नेहरू का नार्सीसिज्म है सीमा विवाद की जड़

नेहरू का नार्सीसिज्म है सीमा विवाद की जड़

शत्रु देश चीन व पाकिस्तान को लेकर नेहरू—गांधी परिवार की भूमिका संदिग्ध- हरीश चंद्र श्रीवास्तव

वर्तमान की व्याख्या इतिहास के बिना नहीं हो सकती। लद्दाख में सीमा पर भारतीय सेना और चीनी सेना के बीच तनाव, झड़प और उसके बाद देश के भीतर के राजनीतिक घटनाक्रम ने फिर से इतिहास के प्रश्नों को फिर ला खड़ा किया है, जिसका उत्तर देश की जनता को मिलना चाहिये। जिस प्रकार देश के राजनीतिक दलों ने इस समस्या को देखा है और व्यवहार किया है, उससे किसे कितना राजनीतिक लाभ या हानि होगी, यह तो समय बतायेगा। विशेषकर कांग्रेस पार्टी और उसके नेता राहुल गांधी किंतु समस्या को एकांगी दृष्टि से दिखाकर भ्रम फैलाने के प्रयास फिर करने लगे हैं।ठीक वैसे ही जैसे कि राफेल सौदे को लेकर कुप्रचार का अभियान चलाया गया था और अंत में यह अभियान झूठ का पुलिंदा निकला।

ऐसे में देश के लिये यह जानना आवश्यक है कि इस विवाद की जड़ क्या है और अतीत व वर्तमान के मध्य क्या संबंध है। क्योंकि इस संबंध को समझे बिना इसके समाधान की दृष्टि नहीं मिल सकती। भारत और चीन के बीच विवाद आज का नहीं है। इसका बीजारोपण तो तभी हो गया था जब तिब्बत पर चीन के आक्रमण को रोकने का प्रयास नहीं किया गया, तिब्बत को बचाने का प्रयास नहीं किया गया। ऐसा हुआ होता तो हमारी सीमा विवादित नहीं होती, वरन् जैसे भौगौलिक रूप से परिभाषित थी वैसे ही बनी रहती। पर ऐसा क्यों नहीं हुआ, इसके लिये हमें विवाद के इतिहास को खंगालना पड़ेगा और इतिहास से जब भी संवाद होगा तो निकलकर आयेगा इस समस्या के जनक देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू हैं।
स्वतंत्रता के पश्चात प्रधानमंत्री का पद मिलते ही नेहरू में एक विचित्र कल्पनावादी धुन सवार हो गयी और वे भारत की नीति—रीति, प्राचीन गौरव, सुरक्षा, सीमा आदि को लेकर एक नार्सीसिस्ट जैसा व्यवहार करने लगे। इसी नार्सीसिज्म के रोग के कारण पाकिस्तान और चीन को लेकर उनकी नीति और व्यवहार दोनों अव्यवहारिक, अनुपयुक्त और भारतीय हितों के प्रतिकूल रही।
जब 1948 में कश्मीर पर कबीलाइयों के वेश में पाकिस्तान का हमला हुआ तो सेना भेजने से मना कर दिया। धन्य हो सरदार बल्लभ भाई पटेल का जिन्होंने नेहरू से विद्रोह करके सेना भेजी और पाकिस्तान के आक्रमण को विफल किया। यद्यपि तब तक विलंब हो चुका था और कश्मीर का बड़ा भाग जो आज पीओके और चीन के कब्जे वाला कश्मीर है, वह भारत से जा चुका था। भारत को हानि पहुंचाने वाला नेहरू का सबसे बड़ा नार्सीसिस्ट लक्षण तब दिखा जब नेहरू ने भारत के लिये सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का प्रस्ताव ठुकरा कर चीन को स्थायी सदस्य बनवाया। कांग्रेस के ही नेता व संयुक्त राष्ट्र के अवर महासचिव रह चुके शशि थरूर ने 10 जनवरी, 2004 को हिंदू समाचार पत्र को दिये गये साक्षात्कार में बताया था कि नेहरू ने 1953 में सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता को ठुकराते हुए कहा था कि यह चीन को दिया जाये। जबकि अमेरिका, रूस सहित सभी बड़े देश चीन को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं बनाना चाहते थे, वे भारत को स्थायी सदस्य बनाना चाहते थे।
