रोगों को खत्म करने के लिए किया जाता है हवन ,किस लकड़ी से कौन सा रोग होता है दूर

रोगों को खत्म करने के लिए किया जाता है हवन ,किस लकड़ी से कौन सा रोग होता है दूर

जाने एवम समझें क्या होता हैं "हवन" या "यज्ञ"..??

हवन का अर्थ है अग्नि में आहुति प्रदान करना भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है "अन्नाद भवति भूतानि, पर्जन्याद अन्न सम्भव। यज्ञाद भवति पर्जन्य यज्ञ कर्म समुद्भव।। अर्थात अन्न से भूत अर्थात शरीर पुष्ट होता है, पुष्ट अन्न की उत्तपत्ति पर्जन्य अर्थात वर्षा से होती है और वर्षा पुष्ट बादलों से होती है तथा बादल यज्ञ द्वारा पुष्ट होते हैं। अतः यज्ञ करना चाहिये।
हवन अथवा यज्ञ भारतीय परंपरा अथवा हिंदू धर्म में शुद्धीकरण का एक कर्मकांड है। कुण्ड में अग्नि के माध्यम से ईश्वर की उपासना करने की प्रक्रिया को यज्ञ कहते हैं। हवि, हव्य अथवा हविष्य वह पदार्थ हैं जिनकी अग्नि में आहुति दी जाती है (जो अग्नि में डाले जाते हैं)।
यज्ञ को अग्निहोत्र कहते हैं। अग्नि ही यज्ञ का प्रधान देवता हे। हवन-सामग्री को अग्नि के मुख में ही डालते हैं। अग्नि को ईश्वर-रूप मानकर उसकी पूजा करना ही अग्निहोत्र है। अग्नि रूपी परमात्मा की निकटता का अनुभव करने से उसके गुणों को भी अपने में धारण करना चाहिए एवं उसकी विशेषताओं को स्मरण करते हुए अपनी आपको अग्निवत् होने की दिशा में अग्रसर बनाना चाहिए।
अग्नि का स्वभाव उष्णता है। हमारे विचारों और कार्यों में भी तेजस्विता होनी चाहिए। आलस्य, शिथिलता, मलीनता, निराशा, अवसाद यह अन्ध-तामसिकता के गण हैं, अग्नि के गुणों से यह पूर्ण विपरीत हैं। जिस प्रकार अग्नि सदा गरम रहती है, कभी भी ठण्डी नहीं पड़ती, उसी प्रकार हमारी नसों में भी उष्ण रक्त बहना चाहिए, हमारी भुजाएँ, काम करने के लिए फड़कती रहें, हमारा मस्तिष्क प्रगतिशील, बुराई के विरुद्ध एवं अच्छाई के पक्ष में उत्साहपूर्ण कार्य करता रहे।
अग्नि में जो भी वस्तु पड़ती है, उसे वह अपने समान बना लेती है। निकटवर्ती लोगों को अपना गुण, ज्ञान एवं सहयोग देकर हम भी उन्हें वैसा ही बनाने का प्रयत्न करें। अग्नि के निकट पहुँचकर लकड़ी, कोयला आदि साधारण वस्तुएँ भी अग्नि बन जाती हैं, हम अपनी विशेषताओ से निकटवर्ती लोगों को भी वैसा ही सद्गुणी बनाने का प्रयत्न करें।
हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित करने के पश्चात इस पवित्र अग्नि में फल, शहद, घी, काष्ठ इत्यादि पदार्थों की आहुति प्रमुख होती है। वायु प्रदूषण को कम करने के लिए भारत देश में विद्वान लोग यज्ञ किया करते थे और तब हमारे देश में कई तरह के रोग नहीं होते थे । शुभकामना, स्वास्थ्य एवं समृद्धि इत्यादि के लिए भी हवन किया जाता है। अग्नि किसी भी पदार्थ के गुणों को कई गुना बढ़ा देती है । जैसे अग्नि में अगर मिर्च डाल दी जाए तो उस मिर्च का प्रभाव बढ़ कर कई लोगो को दुख पहुंचाता है उसी प्रकार अग्नि में जब औषधीय गुणों वाली लकड़ियां और शुद्ध गाय का घी डालते हैं तो उसका प्रभाव बढ़ कर लाखों लोगों को सुख पहुंचाता है।
