जाने और समझें क्या ओर क्यों जरूरी हैं मृत्यु भोज

जाने और समझें क्या ओर क्यों जरूरी हैं मृत्यु भोज

समझें मृत्युभोज के महत्व को...

आजकल सोशल मीडिया मृत्यु भोज का बड़ा विरोध हो रहा है, हैरत इस बात की अच्छे विद्वान लोग इस बात का विरोध करते है ।

हमारे धार्मिक ग्रन्थ जैसे गरुड़ पुराण, पितृ संहिता, वेदों में अनेकानेक जगह यह वर्णित है कि मृत प्राणी, दिए गए भोजन का अंश मात्र या भाव स्वरूप विद्यमान उस भोजन का भाग ग्रहण करता है।

मृत्योपरांत भोजन कराना हमारे लिए धर्म ओर संस्कृति का अंग। शास्र अपने सामर्थ्य के अनुसार ब्राहमणों एवं बहिनें,बेटियों को भगवान का प्रसाद बना कर भोजन की आग देता है। उधार लेकर प्रदर्शन की नहीं।

अब भौतिकवादी घर के सदस्य की मृत्यु अन्तिम शोक सभा भी समसान में ही करते हैं। आगे कुछ नहीं।

इस कुरीति के कारण कई दुखी परिवार कर्ज के बोझ में तक दब जाते हैं, जो सभी के मन को द्रवित करता है। लेकिन जो हो रहा है इसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। मृत्यु भोज के पीछे तो हमारे मनीषियों की सोच कुछ और ही रही है, जो मनोवैज्ञानिक है..।

समझें क्या एवम क्यों है मृत्यु भोज

भारतीय वैदिक परम्परा के सोलह संस्कारों में मृत्यु यानी अंतिम संस्कार भी शामिल है। इसके अंतर्गत मृतक के अग्नि या अंतिम संस्कार के साथ कपाल क्रिया, पिंडदान आदि किया जाता है। स्थानीय मान्यता के अनुसार तीन या चार दिन बाद श्मशान से मृतक की अस्थियों का संचय किया जाता है। सातवें या आठवें दिन इन अस्थियों को गंगा, नर्मदा या अन्य पवित्र नदी में विसर्जित किया जाता है। दसवें दिन घर की सफाई या लिपाई-पुताई की जाती है। ही मृत्युभोज कहा जाने लगा है। यह इतना खर्चीला हो गया है कि कई दुखी परिवारों की कमर टूट जाती है वे कर्ज तक में डूब जाते हैं।

दुसरी बात यह है कि यह निश्चित नहीं कि संस्कार केवल 16 ही थे , अलग अलग ऋषियों ने संस्कारों की संख्या अलग अलग लिखी हैं । महर्षि गौतमने गौतम धर्मसूत्रमें ‘ ४८ संस्कारोंका उल्लेख किया है । महर्षि अङ्गिराने २५ संस्कार गिनाये हैं , वैखानसगृह्यसूत्रमें १८ संस्कारोंका उल्लेख है ,तो वहीं जातूकर्ण्यने ,जैमिनी और व्यासजी ने १६ संस्कारोंका उल्लेख किया है ।

पारास्करगृह्यसूत्र और वाराहगृह्यसूत्र में १३ संस्कारों का उल्लेख है तो वहीं आश्वलायनगृह्यसूत्र में मात्र १० संस्कारोंका ही उल्लेख है । इसीलिए देशकालमें संस्कारोंका लोप हो जाना कोई आश्चर्यकी बात नहीं । आद्ययुग से ४८ संस्कार रहे हैं इसका उल्लेख ‘ संस्कारः अष्टचत्वारि’ वचनसे स्पष्ट है ।

समलेंगिकता और ज्योतिष के योग

अनेकों शास्त्रों में इसका विधान है ,लेकिन हम उन्ही ग्रन्थों से प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं ,जिसके द्वारा १६ संपादित होते हैं ,और वे ग्रन्थ हैं षड्वेदाङ्गोंमें एक कल्पसूत्र । कल्पसूत्रों में गृह्यसूत्रोंमें ही १६ संस्कारोंका विधान मिलता है ,जिन्हें मन्वादि समस्त ऋषियों ने अपने स्मृति ग्रन्थों में उद्धृत किया है , यजुर्वेदके पारस्कर गृह्यसूत्र में अन्त्येष्टि संस्कारविधा में ” एकादश्यामयुग्मान् ब्राह्मणान् भोजयित्वा “( ३/१०/४८) ,” प्रेतायोद्दिश्य गामप्येके घ्नन्ति ।।” (३/१०/४९) – (दाहसंस्कारके) ‘ ग्यारहवे दिन विषम संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराएं ।