यह शोध का विषय है कि चीन के शत्रुतापूर्ण व्यवहार के बाद भी नेहरू की उससे सांठगांठ जैसा व्यवहार क्यों था। जब चीन ने अक्साई हिंद (अक्साई चिन) पर कब्जा कर लिया तो नेहरू ने चीन के उस कुकृत्य पर पर्दा डालते हुए संसद में निर्लज्जतापूर्वक कहा था कि वह बंजर भूमि है, चला गया तो क्या हो गया। नेहरू ही थे, जिन्होंने जब 1948 में कश्मीर पर कबीलाइयों के वेश में पाकिस्तान का हमला हुआ तो सेना भेजने से मना कर दिया। गृह मंत्री के रूप में सरदार बल्लभ भाई पटेल ने नेहरू से विद्रोह करके सुरक्षा बल लगाये और पाकिस्तान को रोका। यद्यपि इसके बाद नेहरू को भी अनिच्छापूर्वक सेना भेजनी पड़ी, किंतु तब तक विलंब हो चुका था और कश्मीर का बड़ा भाग जो आज पीओके और चीन के कब्जे वाला कश्मीर है, वह भारत से जा चुका था। कश्मीर प्रकरण को अनावश्यक रूप से संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर नेहरू ने जानबूझकर इसे विवादित बना दिया। जबकि पूरा विश्व मानता था कि कश्मीर का कोई विवाद है ही नहीं और पूरा कश्मीर भारत का है।
क्या नेहरू का चीन व पाकिस्तान से यह आत्मघाती लगाव किसी षडयंत्र का संकेत करता है? जैसा कि सर्वविदित है कि भारत के लिये रणनीतिक रूप से तिब्बत का महत्व था, किंतु 1950 में जब चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया तो प्रतिरोध करने के बजाय नेहरू उस आक्रमणकारी चीनी सेना के रसद के लिये भारत से चावल भेज रहे थे। जबकि यदि भारत की स्वतंत्रता से पूर्व देखें तो रियासत काल में महाराजा की ओर जम्मू—कश्मीर व तिब्बत के लिये एक ही मुद्रांक निर्गत होता था। इससे सिद्ध होता है कि तिब्बत अखंड भारत का सांस्कृतिक भाग था। इस कारण भी तिब्बत को चीन के आक्रमण से बचाने का प्रयास करने का दायित्व भारत का था। भारत में जब नेहरू के इस अपराध पर प्रश्न उठा तो उन्होंने चीन में भारत के राजदूत के.एम. पणिक्कर से कहलवा दिया कि इसकी पुष्टि नहीं हुई है कि तिब्बत में चीन की सेना है। पटेल जी ने चीन को लेकर नेहरू को पत्र लिखकर आगाह भी किया कि भारत की सुरक्षा के लिये तिब्बत का स्वतंत्र और मित्रवत होना आवश्यक है। पटेल जी ने इसी पत्र में नेहरू को चेताया भी कि जिस चीन के प्रति वो इतना प्रेम दर्शा रहे हैं, वह मित्रता का सम्मान नहीं करता है। किंतु उन्होंने अनसुना कर दिया और पत्र के उत्तर में लिखा कि हम अहिंसा से उत्तर देंगे, और इस प्रकार तिब्बत को चीन को दे दिया। जबकि चीन की तुलना में भारत की शक्ति उस समय बहुत अच्छी थी और भारत चाहता तो तिब्बत पर चीन के कब्जे को रोक सकता था।
चीन की साम्राज्यवादी, आक्रामक व विस्तार नीति एवं भारत के प्रति शत्रुता 1949 से स्पष्ट होती रही है। इसको लेकर समय—समय पर तत्कालीन भारतीय नेता नेहरू को आगाह भी करते रहे, पर वे अपनी धुन में रहे। नेहरू देश की सेना को न तो अस्त्र—शस्त्र से सुदृढ़ करना चाहते थे और न ही सीमाओं की खतरनाक स्थिति पर कदम उठाना चाहते थे। इस परिणाम यह हुआ कि 1962 में चीन ने फिर पीठ में छुरा भोंका और भारत व चीन युद्ध हुआ। यह तथ्य अब सर्वविदित है कि उस समय भी भारतीय सेना चीन को पराजित करने की क्षमता में थी, लेकिन नेहरू ने युद्ध में भारतीय वायु सेना को चीन पर आक्रमण करने की अनुमति नहीं दी और एक प्रकार से चीन को भारत का भूभाग कब्जा करने के लिये सुविधाजनक स्थिति बना दी। इस संबंध में अनेक सैन्य इतिहासकारों ने लिखा भी है। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं? इस उत्तर देश को मिलना चाहिये। क्यों उनकी इस सनक का परिणाम देश को आज तक भोगना पड़ रहा है।