वेत्तारं यज्ञपुरुषं यज्ञेशं यज्ञवाहकम्।
चक्रपाणिं गदापाणिं शंख् पाणिं नरोत्तमम्।।
यज्ञ पुरुष भगवान की जय हो
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः।।
यज्ञ में केवल गाय का शुध्द घी व उसके साथ ऋतु अनुसार समिधा अर्थात हवनीय लकडी का भी प्रयोग भी ज्ञात होना आवश्यक है।
हवन सामग्री जिसे शाकल्य कहा जाता है वह भी शुद्ध होना आवश्यक है जिसमे मुख्य रूप से जौ, काले तिल, अक्षत(चांवल) , तालीस पत्र, छड़ीला, कपूर काचरी, नागर मोथा, अगर, तगर, केशर, चन्दन, हाऊ बेर, जटामांसी, जायफल, कायफल, जावित्री, बालछड़, इलायची गुग्गुल, नारियल, गुड़ या शर्करा प्रमुख है।
सभी सामग्री सड़ी गली, बहुत पुरानी या कीट लगी हुई नही होनी चाहिये। इन्हें जौ कूट अर्थात जौ के दाने के बराबर कुटी हुई होनी चाहिये इस प्रकार प्रयोग करना चाहिये।
मुखं यः सर्व देवानां हव्यमुख कव्यमुख तथा
पितृणां च नमः तस्यै विष्णवे पावाकात्मने !
विशिष्ट प्रयोजन के लिये व बड़े यज्ञ में अन्य विशेष सामग्रियों का प्रयोग व मात्रानुपात भी निर्धारित होता है।
क्या होती हैं समिधा ??
समिधा का अर्थ है वह लकड़ी जिसे जलाकर यज्ञ किया जाए अथवा जिसे यज्ञ में डाला जाए .
नवग्रह(शान्ति) के लिये प्रयोग होती हैं ये समिधा --
सूर्य की समिधा मदार की, चन्द्रमा की पलाश की, मंगल की खैर की, बुध की चिड़चिडा की, बृहस्पति की पीपल की, शुक्र की गूलर की, शनि की शमी की, राहु दूर्वा की और केतु की कुशा की समिधा कही गई है।
मदार की समिधा रोग को नाश करती है, पलाश की सब कार्य सिद्ध करने वाली, पीपल की प्रजा (सन्तति) काम कराने वाली, गूलर की स्वर्ग देने वाली, शमी की पाप नाश करने वाली, दूर्वा की दीर्घायु देने वाली और कुशा की समिधा सभी मनोरथ को सिद्ध करने वाली होती है।
इनके अतिरिक्त देवताओं के लिए पलाश वृक्ष की समिधा जाननी चाहिए।
ऋतुओं के अनुसार करें समिधा का उपयोग--
ऋतुओं के अनुसार समिधा के लिए इन वृक्षों की लकड़ी विशेष उपयोगी सिद्ध होती है।
वसन्त-शमी
ग्रीष्म-पीपल
वर्षा-ढाक, बिल्व
शरद-पाकर या आम
हेमन्त-खैर
शिशिर-गूलर, बड़
यह लकड़ियाँ सड़ी घुनी, गन्दे स्थानों पर पड़ी हुई, कीडे़-मकोड़ों से भरी हुई न हों, इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए।
नित्य होम अग्निहोत्र के रूप में किया जाता है । इसमें गाय का घी व अक्षत के 2-2 दानों की मिलाकर 3 आहुति ॐ भू: स्वाहा, ॐ भुवः स्वाहा, ॐ स्व:स्वाहा से आहुति प्रातः व सायंकाल दीजिये । इतना ही पर्याप्त है।
समझें उत्तम स्वास्थ्य के लिए हवन का महत्त्व --
प्रत्येक ऋतु में आकाश में भिन्न-भिन्न प्रकार के वायुमण्डल रहते हैं। सर्दी, गर्मी, नमी, वायु का भारीपन, हलकापन, धूल, धुँआ, बर्फ आदि का भरा होना। विभिन्न प्रकार के कीटणुओं की उत्पत्ति, वृद्धि एवं समाप्ति का क्रम चलता रहता है। इसलिए कई बार वायुमण्डल स्वास्थ्यकर होता है। कई बार अस्वास्थ्यकर हो जाता है। इस प्रकार की विकृतियों को दूर करने और अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने के लिए हवन में ऐसी औषधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं, जो इस उद्देश्य को भली प्रकार पूरा कर सकती हैं।
