भगवान सूर्य के प्रति  आस्था और श्रद्धा व्यक्त करने का पर्व है छठ 
 

Chhath is a festival to express faith and devotion towards Lord Sun
 
(रीमा राय - विनायक फीचर्स)  वैसे तो छठ पूजा वर्ष में दो बार कार्तिक व चैत्र महीने में मनाई जाती है पर कार्तिक महीने की छठ पूजा ज्यादा प्रचलित है। छठ पूजा मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत है, इसलिए इसे ‘छठ’ कहा जाता है। सूर्य को सृष्टि का संचालक और प्राणी जीवन का प्रहरी माना जाता है। भगवान सूर्य के प्रति गहरी आस्था और श्रद्धा सदियों से अर्पित की जाती रही है। छठ पूजा मूलत: ऊर्जा के प्रतीक भगवान सूर्य का आराधना पर्व है।


दीपावली में वैसे तो रंगाई-पुताई के काम संपन्न हो गये होते हैं पर जिन घरों में छठ पूजा आयोजित होनी होती है, वहां दीपावली के बाद भी सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाता है। छठ पूजा का मुख्य दौर तीन दिन तक चलता है। पहले दिन जिसे ‘छोटकी छठ’ का नाम दिया जाता है। उस दिन व्रती सारा दिन उपवास तो करती हैं पर शाम को मीठा भोजन यानी खीर  खा लेती हैं। दूसरे दिन जिसे ‘बडक़ी छठ’ कहा जाता है वह दिन तो पूर्ण उपवास का होता है। बहुत ही साफ-सुथरे माहौल में पकवान बनाने, फलों को धोने-सजाने की प्रक्रिया संपन्न होती है। इस व्रत में सूप, दौरा,केला, नारियल, कच्ची हल्दी, कच्ची सुपारी, सेव, नींबू, ईख, अदरक, मूली, सुथनी के साथ मुख्य रूप से ठेकुआ और चना का प्रयोग पूजा सामग्री के तौर पर किया जाता है। छठ के दिन शाम को सूर्यास्त से पहले सभी व्रती फलों और पकवानों को दौरा और सिपुली में भरकर घाट पर पहुंच जाते हैं। घाट पहुंचते समय सबसे पहले यह गीत गाते हुए घाट पर पहुंचते हैं।

‘कांच ही बांस के बहंगिया,
बहंगी लचकत जाय
बहंगी लचकत जाय
होई ना बलम जी कहरिया,
बहंगी घाटे पहुंचाय’

घाट पर पहुंचने के बाद सबसे पहले काम यह होता है कि डूबते सूरज को अर्घ्य (अरध) अर्पित किया जाये। घुटनों तक पानी में खड़ी होकर व्रती एक-दूसरे को पश्चिम की ओर मुंह कर अर्घ्य दिलवाते हैं।

‘चार चौखंड के पोखरवा, बनारस अइसन घाट
ताही पोखरा उतरीले महादेव, गौरा देई केे साथ।’

यहां तो कई जगह गंगाजी सहज उपलब्ध हैं पर जहां यह संभव नहीं है यानी गांवों और कस्बों में, वहां छोटी-छोटी नदियों, तालाबों और पोखरों के किनारे जाकर ही पूजा-अर्चना की जाती है और ‘चार चौखंड के पोखरवा’ की कल्पना साकार की जाती है। बिहार के गांवों में तो तालाबों और पोखरों के किनारे पक्की ‘छठी मइया’ बनाई गई होती है जहां साल-दर-साल पूजा संपन्न की जाती हैं पर जहां गंगा घाटों पर पक्की छठी मइया बनाना संभव नहीं है कच्ची मिट्टी और ईंटों की सहायता से अस्थायी तौर पर छठी मैया का निर्माण होता हे। घाटों पर तो इतनी भीड़ होती है कि जगह आरक्षित नहीं की जाए तो बैठने की और पैर धरने की जगह नहीं मिलेगी। डूबते सूरज को अर्घ्य देने के बाद छठ मैया के पास बैठकर अनूठे तरीके से पूजन किया जाता है। छठ पूजा ही नहीं बिहार और उत्तरप्रदेश की सारी पूजाओं की यह खासियत है कि पूजा के प्रत्येक चरण के लिए अलग-अलग गीत होते हैं और उन गीतों के अंदाज भी अलग अलग ही होते हैं। छठ मैया के पास बैठकर जब इस प्रार्थना गीत का दौर प्रारंभ होता है तो एक अलग ही समां बंध जाता है।

‘सेई ले शरण तोहार ए छठी मैया
सुनी लेहू अरज हमार
गोदिया भरल मइया बेटा मांगी ले
मंगलवा भरल ऐहवात ए छठी मैया
सुनी लेहु अरज हमार।’