ऐसा नहीं था कि नेहरू के जाने के बाद देश की सुरक्षा को लेकर नीति व कार्यप्रणाली ठीक कर ली गयी। लाल बहादुर शास्त्री जी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भारत की सीमाओं की सुरक्षा और भारतीय सेना को शक्तिशाली बनाने का काम शुरू किया और उसका परिणाम था कि 1965 के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को धूल चटा दी। किंतु लाल बहादुर शास्त्री की संदिग्ध मृत्यु हो गयी, जिसे हत्या भी कहा जाता है और इसकी जांच की मांग निरंतर होती रही है। इसके बाद जैसे ही फिर से नेहरू परिवार के हाथ में देश की कमान आई, देश की सुरक्षा को लेकर लापरवाही व गलत नीतियां प्रारंभ हो गयीं। इसका उदाहरण यह है कि 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध में पराक्रमी भारतीय सेना ने पाकिस्तान के 93000 से अधिक सैनिकों का आत्मसमर्पण कराकर उन्हें बंदी बनाया। किंतु सेना के विरोध के बाद भी इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के साथ भारत विरोधी शिमला समझौता किया। इंदिरा चाहतीं तो उसी समय पीओके खाली कराकर तब उन सैनिकों को छोड़तीं। पर इंदिरा ने इसके बजाय और खतरनाक काम किया कि जिस अंतर्राष्ट्रीय नियमों के अंतर्गत पीओके में पाकिस्तान को एक पुलिस भी रखने की अनुमति नहीं थी, वहां पर यह कहकर उसे पाकिस्तान को दे दिया कि जब तक विवाद का निपटारा नहीं हो जाता, तब तक पाकिस्तानी सेना को पीओके में रहने और उसकी देखभाल की अनुमति रहेगी। इसके बाद ही पाकिस्तान ने पीओके में अपनी सेना रखकर उस पर कब्जा किया। जबकि पीओके भारत की सुरक्षा के लिये रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण था।
इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भी 1988 में चीन से पींगे बढ़ाकर तुष्टिकरण प्रारंभ कर दिया। राजीव गांधी के इस एकतरफा प्रेम पर अनेक रक्षा विशेषज्ञों ने चेताया था कि चीन को लेकर कांग्रेसी सरकारों की नीतियों से देश की सुरक्षा भयानक खतरे में पड़ेगी और अंतत: यही हुआ। कांग्रेस की सरकारें जब भी आयीं तो पाकिस्तान और चीन को लेकर देश की सुरक्षा से संबंधित नीतियां लचर कर दी गयीं। अटल जी की सरकार ने सेना को शक्तिशाली बनाने और देश को सुरक्षित करने के लिये सीमाओं पर ढांचागत विकास का कार्य युद्धस्तर पर प्रांरभ किया। किंतु दुर्भाग्य यह रहा कि 2008 उनकी सरकार चली गयी और कांग्रेस नीत यूपीए की सरकार आ गयी और सेना के सुदृढ़ीकरण व सीमाओं पर ढांचागत विकास के अटल जी के कार्यकाल की योजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