लकड़ी और औषधीय जडी़ बूटियां जिनको आम भाषा में हवन सामग्री कहा जाता है को साथ मिलाकर जलाने से वातावरण में जहां शुद्धता आ जाती है वहीं हानिकारक जीवाणु 94 प्रतिशत तक नष्ट हो जाते हैं।
उक्त आशय के शोध की पुष्टि के लिए और हवन के धुएं का वातावरण पर पड़ने वाले प्रभाव को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के लिए बंद कमरे में प्रयोग किया गया। इस प्रयोग में पांच दजर्न से ज्यादा जड़ी बूटियों के मिश्रण से तैयार हवन सामग्री का इस्तेमाल किया गया। यह हवन सामग्री गुरकुल कांगड़ी हरिद्वार संस्थान से मंगाई गयी थी। हवन के पहले और बाद में कमरे के वातावरण का व्यापक विश्लेषण और परीक्षण किया गया, जिसमें पाया गया कि हवन से उत्पन्न औषधीय धुंए से हवा में मौजूद हानिकारक जीवाणु की मात्र में 94 प्रतिशत तक की कमी आयी।
इस औषधीय धुएं का वातावरण पर असर 30 दिन तक बना रहता है और इस अवधि में जहरीले कीटाणु नहीं पनप पाते।
धुएं की क्रिया से न सिर्फ आदमी के स्वास्थ्य पर अच्छा असर पड़ता है बल्कि यह प्रयोग खेती में भी खासा असरकारी साबित हुआ है।
वैज्ञानिक का कहना है कि पहले हुए प्रयोगों में यह पाया गया कि औषधीय हवन के धुएं से फसल को नुकसान पहुंचाने वाले हानिकारक जीवाणुओं से भी निजात पाई जा सकती है। मनुष्य को दी जाने वाली तमाम तरह की दवाओं की तुलना में अगर औषधीय जड़ी बूटियां और औषधियुक्त हवन के धुएं से कई रोगों में ज्यादा फायदा होता है और इससे कुछ नुकसान नहीं होता जबकि दवाओं का कुछ न कुछ दुष्प्रभाव जरूर होता है।
धुआं मनुष्य के शरीर में सीधे असरकारी होता है और यह पद्वति दवाओं की अपेक्षा सस्ती और टिकाउ भी है।
समंझें हवन कुंड को??
हवन कुंड का अर्थ है हवन की अग्नि का निवास-स्थान।
कितना बडा हो हवन कुंड?
प्राचीन काल में कुण्ड चौकोर खोदे जाते थे, उनकी लम्बाई, चौड़ाई समान होती थी। यह इसलिए था कि उन दिनों भरपूर समिधाएँ प्रयुक्त होती थीं, घी और सामग्री भी बहुत-बहुत होमी जाती थी, फलस्वरूप अग्नि की प्रचण्डता भी अधिक रहती थी। उसे नियंत्रण में रखने के लिए भूमि के भीतर अधिक जगह रहना आवश्यक था। उस स्थिति में चौकोर कुण्ड ही उपयुक्त थे। पर आज समिधा, घी, सामग्री सभी में अत्यधिक मँहगाई के कारण किफायत करनी पड़ती है। ऐसी दशा में चौकोर कुण्डों में थोड़ी ही अग्नि जल पाती है और वह ऊपर अच्छी तरह दिखाई भी नहीं पड़ती। ऊपर तक भर कर भी वे नहीं आते तो कुरूप लगते हैं। अत एव आज की स्थिति में कुण्ड इस प्रकार बनने चाहिए कि बाहर से चौकोर रहें, लम्बाई, चौड़ाई गहराई समान हो। पर उन्हें भीतर तिरछा बनाया जाय। लम्बाई, चौड़ाई चौबीच-चौबीस अँगुल हो तो गहराई भी 24 अँगुल तो रखना चाहिये पर उसमें तिरछापन इस तरह देना चाहिये कि पेंदा छः-छः अँगुल लम्बा चौड़ा रह जाय।
