Lok Sabha Election 2024: घोषणापत्र में किए गए वादों को पूरा करने के लिए पॉलिटिकल पार्टियां कानूनी रूप से बाध्य क्यों नहीं?

 

समाचार डेस्क, नई दिल्ली। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में चुनाव घोषणापत्र राजनीतिक दलों के लिए परंपरा का निर्वाह करने जैसा हो गया है‚ वरना देश के करोड़ों मतदाताओं को लुभाने के लिए बनाए जाने वाले इस दस्तावेज को लेकर गंभीरता दिखती। लोक कल्याणकारी वादों को हर हाल में पूरा करने के प्रति गंभीरता दिखती। नियत समय पर इसे जनता के समक्ष रखा जाता‚ विचार–विमर्श किया जाता‚ समाज में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को वादों और मुद्दों के बारे में बताया जाता। अगर ये सब नहीं हो रहा है और वाकई नहीं हो रहा है‚ तो जनता को इसके खिलाफ आगे आना चाहिए और वोट मांगने आने वाले नेताओं को बैरंग लौटा देना चाहिए। 

सत्ता पक्ष अपनी उपलब्धियां गिना रहा

लोकसभा चुनाव के गठन को लेकर सात चरणों में संपन्न होने वाली लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया का पहला चरण 19 अप्रैल को समाप्त हुआ और दूसरा चरण 26 अप्रैल को आरंभ होगा। एक जून को अंतिम चरण का चुनाव संपन्न होगा और 4 जून को जनादेश का दिन तय है। इस बीच‚ तमाम राजनीतिक दलों के नेता जनता के बीच पहुंच रहे हैं। एक तरफ सत्ता पक्ष अपनी उपलब्धियां गिना रहा है तो विपक्ष सत्ता पक्ष की कमियां और खामियां गिनाते हुए कहने से चूक नहीं रहा है कि आप हमें सत्ता की कुर्सी पर विराजेंगे तो मौजूदा सत्ता पक्ष के गलत फैसलों से देश को जो नुकसान पहुंचा है‚ उसे तो दुरुस्त करेंगे ही‚ साथ ही आपके जीवन को बेहतर बनाने के लिए तमाम काम करेंगे जो जरूरी हैं।

घोषणापत्र सभी राजनीतिक दल चुनाव से पहले क्यों जारी करते हैं?

इसी क्रम में तमाम राजनीतिक दल अपने–अपने घोषणापत्र भी देश के समक्ष रख रहे हैं। कहने को तो घोषणापत्र बड़े पैमाने पर देश की जनता के लिए एक बेंचमार्क के तौर पर काम करता है‚ जिसमें संबंधित राजनीतिक दल की विचारधारा और जनता के लिए उसकी नीतियों और कार्यक्रमों का ब्योरा होता है ताकि अन्य दलों के घोषणापत्रों की तुलना करके मतदाता तय कर पाएं कि उन्हें किस पार्टी को वोट देना है। सहज और सरल भाषा में कहें तो घोषणापत्र वह दस्तावेज होता है‚ जो चुनाव लड़ने वाले सभी राजनीतिक दल चुनाव से पहले जारी करते हैं। इसमें जनता के सामने अपने वादे रखते हैं। इसके जरिए बताते हैं कि चुनाव जीतने के बाद जनता के लिए क्या–क्या करेंगे। उनकी नीतियां क्या होंगी। सरकार किस तरह से चलाएंगे और उससे जनता को क्या लाभ होगा। 

वादों को निभाने के लिए कानूनी तौर पर बाध्य हैंॽ

लेकिन अनुभव की बात करें तो वास्तविकता में घोषणापत्र वादों का पिटारा मात्र होता है‚ जिनसे जनता को लुभा कर वोट मांगा जाता है। अब ये वादे कितने पूरे होते हैं‚ और कितने नहीं‚ इस संदर्भ में ज्यादातर राजनीतिक दलों का रवैया ‘रात गई‚ बात गई' जैसा ही हो गया है। ऐसे में दो–तीन सवाल अहम हो जाते हैं। पहला‚ राजनीतिक दल जो घोषणापत्र जनता के समक्ष रखते हैं‚ उसकी पहुंच क्या उन मतदाताओं तक हो पाती है‚ जिनके जीवन को बदलने के लिए तमाम वादे किए जाते हैंॽ दूसरा‚ व्यक्तिवादी राजनीति और सूचना तकनीक के विस्तार ने घोषणापत्र की अहमियत को कहीं कम तो नहीं कर दिया हैॽ और तीसरा सवाल जो सबसे अहम सवाल है‚ यह है कि क्या राजनीतिक दल अपने वादों को निभाने के लिए कानूनी तौर पर बाध्य हैंॽ

पांच न्याय और 25 गारंटियां क्या हैं?

