सत्ता अहंकार, पैदा करती है और राजनीति व्यक्ति को प्रायः बहिर्मुखी बनाती है

सत्ता अहंकार, पैदा करती है और राजनीति व्यक्ति को प्रायः बहिर्मुखी बनाती है

स्नेह एवं सौजन्य की छांह देने वाला बरगद
-ललित गर्ग-

राजस्थान की माटी महाजन, महाधन एवं महाकर्म व्यक्तियों से सुशोभित होती रही है। राजस्थान के सुजानगढ़ में जन्में एवं कोलकता, मुंबई एवं दिल्ली में कर्म करते हुए समृद्धि के उच्चे शिखरों पर सवार होकर भी अकिंचन का परोपकारी एवं धार्मिक जीवन जीने वाले श्री फतेहचन्दजी भंसाली न केवल तेरापंथ समाज बल्कि सम्पूर्ण जैन समाज-मारवाडी समाज के एक अनमोल रत्न थे, जिनकी प्रथम पुण्यतिथि 2 अगस्त, 2020 पर उनका पावन स्मरण उन मूल्यों का स्मरण हैं जिन्हें भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्य माने गये हैं। ये मूल्य ही जगत की स्थिति, अस्तित्व और प्रगति के आधार हैं। सत्ता और राजनीति से वे सदा दूर रहे। सत्ता अहंकार, पैदा करती है और राजनीति व्यक्ति को प्रायः बहिर्मुखी बनाती है। ये दोनों चीजें मनुष्य का उत्थान नहीं, अपकर्ष करती हैं। फतेहचंदजी भंसाली ने सादगी और सरलता का जीवन अपनाया और दंभ तथा लिप्सा से मुक्त रहकर अपना जीवन यात्रा पूर्ण की। आत्मार्थी व्यक्ति कभी मताग्रही नहीं होता। वह उस धर्म को मानता है, जो तोड़ता नहीं, जोड़ता है। वे समन्वयवादी, स्थितप्रज्ञ, उदारमना व्यक्तित्व थे।
फतेहचंदजी भंसाली का संपूर्ण जीवन प्रेरणा की एक अनुकरणीय मिसाल है, यह मन के द्वार पर बजती हुई झंकार है, स्मृतियों में महकती ज्योति शिखा है, यह ऊर्जा की हिमालयी मुस्कान है, हमारे जीवन की पगडंडी पर रखा यह दीप है। यह जलता हुआ दीप एवं खिलता हुआ गुलाब हमें पर पल आपकी स्मृतियों में, आपके संस्कारों में ढलने की प्रेरणा देता है। आपके जीवन से जुड़ी हर घटना की याद हमें गौरवान्वित करती है। यह आपकी परोपकार भावना, गुरुभक्ति, समर्पण एवं आध्यात्मिक संस्कारों का ही परिणाम है कि आपने एक बार नहीं, अनेकों बार नये इतिहास का सृजन किया है, यह इतिहास की एक दुर्लभ घटना है कि इतने बड़े तेरापंथ धर्मसंघ में आप ही एक ऐसे श्रावक थे जिन्हें तीन-तीन आचार्यों आचार्य श्री तुलसी, आचार्य श्री महाप्रज्ञ और आचार्य महाश्रमण का और सैकड़ों चारित्रात्माओं का वात्सल्य, विशेष कृपा एवं गुरु प्रसाद प्राप्त हुआ। ढ़ाई सौ साल के तेरापंथ के इतिहास में आप ही एकमात्र ऐसे श्रावक कहलाए, जिन पर तीन-तीन आचार्यों ने विशेष अनुकंपाएं बरसाई थी। गुरु और श्रावक का यह अनमोल रिश्ता महज एक परम्परा नहीं, यह श्रद्धा और समर्पण का, भक्ति और निष्ठा का, विश्वास और समझ का, अनुग्रह और कृतज्ञता का अनूठा इतिहास बना, जिसे जीकर आपने श्रावकत्व को ऊंचाइयां और गहराइयां दी थी।
