रक्षाबंधन का क्या है महत्व कब आरम्भ हुआ व इस त्योहार का मतलब

रक्षाबंधन का क्या है महत्व कब आरम्भ हुआ व इस त्योहार का मतलब

क्यों मनाया जाता है रक्षाबंधन

भारत की सनातन परंपरा पर्व प्रधान है। ये पर्व सृष्टि के क्रमिक विकास के वार्षिक पड़ाव हैं। प्रति वर्ष आकर ये जीवन के विकासक्रम को संस्कारित करते हैं और आगे अपने धर्म के निर्वहन की प्रेरणा भी देते हैं। यह धर्म कोई मजहब या पंथ नहीं होता बल्कि मानव का होता है। इसमें राजा का धर्म, प्रजा का धर्म, पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, भगिनी का धर्म, भाई का धर्म, पति का धर्म, पत्नी का धर्म, बड़ों का धर्म, छोटों का धर्म आदि निहित हैं। यह जीवन की संस्कृति का निर्माण करते हैं। इन पर्वों में से ही एक महत्वपूर्ण पर्व है रक्षा सूत्र बंधन। वैसे तो यह अत्यंत पौराणिक प्रचलन का पर्व है लेकिन आजकल इसे भाई बहन के पवित्र रिश्ते के साथ जोड़ कर देखा जाता है। यह पर्व हर साल आता है और अब इसे केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में भाई बहन के त्यौहार के रूप में मनाया जाने लगा है। आइये एक दृष्टि डालते हैं इसके प्राचीन स्वरूप से लेकर ऐतिहासिक और वर्त्तमान स्वरूप पर।

रक्षा सूत्र बन्धन

यह पर्व प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं। रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्त्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बंधियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बाँधी जाती है। कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बाँधी जाती है। सभी धार्मिक अनुष्ठानों में रक्षासूत्र बाँधते समय कर्मकाण्डी पण्डित या आचार्य संस्कृत में एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

*रक्षासूत्र*

प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर लड़कियाँ और महिलाएँ पूजा की थाली सजाती हैं। थाली में राखी के साथ रोली या हल्दी, चावल, दीपक, मिठाई और कुछ पैसे भी होते हैं। लड़के और पुरुष तैयार होकर टीका करवाने के लिये पूजा या किसी उपयुक्त स्थान पर बैठते हैं। पहले अभीष्ट देवता की पूजा की जाती है, इसके बाद रोली या हल्दी से भाई का टीका करके चावल को टीके पर लगाया जाता है और सिर पर छिड़का जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है, दाहिनी कलाई पर राखी बाँधी जाती है और पैसों से न्यौछावर करके उन्हें गरीबों में बाँट दिया जाता है। भारत के अनेक प्रान्तों में भाई के कान के ऊपर भोजली या भुजरियाँ लगाने की प्रथा भी है। भाई बहन को उपहार या धन देता है। इस प्रकार रक्षाबन्धन के अनुष्ठान को पूरा करने के बाद ही भोजन किया जाता है। प्रत्येक पर्व की तरह उपहारों और खाने-पीने के विशेष पकवानों का महत्त्व रक्षाबन्धन में भी होता है। आमतौर पर दोपहर का भोजन महत्त्वपूर्ण होता है और रक्षाबन्धन का अनुष्ठान पूरा होने तक बहनों द्वारा व्रत रखने की भी परम्परा है। पुरोहित तथा आचार्य सुबह-सुबह यजमानों के घर पहुँचकर उन्हें राखी बाँधते हैं और बदले में धन, वस्त्र और भोजन आदि प्राप्त करते हैं। यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्त्व तो है ही, धर्म, पुराण, इतिहास, साहित्य और फ़िल्में भी इससे अछूते नहीं हैं।

*पौराणिक प्रसंग*

रक्षा सूत्र बंधन का त्योहार कब शुरू हुआ, इसकी कोई सटीक जानकारी नहीं मिलती लेकिन यह पर्व है अत्यंत प्राचीन, क्योंकि इसकी प्राचीनता के प्रमाण उपलब्ध हैं। भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है। भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बांधते हुए निम्नलिखित स्वस्तिवाचन किया (यह श्लोक रक्षाबन्धन का अभीष्ट मन्त्र है)-

येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।

तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥

(श्रीशुक्लयजुर्वेदीय, माध्यन्दिन वाजसनेयिनां, ब्रम्हकर्म समुच्चय पृष्ठ -295 )

इस श्लोक का हिन्दी भावार्थ है-

"जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।)"

स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा माँगने पहुँचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकनाचूर कर देने के कारण यह त्योहार बलेव नाम से भी प्रसिद्ध है।

इसे भी पढ़ें: 29 साल बाद बन रहा रक्षाबंधन पर सर्वार्थ-सिद्धि के साथ दीर्घायु आयुष्मान योग

*भागवतपुराण*

भागवतपुराण में उल्लेख है कि एक बार बाली रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान बलि को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी।

‘रक्षिष्ये सर्वतोहं त्वां सानुगं सपरिच्छिदम्।

सदा सन्निहितं वीरं तत्र मां दृक्ष्यते भवान्॥'

(श्रीमद्भागवत,स्कन्ध 8,अध्याय 23,श्लोक33)

*विष्णु पुराण*

विष्णु पुराण में एक और उल्लेख मिलता है जब विष्णु ने हयग्रीव अवतार के रूप में पृथ्वी पर विचरण किया। उस दिन भी श्रावण महीने की पूर्णिमा ही थी। विष्णु इस रूप में ब्रह्मा के लिए पुनः वेदों को उपलब्ध कराया था। हयग्रीव अवतार को विद्या और बुद्धि प्रदाता माना जाता है। उनके स्वागत में ब्रह्मा ने विष्णु का रक्षा सूत्र बाँध कर अभिनन्दन किया था। द्वापर युग में महाभारत काल में भी राखी का उल्लेख मिलता है। ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठर ने श्री कृष्ण से युद्ध भूमि में पूछा कि हम संख्या और शक्ति बल में कम होते हुए भी किस प्रकार विजय प्राप्त कर सकते हैं ? तब श्री कृष्ण ने ‘हनुमान मंत्र’ के साथ समस्त सैनिकों को परस्पर रक्षा सूत्र बाँधने का परामर्श दिया था। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है, जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। यही नहीं अर्जुन के जिस रथ को श्री कृष्ण स्वयं हाँक रहे थे उसके ऊपर भी हनुमत ध्वजा फहरा रही थी।

*महाभारत*

महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूँ तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिये राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। इस समय द्रौपदी द्वारा कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बाँधने के कई उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में ही रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तान्त भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबन्धन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ हुई।

*ऐतिहासिक प्रसंग*

*महारानी कर्मवती ने हुमायूँ को भेजी थी राखी*

राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएँ उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हें विजयश्री के साथ वापस ले आयेगा। राखी के साथ एक और प्रसिद्ध कहानी जुड़ी हुई है। कहते हैं, मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली। रानी लड़ने में असमर्थ थी अत: उसने मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेज कर रक्षा के लिए निवेदन किया था ।

*सिकंदर की पत्नी ने पोरस से लिया वचन*

एक अन्य प्रसंगानुसार सिकन्दर की पत्नी ने अपने पति के हिन्दू शत्रु पोरस को राखी बाँधकर अपना मुँहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकन्दर को न मारने का वचन लिया। पोरस ने युद्ध के दौरान हाथ में बँधी राखी और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकन्दर को जीवन-दान दिया।

*साहित्यिक प्रसंग*

अनेक साहित्यिक ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें रक्षाबन्धन के पर्व का विस्तृत वर्णन मिलता है। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है हरिकृष्ण प्रेमी का ऐतिहासिक नाटक रक्षाबन्धन जिसका 1991 में 18वाँ संस्करण प्रकाशित हो चुका है। मराठी में शिन्दे साम्राज्य के विषय में लिखते हुए रामराव सुभानराव बर्गे ने भी एक नाटक की रचना की जिसका शीर्षक है राखी उर्फ रक्षाबन्धन।

*जैन साहित्य में रक्षाबंधन*

इस दिन बिष्णुकुमार नामक मुनिराज ने 700 जैन मुनियों की रक्षा की थी। जैन मतानुसार इसी कारण रक्षाबंधन पर्व हम सब मनाने लगे व हमें इस दिन देश व धर्म की रक्षा का संकल्प लेना चाहिए।

Share this story