बीते एक दशक से देश में भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए की पूर्ण बहुमत की सरकार है। उससे पहले 10 साल तक कांग्रेस नीत यूपीए की सरकार थी। दस साल बाद एक बार फिर से कांग्रेस ने देश के समक्ष अपना घोषणापत्र रखा है‚ जिसमें पांच न्याय और 25 गारंटियों की बात की गई है। इनमें किसान न्याय‚ नारी न्याय‚ युवा न्याय‚ श्रमिक न्याय और हिस्सेदारी न्याय शामिल किए गए हैं। कई वादे भी किए किए गए हैं। मसलन‚ जातीय जनगणना कराना और गरीब परिवार की एक महिला को हर साल एक लाख रुûपये देना आदि। लेकिन कई बार देखने को मिलता है कि सत्ता मिल जाने के बाद पार्टी अपने वादे को पूरा करने में सलेक्टिव हो जाती है‚ और जनकल्याण से इतर उन मुद्Ãदों को उछालती हैं‚ जिनसे मतदाताओं को भावनात्मक तौर पर अपने पक्ष में कर सकें। 

भाजपा ने अपने घोषणापत्र में क्या वादे किए?

बीते एक दशक में आपने देखा होगा कि भाजपा ने अपने घोषणापत्र में किए कुछ जरूरी वादों को किनारे कर उन वादों को पूरा करने में ज्यादा रुचि दिखाई जिससे वोट बैंक के एक बड़े हिस्से को अपने पक्ष में किया जा सके और एक हद तक इसमें वो सफल भी रही। आर्टिकल 370‚ तीन तलाक‚ राम मन्दिर निर्माण‚ सीएए कानून आदि कुछ ऐसे ही मुद्दे रहे जिन्हें पूरा करने में भाजपा ने तन्मयता दिखाई। लेकिन इन मुद्दों और वादों को पूरा करने के बीच वो असल मुद्दे और वादे पीछे छूट गए जिनमें हर वर्ष 2 करोड़ नौकरी–रोजगार की बात की गई थी‚ विदेशों से काला धन लाने की बात की गई थी‚ महंगाई कम करने की बात की गई थी‚ बेहतर स्वास्थ्य सेवा की बात की गई थी‚ बेहतर पढ़ाई की बात की गई थी।

इस मुश्किल से कैसे निपटा जाएॽ

देश की आबादी का एक बड़ा वर्ग जो ‘कमाई–पढ़ाई–दवाई' की समस्याओं से जूझ रहा हो उस तक न तो घोषणापत्र के वादे पहुंच पा रहे हैं‚ और एक हद तक पहुंच भी रहे हैं‚ तो उसकी समझ इस रूप में विकसित नहीं हो पाई है कि वह घोषणापत्र में समाहित लोकलुभावन शब्दों के जरिए राजनीतिक दलों की मंशा को समझ पाए। ऐसे में बड़ा सवाल है कि इस मुश्किल से कैसे निपटा जाएॽ हालांकि इसका समाधान भी राजनीतिक दलों को ही निकालना होगा‚ लेकिन इसमें सिविल सोसाइटी आगे आकर अपनी भूमिका निभाए तो कुछ हद तक बात बन सकती है।

घोषणापत्र के लिए चुनाव आयोग को क्या करना चाहिए?

गांव–गांव में घोषणापत्र चौपाल लगाकर देश के गरीब और निरक्षर मतदाताओं को जानकारी देनी होगी कि फलां पार्टी ने आपसे ये वादे किए थे। सत्ता में आने के बाद उसने ये–ये वादे पूरे किए और ये–ये वादे पूरे नहीं किए। अब इस चुनाव में आपको तय करना है कि सरकार में काबिज पार्टी ने आपके जीवन से जुड़े वादे को पूरा किया या नहीं। अगर नहीं तो फिर अन्य पार्टियों के घोषणापत्रों की बातों को इस तरह से समझाया जाए कि फलां पार्टी तो पहले भी सरकार में रही है तो उसके वादे को समझ–बूझ लें और आपको लगता है कि वो बेहतर है तो फिर उसे ही अपना वोट दें। लेकिन इस स्तर तक जाकर काम करने के लिए बड़ी राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए और फिर राजनीतिक दलों को घोषणापत्र भी चुनाव की तारीख से कम से कम 3-4 महीने पहले पेश करने होंगे। जाहिर है कि इस दुरु ह कार्य को संभव बनाने के लिए चुनाव आयोग को इस दिशा में पहल करनी चाहिए।

अहमियत कम होने का सवाल क्या है?