इन तथ्यों को देखते हुए स्पष्ट है कि वर्तमान में सीमा पर जो स्थिति बनी है, उसकी जिम्मेदार कांग्रेस और गांधी परिवार रहा है। गांधी परिवार जिम्मेदार इसलिये कहा जायेगा, क्योंकि कांग्रेस की सरकारों के अधिकांश मुखिया नेहरू परिवार से कोई न कोई हुआ है। यहां तक कि 2008 में कांग्रेस की यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री भले ही डॉ मनमोहन सिंह बनाये गये थे, पर अनैतिक रूप से राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन कर उसकी मुखिया के रूप में सोनिया गांधी को एक प्रकार से 'सुपर प्रधानमंत्री' बनाया गया था। संसद में जिस प्रकार नेहरू—गांधी परिवार के राहुल गांधी ने मनमोहन सिंह सरकार के अध्यादेश को फाड़ा था, उसे पूरे देश ने देखा था और सरकार में नेहरू परिवार की हैसियत का अंदाजा उससे लगाया जा सकता था।
तो फिर नेहरू परिवार को प्रभाव वाली कांग्रेस की सरकार आते ही फिर वही होने लगा, जिसका डर था। पाकिस्तान और चीन दोनों को लेकर सरकार की नीति शिथिल और उपेक्षापूर्ण होने लगी। कांग्रेस पर भारत को असुरक्षित बनाने का आरोप यूं ही नहीं लगता। सितम्बर 2013 में यूपीए के तत्कालीन रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने संसद में कहा था, स्वतंत्र भारत लंबे समय तक इस नीति पर चलता रहा कि सर्वोत्तम रक्षा उपाय सीमा को अविकसित रखना है। अविकसित सीमा विकसित सीमाओं से अधिक सुरक्षित है, इस कारण सीमावर्ती क्षेत्रों में कोई सड़क नहीं बनी, हवाईपट्टी नहीं बनी, जबकि चीन सैन्य सुदृढ़ता के लिये सीमावर्ती क्षेत्रों में निरंतर ढांचागत विकास करता रहा। सीमा पर चीन ढांचागत विकास वार भारत से बहुत आगे है। यह बात किसी और ने कही होती तो संशय भी होता, किंतु कांग्रेस के ही सदस्य और रक्षामंत्री यह कह रहा है तो इससे संदेह के बादल छंट जाते हैं कि सीमा पर आज की स्थिति के जिम्मेदार कांग्रेस से भी अधिक नेहरू—गांधी परिवार है। अनेक अवसरों पर नेहरू—गांधी परिवार का चीन के साथ संबंधों व आचरणों से यह बात सिद्ध होती है।
कांग्रेस सरकारों में चीन और पाकिस्तान की ओर से खतरों की उपेक्षा क्यों हुई, इसका उत्तर देश को मिलना चाहिये। कांग्रेस से यह भी पूछा जाना चाहिये कि अटल जी द्वारा सैन्य सुदृढ़ीकरण व सीमा पर ढांचागत विकास के कार्यों में बाधा क्यों पहुंचायी और स्वतंत्रता के 70 वर्ष बीतने के बाद आज नरेन्द्र मोदी की सरकार को सीमावर्ती क्षेत्रों में सैन्य गतिविधियों के लिये ढांचागत कार्य कराने की आवश्यकता क्यों पड़ी, जबकि यह कार्य स्वतंत्रता के तुरंत बाद प्रारंभ हो जाना चाहिये था।
कांग्रेस के शासन में चाइना निरंतर अतिक्रमण करता रहा, लेकिन तब दिल्ली के लोग सेना को कार्रवाई का आदेश ही नहीं देते थे। चीन ने नेहरू की कृपा से 1962 में अक्साई हिंद (अक्साई चिन)का 37244 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र हड़प लिया। यूपीए के कार्यकाल में 2008 में चीन ने चुरमुर क्षेत्र में पैंगोंग झील व छबजी घाटी का 250 किलोमीटर लंबा क्षेत्र कब्जा लिया। कांग्रेस के ही समय 2008 में चीनी सेना ने जरावार दुर्ग नष्ट कर दिया और कांग्रेस की यूपीए के दूसरे कार्यकाल में 2012 में यहां पर अपना निगरानी पॉइंट बना दिया। कांग्रेस की यूपीए के समय 2008—09 में दुंगती और देमजाक के बीच दूम चेले(प्राचीन व्यापारिक क्षेत्र) पर कब्जा कर लिया। लेकिन कांग्रेस चीन को अपना भूभाग सौंपती रही, सेना को कमजोर करती रही और सेना के हाथ बांध दिये।