मृतकके उद्देश्य से गवालम्भन भी करना चाहिये । ‘ हरिहरभाष्यम् — “एकादश्यामेकादशेऽहनि ब्राह्मण: कर्ता चेत् आयुग्मान् त्रिप्रभृतिविषमसङ्ख्याकान् द्विजोत्तमान् भोजयित्वा भोजनं कारयित्वा एकोद्दिष्टश्राद्धविधिना ” में स्पष्ट उल्लेख कर रहे हैं । “कर्तव्यं विप्रभोजनम् ।

प्रेता यान्ति तथा तृप्तिं बन्धुवर्गेण भुञ्जता ।। “(विष्णु पुराण ३/१३/१२)

पितरोंके निमित्त किये जाने वाले कर्म को श्राद्ध कहते हैं – “देशे काले च पात्रे च विधिना हविषा च यत् । तिलैर्दर्भैश्च मन्त्रैश्च श्राद्धं स्यच्छ्र्द्धया युतम् ।।(ब्रह्मपुराण)

कात्यायन श्रौतसूत्र में बताया गया है कि जिसके पिता की मृत्यु हो गयी हो ,किन्तु पितामह जीवित हो ,तो वह व्यक्ति पिता को पिण्ड देकर पितामह को छोड़कर उनसे पूर्व के पूर्वज प्रपितामह और वृद्धपितामह को पिण्ड दे –

“पिता प्रेत: स्यात् पितामहो जीवेत् पित्रे पिण्डं निधाय पितामहात् पराभ्यां द्वाभ्यां दद्यात् ।”(का०श्रौ०सू०) भगवान् मनुकी भी इसमें उपपत्ति है –

“पिता यस्य निवृत्त: स्याज्जोवेच्चापि पितामह: ।

पितु: स नाम सङ्कीर्त्य कीर्तयेत् प्रपितामहम् ।।”(मनु ३/२२१)

यह सत्य है कि मृतकके परिजन शोक सन्तप्त होते हैं , उनके अश्रु कोई रोक नहीं सकता । किन्तु यह भी सत्य है , जो लोग आत्मा को अविनाशी और नश्वर समझते हैं ,पुनर्जन्मके सिद्धांत को मानते हैं , वे अन्त्येष्टि संस्कार की किसी भी विधिमें अश्रु नहीं बहाते हैं ,क्योंकि वे ऐसा मानते हैं ,उन अश्रुओं से जीवात्मा दुःखी होता है । और जीवात्माकी तृप्तिके लिये ही पिण्ड और श्राद्ध दिया जाता है ।

जिसके परिजनकी मृत्यु हुई होती है , वह अपने मृतक परिजनको मरण उपरान्त भी उसे अतृप्त नहीं रखना चाहते हैं ,उसके भोजन के लिये ही द्वादशा और त्रियोदशा में ब्राह्मणके द्वारा अपने मृतक परिजन को भोजन कराते हैं । जब अपने ही मृतकके सन्तुष्टिके लिये पिण्डदान-ब्रह्मभोज कराया जाता है ,उसे खिलाने में परिजनों के अश्रु क्यों निकलेंगे ?

लकड़ी काटते समय ,आटा गूथते समय या भोजन बनाते समय क्यों अश्रु बहायेंगे ?

जब वे जानते हैं ,हमारे इस पिण्डदान-द्वादशा आदि विधि से मृतक परिजन ही तृप्त होगा । कपाल क्रियाके अनन्तर ही जोर से रोनेका शास्त्र में विधान है , उससे मृत प्राणीको शुख मिलता है ,अन्य और्ध्वदेहिक क्रिया , पिण्डदान और द्वादशामें अश्रु नहीं बहाते हैं ,परिजन वे जानते हैं हमारे मृतक परिजन को इससे तृप्ति मिलेगी ,इसलिये अन्त्येष्टि संस्कारमें अश्रु बहाना निषेध है , मृतक की सद्गति की प्रार्थना करनी चाहिये –

श्लेशमाश्रु बान्धवैर्मुक्तं प्रेतो भुङ्क्ते यतोऽवश: । अतो न रोडितव्यं हि क्रिया: कार्या: स्वशक्तित: “(याज्ञवल्क्य स्मृति,-गरुड़पुराण ) -” पितुः पिण्डादिकं कुर्यादश्रुपातं न कारयेत् ।”(गरुड़पुराण ११/३)