इस प्रकार के बने हुए कुण्ड समिधाओं से प्रज्ज्वलित रहते हैं, उनमें अग्नि बुझती नहीं। थोड़ी सामग्री से ही कुण्ड ऊपर तक भर जाता है और अग्निदेव के दर्शन सभी को आसानी से होने लगते हैं।
पचास अथवा सौ आहुति देनी हो तो कुहनी से कनिष्ठा तक के माप का (१ फुट ३ इंच) कुण्ड बनाना, एक हजार आहुति में एक हस्तप्रमाण (१ फुट ६ इंच) का, एक लक्ष आहुति में चार हाथ का (६ फुट), दस लक्ष आहुति में छः हाथ (९ फुट) का तथा कोटि आहुति में ८ हाथ का (१२ फुट) अथवा सोलह हाथ का कुण्ड बनाना चाहिये। भविष्योत्तर पुराण में पचास आहुति के लिये मुष्टिमात्र का भी र्निदेश है।
हवन की वेदी वैसे तो पुरोहित के परामर्श से तैयार करनी चाहिए लेकिन आजकल हवन की वेदी तैयार भी मिलती है। अनेक पुरोहित तो जमीन में गड्ढा खोदकर लकड़ियों से भी वेदी का निर्माण करते हैं। शास्त्रों के अनुसार वेदी के पांच संस्कार किये जाते हैं। तीन कुशों में वेदी या ताम्र कुण्ड का दक्षिण से उत्तर की ओर परिमार्जन करें। फिर उन कुशों से वेदी या ताम्र कुण्ड को ईशान दिशा में फेंक दें। गोबर और जल से लीपकर पृथ्वी शुद्ध करें। कुशमूल से पश्चिम की ओर लगभग दस अंगुल लंबी तीन रेखाएं दक्षिण से प्रारम्भ कर उत्तर की ओर बनाएं। दक्षिण अनामिका और अंगूठे से रेखाओं पर मिट्टी निकालकर बाएं हाथ में तीन बार रखकर फिर सारी मिट्टी दाहिने हाथ में रख लें। फिर मिट्टी को उत्तर की ओर फेंक दें। इसके बाद जल से कुंड को सींच दें। इस तरह भूमि के पांच संस्कार संपन्न करके पवित्र अग्नि अपने दक्षिण की तरफ रखें।
हवन कुण्ड में अग्नि प्रज्ज्वलित करने के पश्चात पवित्र अग्नि में फल, शहद, घी, काष्ठ इत्यादि पदार्थों की आहुति प्रमुख होती है। हवन करते समय किन-किन उंगलियों का प्रयोग किया जाये इसके सम्बन्ध में मृगी और हंसी मुद्रा को शुभ माना गया है। मृगी मुद्रा वह है जिसमें अंगूठा, मध्यमा और अनामिका उंगलियों से सामग्री होमी जाती है। हंसी मुद्रा वह है, जिसमें सबसे छोटी उंगली कनिष्ठका का उपयोग न करके शेष तीन उंगलियों तथा अंगूठे की सहायता से आहुति छोड़ी जाती है।
गंध, धूप, दीप, पुष्प और नैवेद्य भी अग्नि देव को अर्पित किये जाते हैं। इसके बाद घी मिश्रित हवन सामग्री से या केवल घी से हवन किया जाता है। शास्त्रों में घृत से अग्नि को तीव्र करने के लिए तीन आहुति देने का वर्णन किया गया है। आहुति के साथ निम्न मंत्र बोलते जाएं−
1− ओम भूः स्वाहा, इदमगन्ये इदं न मम।
2− ओम भुवः स्वाहा, इदं वायवे इदं न मम।
3− ओम स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय इदं न मम।
ओम अगन्ये स्वाहा, इदमगन्ये इदं न मम।
ओम घन्वन्तरये स्वाहा, इदं धन्वन्तरये इदं न मम।
ओम विश्वेभ्योदेवभ्योः स्वाहा, इदं विश्वेभ्योदेवेभ्योइदं न मम।
ओम प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये इदं न मम।