धार्मिक और सांस्कृतिक नगरी सुजानगढ में फतेहचंदजी भंसाली का जन्म 6 नवम्बर 1929 को अपने ननिहाल में मातुश्री झमकूदेवी की कुक्षी से हुआ। आपके दादा श्री मोहनलालजी एवं पिताश्री लिखमीचंदजी भंसाली तेरापंथ समाज के एक विशिष्ट एवं समर्पित श्रावक थे। उनका 2 अगस्त 2019 की मध्यरात्रि में मुंबई में 7 मिनट के संथारे में समाधिमरण हुआ। इस तरह उन्होंने अपनी मृत्यु को भी महोत्सव का रूप दिया। वे न बड़े राजनेता थे, न विशिष्ट धार्मिक नेता थे और न ही समाजनेता ही थे। पर उनमें गुरु-भक्ति की ऐसी लगन रही कि उन्हें तेरापंथ के इतिहास में विरल श्रावक होने का गौरव प्राप्त हुआ। वे स्नेह एवं सौजन्य की छांह देने वाले बरगद थे तो गहन मानवीय चेतना के चितेरे थे।
फतेहचंदजी भंसाली के लिए जीने का नाम और सिद्धान्त भी गहन रहा है जिसमें उनका दिल और द्वार सदा और सभी के लिये खुला रहा अनाकांक्ष भाव से जैसे यह उनके स्वभाव का ही एक अंग हो। वे कैसी भी स्थिति क्यों न हो, खुश रहने का संदेश देते रहे हैं। क्योंकि दुखी होने से कुछ भी हासिल नहीं होता। साथ-ही-साथ वे इस तरह जीवन जीते रहे कि आपको महसूस होगा कि जीवन में खुशी, सफलता, प्यार, अपनापन और गुरुनिष्ठा पाने के लिए सही नजरिए का होना बहुत जरूरी है। उनका जीवन हमें बताता है कि किस प्रकार अपने रिश्तों को- चाहे वे पति-पत्नी, बच्चों, ससुराल पक्ष, नाती-पोतों या फिर गुरुओं के साथ ही क्यों न हो, खुशहाल बना सकते हैं।
फतेहचंदजी भंसाली पर सातों सुखों का वास रहा। पहला सुख निरोगी काया, दूसरा सुख घर में माया, तीसरा सुख सुखद पारिवारिक साया, चैथा सुख आज्ञाकारी पुत्र, पांचवां सुख गुरु का साया, छठा सुख सार्वजनिक प्रतिष्ठा एवं सातवां सुख व्यक्तित्व विकास। इन सातों सुखों को लेकर उनकी पौत्रवधू आरती एवं खुशबू ने ‘सातों सुख’ पुस्तक लिखी जिसका विमोचन आचार्य श्री महाश्रमणजी के सान्निध्य में केलवा (राजस्थान) में हुआ। फतेहचंदजी भंसाली न केवल तेरापंथ समाज की सामाजिक, धार्मिक संस्थाओं में सक्रियता से जुड़े रहे बल्कि अपने उदार सहयोग से इन संस्थाओं को आगे बढ़ाने में योगदान दिया है। उनकी एक विशेष रूचि समाज उपयोग के लिए बर्तनों को लेकर रही है। अपने मूल ग्राम सुजानगढ़ में दस हजार लोगों के उपयोग में आये इतना बड़ा बर्तनों का भंडार है। इसके अलावा गरीबों की सहायता, शिक्षा की रूचि, गरीब बच्चों की छात्रवृत्ति, कन्याओं के विवाह में सहयोग आदि परोपकार के कार्य आप निरंतर करते रहे हैं। शिक्षा आपके जीवन का प्रमुख ध्येय रहा है।
