इतने डरे हुए हैं भाजपा के समर्थक पश्चिम बंगाल में भाजपा के समर्थक माईक लगाकर मांग रहे हैं टीएमसी से माफ़ी 

 
 

संयुक्त राष्ट्र ने चिन्ता जताई है कि जिस गति से तालिबान दोबारा पग पसार रहा है ऐसे में जल्द ही उसकी पुनस्र्थापना हो जाएगी। हम भारत के लोग अपने देश के भीतर भी इसकी आहट महसूस कर सकते हैं क्योंकि जिस तरह लोकतन्त्र को ‘संगसार’ की बलिवेदी पर चढ़ाया जा रहा है उससे जनतन्त्र हितैषी शक्तियों का चिन्तित होना स्वभाविक है। संगसार अरब देशों की वह बर्बर परम्परा है जिसमें म•ाहब द्रोही को कमर तक जमीन में गाडऩे के बाद पत्थर बरसा कर मारा जाता है। देश में इन दिनों ऐसी घटनाएं देखने को मिल रही हैं जो लोकतन्त्र के मूल पर प्राणलेवा प्रहार हैं।

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव से पहले शुरू हुई हिंसा परिणाम आने के बाद भी रुकने का नाम नहीं ले रही। ताजा मामले में सामने आया है कि हुगली में तृणमूल कांग्रेस की सांसद श्रीमती अपरूपा पोद्दार की उपस्थिति में भाजपा से जुड़े दलित समुदाय के 200 लोगों की सिर मुण्डवा और गंगाजल छिडक़र पार्टी में घर वापिसी करवाई गई। चुनावों के बाद हिंसा की तपिश न सहते हुए कई हजारों की संख्या में लोग अपने घरों से पलायन भी कर गए थे और अब वे अपमान सह कर अपने घरों को लौट रहे हैं और मजबूरीवश तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं। बताया जा रहा है कि भय का वातावरण कुछ इस तरह से है कि भाजपा के समर्थक माइक लगाकर गांवों में घूमकर तृमकां के लोगों से माफी मांगते हैं। उन्हें सरकारी सुविधाओं से वञ्चित किया जा रहा है। दूसरी तरफ केरल से समाचार आया है कि वहां वामपन्थी दबंग उन लोगों को परेशान कर रहे हैं जिन्होंने कोरोनाकाल में आगे बढ़ कर राष्ट्रवादी संगठन सेवा भारती के परचम तले देश में महामारी के खिलाफ चले मानवीय संघर्ष में देश और इन्सानियत का साथ दिया। रोचक दुर्योग यह है कि लोकतन्त्र से संगसारी की घटनाएं उन प्रदेशों में अधिक देखने को मिल रही हैं जहां सत्तारूढ़ दल प्रजातन्त्र की बलइयां लेते और नजरें उतारते नहीं थकते।

केवल राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि देश में मीडिया का भी एक वर्ग ऐसा है जिसे देख दोमुंहे भुजंगराज भी शर्म के मारे पल्लु कर लें। सैंकड़ों दलितों के अपमानजनक मुण्डन और प्रताडऩा की घटना को दाढ़ी नोचने वाली घटना के आवरण से ऐसा ढका कि देशवासियों को दलितों के सामूहिक अपमान की भनक तक नहीं लगने पाई। गाजियाबाद में एक वृद्ध व्यक्ति के साथ मारपीट की घटना सामने आई, हालांकि इसके आरोपी मुस्लिम और हिन्दू दोनों समुदायों के युवक थे परन्तु झूठ का थूक यह कह कर बिलोया गया कि मुस्लिम होने के कारण उस वृद्ध से मारपीट हुई और दाढ़ी नोची गई। सैक्युलर सिद्धान्तों की तुला में दाढ़ी के चन्द बाल सैंकड़ों दलितों के अपमानजनक मुण्डन पर भारी पड़े। दाढ़ी की मानसून ने आंसुओं की जमकर बरसात की परन्तु शर्मनाक मुण्डन के हिस्से हर बार की तरह अकाल ही आया। लोकतन्त्र के खेवनहार राजनीतिक दल और खबरपालिका के लोग इस कदर पक्षपाती हो जाएं तो इसे लोकतन्त्र का ‘संगसार’ न कहें तो क्या कहें ?

बंगाल में जारी राजनीतिक हिंसा को लेकर कलकत्ता उच्च न्यायालय ने बीते 18 जून के अपने फैसले में इन मामलों की जाञ्च आयोग से कराने का निर्देश देते हुए सरकार को इसमें सहयोग करने को कहा। इसके लिए आयोग से एक तीन-सदस्यीय समिति बनाने को कहा गया जिसमें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग,प्रदेश मानवाधिकार आयोग और राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण के एक-एक सदस्य शामिल करने के निर्देश दिए। अपना दायित्व निभाने की बजाय बंगाल सरकार ने इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका भी दायर की, लेकिन उसे खारिज करते हुए अदालत ने दोबारा से सरकार की आलोचना की। कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश श्री राजेश बिन्दल ने साफ कहा कि अदालत को इस मामले के लेकर सरकार पर भरोसा नहीं है। उन्होंने सवाल किया कि आखिर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जांच पर सरकार को आपत्ति क्यों है? अदालत ने कहा कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पास चुनावी हिंसा की 541 शिकायतें दर्ज हुई, जबकि राज्य मानवाधिकार आयोग के पास एक भी शिकायत दर्ज नहीं हुई है। चुनाव के बाद भी हिंसा जारी रहना चिन्ताजनक है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि चुनाव नतीजे के डेढ़ महीने बाद भी हिंसा के समाचार आ रहे हैं। पुलिस के खिलाफ ऐसे मामले दर्ज नहीं करने के आरोप लग रहे हैं, जो मामले दर्ज हुए हैं उनकी भी ठीक से जाञ्च नहीं हो रही है। लेकिन सरकार ने इस मामले में चुप्पी साध रखी है। न्यायालय ने कहा कि हिंसा के ऐसे मामलों में सरकार को अपनी मर्जी के मुताबिक काम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इन शिकायतों पर तत्काल कार्रवाई की जरूरत है। बंगाल के राज्यपाल श्री जगदीप धनखड़ भी मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी को पत्र लिखकर आरोप लगा चुके हैं कि राज्य सरकार चुनाव के बाद की हिंसा के कारण लोगों की पीड़ा के प्रति निष्क्रिय और उदासीन बनी हुई है।

प्रजातान्त्रिक ढंग से चुनी गई किसी सरकार के खिलाफ न्यायालय व राज्यपाल की इतनी तल्ख टिप्पणियां आखिर लोकतन्त्र का पिण्डदान नहीं तो और क्या हैं ? लोकतन्त्र के अस्तित्व को केवल लच्छेदार भषणों, संगोष्ठियों, लेखों के सहारे नहीं टिका कर रखा जा सकता बल्कि इसके सिद्धान्तों व मूल्यों को व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में ढालना पड़ता है। देश अपनी स्वतन्त्रता की 75वीं वर्षगांठ के आयोजन की तैयारी में जुटा हुआ है। इतने साल किसी व्यक्ति या समाज को लोकतन्त्र सीखने के लिए कोई कम समय नहीं है। भारत का लोकतन्त्र सबसे प्राचीन भी है और सबसे बड़ा भी, इसे गुणतन्त्र में बदलना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। कुछ तालिबानी मानसिकता के लोगों को इसकी अस्मिता के साथ खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

- राकेश सैन