ओम अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते इदं न मम।
इस तरह गौतम महर्षि द्वारा प्रचलित पांच आहुतियां प्रदान करके निम्न मंत्रों के साथ आहुतियां प्रदान करें−
1− ओम देवकृतस्यैनसोवयजनमसि स्वाहा, इदमग्नये इदं न मम।
2− ओम मनुष्यकृतस्यैनसोवयजनमसि स्वाहा, इदमग्नये इदं न मम।
3− ओम पितृकृतस्यैनसोवयजनमसि स्वाहा, इदमग्नये इदं न मम।
4− ओम आत्मकृतस्यैनसोवयजनमसि स्वाहा, इदमग्नये इदं न मम।
5− ओम एनस एनसोवयजनमसि स्वाहा, इदमग्नये इदं न मम।
6− ओम यच्चाहमेनो विद्वांश्चकर यच्चाविद्वॉस्तस्य
== कितने हवन कुंड बनाये जायें? ==
कुण्डों की संख्या अधिक बनाना इसलिए आवश्यक होता है कि अधिक व्यक्ति यों को कम समय में निर्धारित आहुतियाँ दे सकना सम्भव हो, एक ही कुण्ड हो तो एक बार में नौ व्यक्ति बैठते हैं।
यदि एक ही कुण्ड होता है, तो पूर्व दिशा में वेदी पर एक कलश की स्थापना होने से शेष तीन दिशाओं में ही याज्ञिक बैठते हैं। प्रत्येक दिशा में तीन व्यक्ति एक बार में बैठ सकते हैं। यदि कुण्डों की संख्या 5 हैं तो प्रमुख कुण्ड को छोड़कर शेष 4 पर 12-12 व्यक्ति भी बिठाये जा सकते हैं। संख्या कम हो तो चारों दिशाओं में उसी हिसाब से 4, 4 भी बिठा कर कार्य पूरा किया जा सकता है। यही क्रम 9 कुण्डों की यज्ञशाला में रह सकता है। प्रमुख कुण्ड पर 9 और शेष ८ पर 12x8 अर्थात 96+ 9 =105 व्यक्ति एक बार में बैठ सकते हैं। संख्या कम हो तो कुण्डों पर उन्हें कम-कम बिठाया जा सकता है।
हवन कुंड और हवन के नियम
जन्म से मृत्युपर्यन्त सोलह संस्कार या कोई शुभ धर्म कृत्य यज्ञ अग्निहोत्र के बिना अधूरा माना जाता है। वैज्ञानिक तथ्यानुसार जहाॅ हवन होता है, उस स्थान के आस-पास रोग उत्पन्न करने वाले कीटाणु शीघ्र नष्ट हो जाते है।
शास्त्रों में अग्नि देव को जगत के कल्याण का माध्यम माना गया है जो कि हमारे द्वारा दी गयी होम आहुतियों को देवी देवताओं तक पहुंचाते है।
जिससे देवगण तृप्त होकर कर्ता की कार्यसिद्धि करते है। इसलिये पुराणों में कहा गया है।
"अग्निर्वे देवानां दूतं"
कोई भी मन्त्र जाप की पूर्णता, प्रत्येक संस्कार, पूजन अनुष्ठान आदि समस्त दैवीय कर्म, हवन के बिना अधूरा रहता है।
हवन दो प्रकार के होते हैं वैदिक तथा तांत्रिक
आप हवन वैदिक करायें या तांत्रिक दोनों प्रकार के हवनों को कराने के लिए हवन कुंड की वेदी और भूमि का निर्माण करना अनिवार्य होता हैं.
शास्त्रों के अनुसार वेदी और कुंड हवन के द्वारा निमंत्रित देवी देवताओं की तथा कुंड की सज्जा की रक्षा करते हैं. इसलिए इसे “मंडल” भी कहा जाता हैं.
हवन की भूमि
हवन करने के लिए उत्तम भूमि को चुनना बहुत ही आवश्यक होता हैं. *हवन के लिए सबसे उत्तम भूमि नदियों के किनारे की, मन्दिर की, संगम की, किसी उद्यान की या पर्वत के गुरु ग्रह और ईशान में बने हवन कुंड की मानी जाती हैं.
हवन कुंड के लिए फटी हुई भूमि, केश युक्त भूमि तथा सांप की बाम्बी वाली भूमि को अशुभ माना जाता हैं.
