ढाई घंटे में ही सिमट गया Haryana Assembly Session

ढाई घंटे में ही सिमट गया Haryana Assembly Session

सिमटते सत्र Assembly Session
हरियाणा विधानसभा का हालिया एक दिवसीय सत्र भले ही खामोशी के साथ समाप्त हो गया हो, लेकिन सिर्फ ढाई घंटे चला यह सत्र कई अनुत्तरित सवाल भी छोड़ गया है।

यह सत्र अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए लोकसभा और प्रदेश विधानसभाओं में जारी आरक्षण को अगले 10 साल तक बढ़ाने के लिए संविधान के 126वें संशोधन से संबंधित बिल पर मुहर लगाने के लिए बुलाया गया था। संसद ने शीतकालीन सत्र में संविधान (126वां संशोधन) विधेयक-2019 पारित किया था। इस बिल के तहत दलित और आदिवासी समुदायों के लिए विधायिका में जारी आरक्षण को 2030 तक बढ़ा दिया गया है।

इस बिल को संसद के दोनों सदनों के बाद अब कम से कम 50 फीसदी राज्यों की विधानसभाओं से हरी झंडी मिलनी आवश्यक है। इसके बाद ही इस बिल पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होंगे और वह कानून का रूप ले सकेगा। इस तरह हरियाणा विधानसभा का यह सत्र बुलाना संवैधानिक आवश्यकता रही, लेकिन चिंता का विषय यह है कि एक दिवसीय सत्र में संविधान संशोधन बिल भी बिना चर्चा के ही पारित कर दिया गया।

इसके अलावा प्रश्नकाल, शून्यकाल जैसे सदन की कार्यवाही के प्रमुख अंग नहीं हुए यानी संविधान संशोधन के दायित्व को निभाने की प्रक्रिया को मात्र औपचारिकता निभाकर निपटा दिया गया। जबकि आरक्षण जैसे गंभीर विषय पर सदन में तर्कपूर्ण बहस हो सकती थी। वैसे भी हरियाणा विधानसभा का बैठकें बुलाने का रिकार्ड निराशाजनक रहा है।

पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की रिपोर्ट भी कहती है कि विधानसभा की बैठकें बुलाने के मामले में हरियाणा फिसड्डी साबित हो रहा है। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की 2011 से 2015 तक 20 राज्य विधानसभाओं पर आधारित रिपोर्ट के अनुसार हरियाणा में इस दौरान सालाना औसतन 12 बैठकें हुईं और वह अंतिम पायदान पर रहा।

सबसे ज्यादा केरल में 48 बैठकें हुईं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि लगभग आधे राज्यों की विधानसभाओं की साल में औसतन 30 या उससे कम बैठकें हुईं। यह भी कि हरियाणा विधानसभा ने अगस्त 2016 के सत्र के दौरान 90 मिनट के दौरान 14 बिलों को पारित किया। इसी तरह 2009 से 2014 के दौरान विधानसभा में 129 विधेयकों को पारित किया। खास बात यह है कि इन सभी को पेश किए जाने वाले दिन ही पारित कर दिया गया।

जाहिर है कि इन पर गंभीर बहस शायद ही हुई होगी। हरियाणा उन राज्यों में भी शामिल है, जिनका रिकार्ड एक ही दिन में बजट पेश करके उसे पारित करने का रहा है। वास्तव में संसद से लेकर अधिकतर विधानसभाओं का यही हाल है। देश की आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में साल में अधिकतम 151 बैठकें हुई हैं। उनके बाद इंदिरा गांधी के कार्यकाल तक साल में 100 बैठकें तक हुईं, लेकिन उसके बाद संसद की बैठकें औसतन 50-55 तक सिमटती चली गई। एक बार तो ये बैठकें 50 से कम हो गई।

संसद और विधानसभाओं की सिमटती बैठकों के मद्देनजर अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन ने सिफारिश की थी कि संसद और बड़ी विधानसभाओं की सालाना कम से कम 100 बैठकें और छोटी विधानसभाओं की सालाना औसतन 60 बैठकें होनी ही चाहिए। संसद अथवा विधानसभाओं की बैठकों को लेकर सरकारें फैसला करती हैं। सरकारों का हाल यह है कि वे संसद व विधानसभाओं की बैठकें कराने से कतराती हैं, क्योंकि सदन में उन्हें तैयारी करके जाना होता है, सदस्यों को जवाब देना होता है।

ऐसे में केंद्र सरकार का तर्क होता है कि अब ज्यादा बैठकों की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अब सदन की विभिन्न कमेटियां हैं और बाकी काम उनके माध्यम से हो जाता है। केंद्र व राज्य सरकारों को संसद व विधानसभाओं की ज्यादा से ज्यादा बैठकें बुलानी चाहिए। संसद व विधानसभाओं का काम सिर्फ कानून बनाना भर नहीं है, वे जनता के प्रति जवाबदेह भी हैं। इसलिए सरकारों को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए व बैठकों से भागना नहीं चाहिए।

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