्ति है।
सब भक्ति से ही सुलझेगा।।
जाओ अब हे हरिवाहन !
विश्वास वहीं पर उपजेगा।।
नमन किए तब शंकर को।
जटाधारी दुखभंजन को।।
तत्काल गए वे नीलगिरि।
रामकथा के सुमिरन को।।
शेष भाग अगले सर्ग में...
(काकभुशुण्डि और गरुड़ संवाद)
©जया पाण्डेय 'अन्जानी'

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