हवन कुंड की बनावट
हवन कुंड में तीन सीढियाँ होती हैं. जिन्हें “मेखला” कहा जाता हैं।
हवन कुंड की इन सीढियों का रंग अलग – अलग होता हैं.
१. हवन कुंड की सबसे *पहली सीधी का रंग सफेद होता हैं.
२. दूसरी सीढि का रंग लाल होता हैं.
३. अंतिम सीढि का रंग काला होता हैं.
ऐसा माना जाता हैं कि हवन कुंड की इन तीनों सीढियों में तीन देवता निवास करते हैं.
१. हवन कुंड की पहली सीढि में विष्णु भगवान का वास होता हैं.
२. दूसरी सीढि में ब्रह्मा जी का वास होता हैं.
३. तीसरी तथा अंतिम सीढि में शिवजी का वास होता हैं.

हवन कुंड के बाहर गिरी सामग्री को हवन कुंड में न डालें।
आमतौर पर जब हवन किया जाता हैं तो हवन में हवन सामग्री या आहुति डालते समय कुछ सामग्री नीचे गिर जाती हैं. जिसे कुछ लोग हवन पूरा होने के बाद उठाकर हवन कुंड में डाल देते हैं. ऐसा करना वर्जित माना गया हैं.
हवन कुंड की ऊपर की सीढि पर अगर हवन सामग्री गिर गई हैं तो उसे आप हवन कुंड में दुबारा डाल सकते हैं.
इसके अलावा दोनों सीढियों पर गिरी हुई हवन सामग्री वरुण देवता का हिस्सा होती हैं इसलिए इस सामग्री को उन्हें ही अर्पित कर देना चाहिए।


तांत्रिक हवन कुंड
वैदिक हवन कुंड के अलावा तांत्रिक हवन कुंड में भी कुछ यंत्रों का प्रयोग किया जाता हैं. *तांत्रिक हवन करने के लिए आमतौर पर त्रिकोण कुंड का प्रयोग किया जाता हैं.
हवन कुंड के प्रकार
हवन कुंड कई प्रकार के होते हैं. जैसे कुछ हवन कुंड वृताकार के होते हैं तो कुछ वर्गाकार अर्थात चौरस होते हैं. कुछ हवन कुंडों का आकार त्रिकोण तथा अष्टकोण भी होता हैं.
आहुति के अनुसार हवन कुंड बनवायें
१. अगर अगर आपको हवन में 50 या 100 आहुति देनी हैं तो कनिष्ठा उंगली से कोहनी (1 फुट से 3 इंच )तक के माप का हवन कुंड तैयार करें.
२. यदि आपको 1000 आहुति का हवन करना हैं तो इसके लिए एक हाथ लम्बा (1 फुट 6 इंच ) हवन कुंड तैयार करें.
३. एक लक्ष आहुति का हवन करने के लिए चार हाथ (6 फुट) का हवनकुंड बनाएं.
४. दस लक्ष आहुति के लिए छ: हाथ लम्बा (9 फुट) हवन कुंड तैयार करें.
५. कोटि आहुति का हवन करने के लिए 8 हाथ का (12 फुट) या 16 हाथ का हवन कुंड तैयार करें.*
६. यदि आप हवन कुंड बनवाने में असमर्थ हैं तो आप सामान्य हवन करने के लिए चार अंगुल ऊँचा, एक अंगुल ऊँचा, या एक हाथ लम्बा – चौड़ा स्थण्डिल पीली मिटटी या रेती का प्रयोग कर बनवा सकते हैं.
७. इसके अलावा आप हवन कुंड को बनाने के लिए बाजार में मिलने वाले ताम्बे के या पीतल के बने बनाए हवन कुंड का भी प्रयोग कर सकते हैं.
शास्त्र के अनुसार इन हवन कुंडों का प्रयोग आप हवन करने के लिए कर सकते हैं.
पीतल या ताम्बे के ये हवन कुंड ऊपर से चौड़े मुख के और नीचे से छोटे मुख के होते हैं. इनका प्रयोग अनेक विद्वान् हवन – बलिवैश्व – देव आदि के लिए करते हैं.