भगवान् मनु ने भी श्राद्धके समय अश्रु बहाना निषेध किया है -” नास्रमापातयज्जातुन ” (३/२२९) , “अस्रं गमयति प्रेतान् “(३/२३०) ।

मनुजी ने शोक संतप्त परिजनोंको शोक निवारणके लिये रामायण-महाभारत, इतिहास-पुराण-हरिवंश पुराण आदि धर्म शास्त्रोंके श्रवणका विधान किया है – “स्वाध्यायं श्रावयेत्पित्र्ये धर्मशास्त्राणि चैव हि ।

आख्यानानीतिहासांश्च पुराणानि खिलानि च ।। “(मनु ३/२३२)

श्राद्ध खिलाने की आवश्यकता क्यों है ? श्रुतिका वचन है –

“इडमोदनं नि दधे ब्राह्मणेषु विष्टारिणं लोकजितं स्वर्गम् ।”(अथर्ववेद ४/३८/८)

अर्थात् – ‘इस ओदनोपलक्षित (चावलके भात) भोजन को ब्राह्मणों में स्थापित कर रहा हूँ । यह भोजन विस्तारसे मुक्त है और स्वर्गलोक को जीतने वाला है ।’

शतपथब्राह्मणकी श्रुति कहती है – “तिर इव वै पितरो मनुष्येभ्यः “(२/३/४/२१) -‘सूक्ष्म शरीर धारी होने से पितर मनुष्य में छिपे रहते हैं ।’

मनुजी का भी यही मानना है –

“यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकस: ।

कव्यानि चैव पितरः किं भूतमधिकं तत: ।।”(१/९५) -‘ब्राह्मणके मुखसे देवता हव्यको और पितर कव्यको खाते हैं । ‘ इसीलिए पितरों को दिया जाने वाला कव्य ,ब्राह्मण के द्वारा ही पितरों को तृप्त करता है । मृतकका दूसरी किसी भी योनि में जन्म हुआ हो अथवा वह अतृप्त भटकती आत्मा ही हो , कुलगोत्रके उच्चारण मन्त्रों सहित ब्राह्मण को खिलाये गये ,कव्य रूपी श्राद्ध से ,मृतक किसी भी लोकमें हो ,किसी भी योनि में हो वह भोजन रूपी योनिके जीव के अनुरूप होकर उसे प्राप्त होता है । जैसे गाय-घोड़े का जन्म मिला हो तो घास के रूप में, मनुष्य का जन्म मिला हो तो दुग्ध भोजन आदिके रूप में ।

“नाम गोत्रं च मन्त्रश्च दत्तमन्नं नायन्ति तम् । अपि योनिशतं प्राप्तांस्तृप्तिस्ताननुगच्छति ।।”।(वायुपुराण ८३/१२०)

भोजन खिलाने का मनोविज्ञान--

प्रियजन की मृत्यु से परिवार बेहद दु:खी रहता था। अपने आत्मीय स्वजन की मृत्यु के दु:ख में कई बार परिवार के लोग बीमार व अशक्त तक हो जाते थे। सदमे में आत्मघाती कदम तक उठा लेते थे। ऐसा नहीं हो.. वे सदमे में नहीं रहें इसलिए व्यवस्था दी गई कि खास परिचत और रिश्तेदार मृतक के परिजनों के पास ही रहेंगे। रोज उसके साथ सादा भोजन करेंगे। उसे ढाढस बंधाएंगे ताकि उसका दु:ख व मन हलका हो जाए।

गरुण पुराण के अनुसार परिचितों और रिश्तेदारों को मृतक के घर पर अनाज, रितु फल, वस्त्र व अन्य सामग्री लेकर जाना चाहिए। यही सामग्री सबके साथ बैठकर ग्रहण की जाती थी। बीमारियों के कीटाणु असर न करें इसलिए किसी तरह का बघार लाना वर्जित था। उबला हुआ या फिर कंडे पर महज सादा भोजन बनाया व परोसा जाता था।

विद्वानों को भोजन कराने का विज्ञान---

तेरहवीं में विद्वानों या ब्राम्हणों को खिलाने का नियम है। इसके पीछे भी रहस्य है। ब्राम्हण वर्ग उस समय अधिक शिक्षित होता था। वह औषधीय हवन के साथ वेदोच्चार की तरंगों के घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार करता था। हवन उपचार के लिए इन्हें सदैव बुलाया जाता रहे, इसलिए इनके भोजन की व्यवस्था रख दी गई। तेरहवीं पर केवल गायत्री का जाप करने वाले यानी विद्वान और तपस्पी ब्राम्हणों को ही खिलाने का विधान है।

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