ऐसा केवल कांग्रेस पार्टी की नीतियों से हुआ होगा, इस पर भी संशय होता है। क्योंकि नेहरू—गांधी परिवार और चीन के बीच रिश्ते को लेकर कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिससे सीधे इस परिवार पर उंगली उठती है। चीन कभी भारत का मित्र देश नहीं रहा है, किंतु फिर भी अगस्त 2008 में कांग्रेस पार्टी और चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ अनोखा पैक्ट किया। यह विश्व का अनोखा प्रकरण है, क्योंकि समझौता दो देशों के बीच होता है, न कि पार्टियों के बीच। पर भारत की कांग्रेस पार्टी ने शत्रु देश की तानाशाह पार्टी से समझौता किया। सोनिया गांधी और चीन के तत्कालीन उपराष्ट्रपति और आज के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की उपस्थिति में कांग्रेस के तत्कालीन महासचिव राहुल गांधी और चीन के मंत्री वैंग जिया रूयी ने पैक्ट पर हस्ताक्षर किये। कांग्रेस पार्टी ने भारत विरोधी तुर्की के साथ इसी प्रकार का पैक्ट किया। जब चीन के साथ डोकलाम विवाद चरम पर था और भारत की सेना चीन की सेना को पीछे हटने पर विवश कर रही थी तो उसी समय राहुल गांधी गुप्त रूप से चीन सरकार के नेताओं के साथ बैठक करने गये थे। जिसका भेद खुल गया तो पहले कांग्रेस ने ऐसी कोई बैठक होने की सच्चाई को ही नकार दिया और जब प्रमाण सहित भेद खुला तो निर्लज्जता से कांग्रेस ने इस गुप्त बैठक के होने के स्वीकार किया। भारत की सार्म्थ्यवान व शक्तिशाली सेना ने पाकिस्तान में घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक व एयर स्ट्राइक की तो कांग्रेस और राहुल गांधी ने इसे झुठलाकर पाकिस्तान के पक्ष में बयान दिये। क्या कारण है कि 2008 बीजिंग ओलम्पिक में किसी पद पर न होकर भी सोनिया गांधी, राहुल गांधी परिवार सहित चीन सरकार के व्यक्तिगत अतिथि के रूप में बुलाये गये, सम्मिलित हुए? भारत के किसी और राजनीतिक घराने के लोगों को तो चीन ने आज तक कभी नहीं बुलाया। शत्रु देशों से नेहरू—गांधी परिवार के क्या संबंध हैं और क्यों हैं, इसका रहस्य खुलना चाहिये।
आज एक—एक इंच के लिये भारत लड़ रहा है और बचा रहा है। चाहे डोकलाम रहा हो या आज लद्दाख, चीनी सेना एक इंच आगे नहीं बढ़ पा रही है और चीन का कष्ट यही है कि कांग्रेस के समय वह जब चाहे और जितना चाहे कब्जा कर लेती थी। पर आज नरेन्द्र मोदी की सरकार है और सेना को साजोसामान के साथ शक्तिशाली बनाने के साथ शत्रु से निपटने की पूरी छूट दी गयी है, जिससे चीन का वश नहीं चल रहा। पर प्रश्न फिर वही है कि जब पूरे देश को अपनी सेना पर विश्वास है और मोदी सरकार देश को नहीं झुकने देगी, इसका विश्वास है तो नेहरू परिवार की कांग्रेस के सोनिया गांधी व राहुल गांधी के बयान आज फिर शत्रु देशों की सहायता करने वाले, देश में भ्रम फैलाने वाले और भारतीय सेना के पराक्रम को अपमानित करने वाले क्यों हैं? क्या कांग्रेस के लिये एक परिवार की महत्वाकांक्षा देश से बड़ी है या फिर इसमें भी देश के विरुद्ध नेहरू—गांधी परिवार का कोई षडयंत्र है?

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