८. भविषयपुराण में 50 आहुति का हवन करने के लिए मुष्टिमात्र का निर्देश दिया गया हैं. भविष्यपूराण में बताये गए इस विषय के बारे में शारदातिलक तथा स्कन्दपुराण जैसे ग्रन्थों में कुछ मतभेद मिलता हैं।


हवन के नियम
वैदिक या तांत्रिक दोनों प्रकार के मानव कल्याण से सम्बन्धित यज्ञों को करने के लिए हवन में “मृगी” मुद्रा का इस्तेमाल करना चाहिए.
१. हवन कुंड में सामग्री डालने के लिए हमेशा शास्त्रों की आज्ञा, गुरु की आज्ञा तथा आचार्यों की आज्ञा का पालन करना चाहिए.
२. हवन करते समय आपके मन में यह विश्वास होना चाहिए कि आपके करने से कुछ भी नहीं होगा. जो होगा वह गुरु के करने से होगा.
३. कुंड को बनाने के लिए अड़गभूत वात, कंठ, मेखला तथा नाभि को आहुति एवं कुंड के आकार के अनुसार निश्चित किया जाना चाहिए.
४. अगर इस कार्य में कुछ ज्यादा या कम हो जाते हैं तो इससे रोग शोक आदि विघ्न भी आ सकते हैं.
५. इसलिए हवन को तैयार करवाते समय केवल सुन्दरता का ही ध्यान न रखें बल्कि कुंड बनाने वाले से कुंड शास्त्रों के अनुसार तैयार करवाना चाहिए
हवन करने के फायदे
१. हवन करने से हमारे शरीर के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं.
२. हवन करने से आस – पास का वातावरण शुद्ध हो जाता हैं.
३. हवन ताप नाशक भी होता हैं.
४. हवन करने से आस–पास के वातावरण में ऑक्सिजन की मात्रा बढ़ जाती हैं.
हवन से सम्बंधित कुछ आवश्यक बातें
अग्निवास का विचार
तिथि वार के अनुसार अग्नि का वास पृथ्वी,आकाश व पाताल लोक में होता है। पृथ्वी का अग्नि वास समस्त सुख का प्रदाता है लेकिन आकाश का अग्नि वास शारीरिक कष्ट तथा पाताल का धन हानि कराता है। इसलिये नित्य हवन, संस्कार व अनुष्ठान को छोड़कर अन्य पूजन कार्य में हवन के लिये अग्निवास अवश्य देख लेना चाहिए।
हवन कार्य में विशेष सावधानियां
मुँह से फूंक मारकर, कपड़े या अन्य किसी वस्तु से धोक देकर हवन कुण्ड में अग्नि प्रज्ज्वलित करना तथा जलती हुई हवन की अग्नि को हिलाना - डुलाना या छेड़ना नही चाहिए
हवन कुण्ड में प्रज्ज्वलित हो रही अग्नि शिखा वाला भाग ही अग्नि देव का मुख कहलाता है। इस भाग पर ही आहुति करने से सर्वकार्य की सिद्धि होती है।
अन्यथा कम जलने वाला भाग नेत्र - यहाँ आहुति डालने पर अंधापन,
धुँआ वाला भाग नासिका - यहां आहुति डालने से मानसिक कष्ट,
अंगारा वाला भाग मस्तक - यहां आहुति डालने पर धन नाश तथा काष्ठ वाला भाग अग्नि देव का कर्ण कहलाता है।
यहां आहुति करने से शरीर में कई प्रकार की व्याधि हो जाती है। हवन अग्नि को पानी डालकर बुझाना नही चाहिए।
विशेष कामना पूर्ति के लिये अलग अलग होम सामग्रियों का प्रयोग भी किया जाता है।
सामान्य हवन सामग्री ये है
तिल, जौं, चावल, सफेद चन्दन का चूरा, अगर, तगर, गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र, पानड़ी, लौंग, बड़ी इलायची, गोला, छुहारे, सर्वोषधि, नागर मौथा, इन्द्र जौ, कपूर काचरी, आँवला, गिलोय, जायफल, ब्राह्मी तुलसी किशमिश, बालछड़, घी आदि ......