विश्वास की यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और आज तक थोड़ी भी कम नहीं हुई है कि छठी मैया सारी मनोकामनाओं को पूर्ण करती है। परंपरागत गीतों के साथ छठी मैया की पूजा घाटों पर तब तक जारी रहती है, जब तक ‘सूरज भगवान’ अपने घर को लौट नहीं जाते हैं और रात की काली परछाइयां अपने डैने पसारने नहीं लगती हैं। सारे पथिक, पंछी अपने-अपने घरों को जब लौट रहे होते हैं छठ व्रती भी लौट पड़ते हैं अपने-अपने घरों को। घर आकर ‘कोसी’ भरा जाता है। ईख के घरौंदे बनाकर नये कपड़े की छाजनी डाली जाती है और उसके बीच में मिट्टी के बारह या चौबीस बर्तनों में पकवान सजाकर दिये जलाए जाते हैं। छठी मैया तो घाट से चलकर आंगन में पहुंच गयी होती हैं। पूछा भी जाता है कि


‘सांझ भइल छठी रहलू में कंहवा’
तो छठी मैया जवाब देती है-
रहनी महादेव के आंगना,
गाई के गोबरे लिपहले उनकर अंगना,
झिलमिल दीप जरेला उनकर अंगना।

कोसी भरने के बाद समाप्त होती है शाम की पूजा। अब सूर्योदय के पहले फिर घाट पर पहुंचना है। भूख और प्यास से नींद भी नहीं आती पर उनींदी आंखों में कष्ट या पीड़ा के भाव झलकते भी नहीं। सूर्योदय के पहले घाट पर पहुंच फिर एक बार ‘कोसी’ भरने की प्रक्रिया दोहराई जाती है। छठ मैया की पूजा होती है। गीतों के बोल उठते हैं और इंतजार किया जाता है कि कब पूरब के आकाश में लालिमा छायेगी और कब उदय होगा सृष्टि का एक और नया सवेरा।

‘हाथ में कलसुपवा लिहले पारवती ठाढ़ हे
कब दल उगीहें सुरूज अलबेलवा हे’

और गीतों की भाषा में ‘पुरहन के पात’ पर सूर्य का उदय होता है तो प्रारंभ होती है वंदना ऊं सूर्याय नम:। पूरब की ओर मुंह कर अबकी बार गाय के कच्चे दूध से अर्घ्य अर्पित किया जाता है। छठ पूजा प्रारंभ पश्चिम में डूबते सूरज को अर्घ्य देकर होती है और पूरब में उगते सूरज को अर्घ्य देकर संपन्न हो जाती है। इस सूर्य के आराधना पर्व ‘छठ’ पर महिलाएं गीत गाते हुए घाटों पर जाती हैं और गीत गाते हुए पूजा करती हैं, फिर गीत गाते हुए लौट भी आती हैं। ब्रह्मा के शासनतंत्र में ऊर्जा विभाग सूर्य के अधीन है। सूर्य का कार्य सृष्टि को प्रकाश और ऊर्जा प्रदान करना है। सूर्य के दिव्य रथ में सात घोड़े हैं, जो अश्वशक्ति (हॉर्सपावर) के प्रतीक हैं।

इस पृथ्वी के निवासी भी ऊर्जा का मापदण्ड अश्वशक्ति को ही मानते हैं। सूर्य का रथ जिस प्रकार बिना किसी आधार के चलता है उसी प्रकार आकाश में ऊर्जा की तरंगें भी वायुमंडल में चलती हैं। सौर ऊर्जा से जीवधारियों और वनस्पतियों को जीवन मिलता है। यही कारण है कि यह पूजा आज किसी प्रांत, जाति या समुदाय का बंधन नहीं मानती। छठ पूजा में व्यवहृत सामानों को इतनी सावधानी और सफाई से रखा या पकाया जाता है कि पक्षी भी उसको स्पर्श करते हैं तो पूजा के अयोग्य मान लिया जाता है। छठ पूजा खासकर बिहार के उत्तरी जिलों पुराना छपरा, चंपारण, मुजफ्फरपुर, पटना, आरा, वैशाली एवं बिहार की सीमा से सटे उत्तरप्रदेश के पश्चिमी जिलों गोरखपुर, देवरिया, बलिया, आजमगढ़, जौनपुर, गाजीपुर आदि में ज्यादा महत्वपूर्ण है। बिहार में तो इसे सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया ही जाता है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भी यह काफी तेजी से फैलती जा रही है, क्योंकि सीमा से सटे इन जिलों में विवाह संबंध बहुत ज्यादा हैं। बंगाल में भी इसका प्रचलन बढ़ा है, क्योंकि उन्हीं जिलों के लोग यहां भी बसते हैं। पटना की छठ पूजा तो समूचे भारत में अपना अलग ही एक स्थान रखती है।