यही कारण है कि देश में विभिन्न स्थानों पर आपके अनुदान से अनेक शिक्षण-संस्थाएं संचालित हैं। गाजियाबाद के सूर्यनगर का प्रमुख शैक्षणिक संस्थान ‘विद्या भारती स्कूल’ आप ही के द्वारा संचालित और पोषित है। गुजरात के आदिवासी अंचल में आदिवासी बच्चों के लिये संचालित सुखी परिवार एकलव्य माॅडल आवासीय विद्यालय भी आपके ही सहयोग से निर्मित है। जैन विश्व भारती, जय तुलसी फाउण्डेशन, भिक्षु फाउण्डेशन जैसी राजस्थान की अनेक संस्थाओं में आपने समय-समय पर आर्थिक अनुदान प्रदत्त किया। निश्चित ही फतेहचंदजी भंसाली का संपूर्ण जीवन एवं उनकी गुरुभक्ति एक विरल श्रावक की जीवनगाथा है। जो सबके लिए अनुकरणीय और प्रेरक है। असल में यह एक ऐसा आदर्श जीवन है जिसके हर कोण से, हर मोड़ से, हर क्षण से, हर घटना से आदर्श जीवन जीने की एवं जीवन को प्रेरक बनाने की प्रेरणा मिलती है।
हमारे जीवन के तीन महत्वपूर्ण पक्ष हैं- सत्ता, संपदा और नैतिकता। ये तीनों ही बड़ी शक्तियां हैं। सत्ता के पास दंड की शक्ति है। संपदा के पास विनमय की शक्ति है। नैतिकता मंे आत्मविश्वास और आस्था की शक्ति है। ये तीनों शक्तियां भंसालीजी के जीवन को संचालित करती रही हैं। उनके जीवन में इनका संतुलन रहा तभी उनकी जीवन यात्रा सुगम एवं प्रेरक बनती गयी। उनका आदर्श जीवन असंख्य लोगों के लिए प्रेरणा का माध्यम बना। कैसे हमारे जीवन की सांझ सुखद, शांतिमय एवं स्वस्थ बने, इसकी प्रेरणा हमें फतेहचंदजी भंसाली के जीवन से मिलती है। उनका जीवन जहां पारिवारिक जीवन में खुशहाली का माध्यम बना तो व्यापार में उन्नति का प्रेरक भी बना। यह जीवन जहां आध्यात्मिक-धार्मिक आदर्शों की नई परिभाषाएं गढ़ता रहा वहीं सामाजिकता को उन्नति के शिखर भी देता रहा। उन्होंने जहां व्यक्तित्व विकास की नई दिशाओं को उद्घाटित किया वहीं जीवन की अनंत संभावनाओं को भी उजागर किया। जिन-जिन लोगों ने इस आदर्श व्यक्तित्व को देखा, उनका सान्निध्य पाया, वे सभी उनके निधन पर गहरी रिक्तता का अनुभव कर रहे हैं।
आज बौद्धिक और आर्थिक विकास की ओर सबका आकर्षण बढ़ रहा है। लेकिन फतेहचंदजी भंसाली बौद्धिक और आर्थिक प्रगति के साथ सद्गुणों और सत्संस्कारों का समन्वय भी किया है। उसके बिना कोई भी विकास न स्वयं के लिए कल्याणकारी होता है और न ही समाज के लिए लाभप्रद होता है। जिस प्रकार भावना की ऊंचाई के साथ गहराई का संतुलन अपेक्षित है, उसी प्रकार जीवन में बाहरी ऊंचाई के साथ गुणों और आदर्शों की गहराई भी आवश्यक है। इन्हीं गुणों की ऊंचाई और आदर्शों की गहराई फतेहचंदजी भंसाली के जीवन में परिव्याप्त रही हैं। उनके जीवन आदर्श जन-जन के लिये प्रेरक हैं। जिसमें दुनिया को जीतने, ऊर्जा से भरपूर होने, जीवन का अंदाज बदलने, नया बनने और नया सीखने, विश्वास की शक्ति को जागृत करने, विजेता की तरह सोचने, महान बनने, आत्मविश्वास-दृढ़ता को प्रगट करने, अपनी योग्यताएं बढ़ाने, व्यावसायिक श्रेष्ठता साबित करने, आध्यात्मिक गौरव पाने, वैचारिक विनम्रता को प्रगट करने की बातें समायी हुई हैं। दिल में रख लेने के काबिल इस फरिश्ते के प्रति प्रथम पुण्यतिथि पर श्रद्धा कुसुमांजलि! प्रेषकः

(ललित गर्ग)

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