हवन समिधाएँ'
कुछ अन्य समिधाओं का भी वाशिष्ठी हवन पद्धति में वर्णन है । उसमें ग्रहों तथा देवताओं के हिसाब से भी कुछ समिधाएँ बताई गई हैं। तथा विभिन्न वृक्षों की समिधाओं के फल भी अलग-अलग कहे गये हैं।
यथा-नोः पालाशीनस्तथा। खादिरी भूमिपुत्रस्य त्वपामार्गी बुधस्य च॥ गुरौरश्वत्थजा प्रोक्त शक्रस्यौदुम्बरी मता । शमीनां तु शनेः प्रोक्त राहर्दूर्वामयी तथा॥ केतोर्दभमयी प्रोक्ताऽन्येषां पालाशवृक्षजा॥
आर्की नाशयते व्याधिं पालाशी सर्वकामदा। खादिरी त्वर्थलाभायापामार्गी चेष्टादर्शिनी। प्रजालाभाय चाश्वत्थी स्वर्गायौदुम्बरी भवेत। शमी शमयते पापं दूर्वा दीर्घायुरेव च । कुशाः सर्वार्थकामानां परमं रक्षणं विदुः । यथा बाण हारणां कवचं वारकं भवेत । तद्वद्दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारिका॥ यथा समुत्थितं यन्त्रं यन्त्रेण प्रतिहन्यते । तथा समुत्थितं घोरं शीघ्रं शान्त्या प्रशाम्यति॥
अब समित (समिधा) का विचार कहते हैं,
सूर्य की समिधा मदार की,
चन्द्रमा की पलाश की,
मङ्गल की खैर की,
बुध की चिड़चिडा की,
बृहस्पति की पीपल की,
शुक्र की गूलर की,
शनि की शमी की,
राहु दूर्वा की, और
केतु की कुशा की समिधा कही गई है ।
इनके अतिरिक्त देवताओं के लिए पलाश वृक्ष की समिधा जाननी चाहिए ।
मदार की समिक्षा रोग को नाश करती है
पलाश की सब कार्य सिद्ध करने वाली,
पीपल की प्रजा (सन्तति) काम कराने वाली,
गूलर की स्वर्ग देने वाली,
शमी की पाप नाश करने वाली
दूर्वा की दीर्घायु देने वाली और
कुशा की समिधा सभी मनोरथ को सिद्ध करने वाली होती है।
जिस प्रकार बाण के प्रहारों को रोकने वाला कवच होता है, उसी प्रकार दैवोपघातों को रोकने वाली शान्ति होती है। जिस प्रकार उठे हुए अस्त्र को अस्त्र से काटा जाता है, उसी प्रकार (नवग्रह) शान्ति से घोर संकट शान्त हो जाते हैं।
ऋतुओं के अनुसार समिधा के लिए इन वृक्षों की लकड़ी विशेष उपयोगी सिद्ध होती है।
१. वसन्त-शमी
२. ग्रीष्म-पीपल
३. वर्षा-ढाक, बिल्व
४. शरद-पाकर या आम
५. हेमन्त-खैर
६. शिशिर-गूलर, बड़
यह लकड़ियाँ सड़ी घुनी, गन्दे स्थानों पर पड़ी हुई, कीडे़-मकोड़ों से भरी हुई न हों, इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए
विभिन्न हवन सामग्रियाँ और समिधाएं विभिन्न प्रकार के लाभ देती हैं। विभिन्न रोगों से लड़ने की क्षमता देती हैं।
प्राचीन काल में रोगी को स्वस्थ करने हेतु भी विभिन्न हवन होते थे। जिसे वैद्य या चिकित्सक रोगी और रोग की प्रकृति के अनुसार करते थे पर कालांतर में ये यज्ञ या हवन मात्र धर्म से जुड़ कर ही रह गए और इनके अन्य उद्देश्य लोगों द्वारा भुला दिए गये।
सर भारी या दर्द होने पर किस प्रकार हवन से इलाज होता था इस श्लोक से देखिये
श्वेता ज्योतिष्मती चैव हरितलं मनःशिला।। गन्धाश्चा गुरुपत्राद्या धूमं मुर्धविरेचनम्।।
(चरक सू* 5/26-27)
अर्थात:--
अपराजिता, मालकांगनी, हरताल, मैनसिल, अगर तथा तेज़पात्र औषधियों को हवन करने से शिरो विरेचन होता है।
परन्तु अब ये चिकित्सा पद्धति विलुप्त प्राय हो गयी है।
पंडित दयानंद शास्त्री

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