जहां तक व्यक्तिवादी राजनीति और सूचना तकनीक के विस्तार से घोषणापत्र की अहमियत के कम होने का सवाल है‚ तो निश्चित रूप से ऐसा देखने में आ रहा है। यही वजह है कि हर राजनीतिक दल में सिर्फ एक व्यक्ति की चलती है। घोषणापत्र समिति का गठन औपचारिकता निभाने के लिए भले ही कर दिया जाता है‚ उसमें वादे और मुद्दे उसी नेता के हिसाब से गढ़े जाते हैं‚ जो सुप्रीम होता है। उदाहरण के तौर पर भाजपा में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का नाम ले सकते हैं‚ कांग्रेस में राहुल गांधी‚ सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी का नाम ले सकते हैं‚ आम आदमी पार्टी में अरविंद केजरीवाल‚ समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव और टीएमसी में ममता बनर्जी का नाम ले सकते हैं।

जनता के बुनियादी मुद्दे गौण क्यों होते हैं ?

इसे एक गलत तरह की प्रवृत्ति कहें या परंपरा‚ घोषणापत्र पर इसका गहरा असर पड़ा है। घोषणापत्र बनाने में सूचना–तकनीक का ज्यादा दखल भी इसकी अहमियत को इस रूप में कमजोर कर रहा कि मुद्दों–वादों को लेकर कोई सर्वे कराना हो‚ उसकी जमीनी हकीकत समझनी हो तो उसे फोन कॉल या वर्चुअल तरीके से निपटा दिया जाता है। चुनाव की तारीख से एक–दो दिन पहले या चुनाव के बीच भी कई दल घोषणापत्र जारी करते हैं। इस सबका अंजाम यह होता है कि जनता के बुनियादी मुद्दे गौण हो जाते हैं।

नियम राजनीतिक दल के खिलाफ लागू क्यों नहीं होता? 

चलते–चलते एक और अहम सवाल कि अगर कोई राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र में किए गए वादों को पूरा नहीं कर पाता है तो क्या उस पर कोई कार्रवाई हो सकती हैॽ चुनाव घोषणापत्र और पाÌटयों को उसमें दिए वादों को पूरा करने का मामला एक से ज्यादा बार अदालत तक पहुंचा है। २०१५ में सुप्रीम कोर्ट में इसी मामले पर वकील मिथिलेश कुमार पांडे ने जनहित याचिका दायर की थी। हालांकि‚ याचिका को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू और न्यायमूÌत अमिताव रॉय की पीठ ने यह कहकर खारिज कर दिया था‚ ‘क्या कानून में कोई प्रावधान है जो घोषणापत्र में किए गए वादों को किसी राजनीतिक दल के खिलाफ लागू करने योग्य बनाता हैॽ' 

चुनाव घोषणापत्र में किए गए वादों को लेकर नियम?

इसका निष्कर्ष यह था कि चुनाव घोषणापत्र में किए गए वादों को पूरा करने के लिए पॉलिटिकल पार्टियां कानूनी रूप से बाध्य नहीं हैं। 2022 में इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी‚ जिसमें 2014 के लोक सभा चुनावों के दौरान तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष अमित शाह द्वारा किए गए वादों को पूरा न करने पर भाजपा के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने की मांग की गई थी। लेकिन अदालत ने याचिका रद्द कर दी यह कहते हुए कि चुनाव घोषणापत्र में किए गए वादों को पूरा करने में विफल रहने पर राजनीतिक दलों को दंडित नहीं किया जा सकता।

लोक कल्याणकारी वादों को लेकर नियम ?

बहरहाल‚ मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में चुनाव घोषणापत्र राजनीतिक दलों के लिए परंपरा का निर्वाह करने जैसा हो गया है‚ वरना देश के करोड़ों मतदाताओं को लुभाने के लिए बनाए जाने वाले इस दस्तावेज को लेकर गंभीरता दिखती। लोक कल्याणकारी वादों को हर हाल में पूरा करने के प्रति गंभीरता दिखती। नियत समय पर इसे जनता के समक्ष रखा जाता‚ विचार–विमर्श किया जाता‚ समाज में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को वादों और मुद्दों के बारे में बताया जाता। अगर ये सब नहीं हो रहा है‚ और वाकई नहीं हो रहा है‚ तो जनता को इसके खिलाफ आगे आना चाहिए और वोट मांगने आने वाले नेताओं को बैरंग लौटा देना चाहिए।