राम कथा भागने की नहीं जागने की कथा है - पूज्य प्रेमभूषण जी महाराज
ब्यूरो चीफ आर एल पाण्डेय
लखनऊ। राक्षसों को समाप्त करने के लिए भगवान राम को दक्षिण दिशा की यात्रा करने की आवश्यकता ही नहीं थी। वह तो इतना सक्षम थे कि अयोध्या जी से ही एक बाण छोड़कर रावण का काम तमाम कर सकते थे। उन्होंने जो चरित्र जिया वह हमें शिक्षण देने के लिए ही जिया। मानव जाति के कल्याण के लिए जिया।
सरस् श्रीराम कथा गायन के लिए सर्वप्रिय प्रेममूर्ति पूज्य श्री प्रेमभूषण जी महाराज ने उक्त बातें लखनऊ के गोमती नगर विस्तार स्थित सीएमएस विद्यालय के मैदान में आयोजित नौ दिवसीय श्रीराम कथा के छठे दिन व्यासपीठ से कथा वाचन करते हुए कहीं।
श्री रामकथा गायन के माध्यम से भारतीय और पूरी दुनिया के सनातन समाज में अलख जगाने के लिए जनप्रिय कथावाचक प्रेमभूषण जी महाराज ने श्रीसीताराम विवाह के बाद के प्रसंगों का गायन करने के क्रम में कहा कि
राम जी की पूजा करना सरल है, राम जी के चरित्र को पढ़ना सरल है, लेकिन उस चरित्र को जीना सबके वश की बात नहीं है। पुत्र के रूप में, भाई के रूप में, सखा के रूप में भगवान ने जिस प्रकार अपने संबंधों का निर्वाह किया वह आज भी अनुकरणीय है। गुरु, पिता-माता और संत जन के प्रति उनका भाव देखते ही बनता है।
पूज्य श्री ने कहा कि विरोध हमारी स्वयं की प्रगति में बाधक बनता है
हम अगर समाज में प्रेम बांटते हैं तो हमारे भी जीवन में, घर परिवार में प्रेम बढ़ता जाता है। दूसरी तरफ अगर हम द्वेष, ईर्ष्या, लोभ आदि बांटते रहते हैं तो हमारे अपने भी परिवार में उनकी ही वृद्धि होती रहती है। हमें विरोध में नहीं जाना चाहिए, क्योंकि जीवन में विरोध के आश्रय में जाने पर अवरोध जरूर उत्पन्न होता है। हमारी यात्रा बाधित हो जाती है।
हम सनातन धर्म के लोग हैं और हमारा धर्म प्रेम का विस्तार करना सिखाता है। सबसे प्रेम करना सीखना है तो केवल सनातन धर्म में ही इसकी विधि है। हमारे यहां वैर की परंपरा कभी नहीं रही है। वास्तव में हमारे भगवान राम अथवा भगवान कृष्ण स्वयं प्रेम स्वरूप ही हैं। भगवान भी उन्हीं को प्रेम करते हैं जो औरों को प्रेम करते हैं।
महाराज जी ने कहा कि सहज, सरल स्वभाव और प्रेम के लिए मन कर्म और वाणी को तैयार करना आसान नहीं है इसके लिए निरंतर अभ्यास करने की आवश्यकता होती है जीव में प्रेम केवल और केवल भगवान का नाम जपने से ही आता है।
*जीवन भर पछताते हैं बेमेल विवाह करने वाले*
बेटे अथवा बेटी के विवाह में अगर विशेष सावधानी नहीं रखते हैं तो जीवन भर पछताने के अलावा और कुछ नहीं मिलता है। अगर कुल की परंपरा और अपनी स्थिति को ध्यान में रखकर हम विवाह नहीं करते हैं तो अपने बेटे अथवा बेटी को कभी भी सुख नहीं दे सकते हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो बेमेल शादी का दंश पूरा परिवार झेलता है।
पूज्य महाराज श्री ने कहा कि पैसे वालों का ईमान और भगवान सब कुछ पैसा ही होता है। पैसे के आधार पर खड़ा किया गया कोई भी संबंध स्थाई नहीं हो पाता है। बेटे अथवा बेटी के विवाह के लिए अपनी कुल परंपरा को ध्यान में रखकर ही विवाह करना चाहिए। हम अगर वैष्णव हैं तो वैष्णव परिवार में विवाह करें। शैव अथवा शाक्त हैं तो भी वैसे ही परिवार से वर या वधू ढूंढने का प्रयास करें। तभी अपने पुत्र अथवा पुत्री को सुखी बना सकेंगे उनके संसार में सुख बरसा सकेंगे।
पूज्यश्री ने कहा सनातन धर्म और परंपरा में गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने वाले वर-वधू यहीं से अपने जीवन की परमार्थ यात्रा की शुरूआत करते हैं। गृहस्थ आश्रम को सभी चार आश्रम में श्रेष्ठतम बताया गया है। सनातन परंपरा में विवाह संस्कार को समाज का मेरुदंड बताया गया है।
महाराज जी ने कहा कि निरंतर भजन में रहने वाले की कभी मृत्यु नहीं होती है। वह अपनी कीर्ति से कुल परम्परा का निर्माण करते हैं और संसार में अमर हो जाते हैं। इसलिए सामान्य व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने जीवन के सभी क्रियाओं में संयुक्त रहते हुए भजन में भी प्रवृत्त हों। महाराज जी का सत्कर्म सोचने से नहीं होता है सत्कर्म के लिए सोचने वाले सोचते रह जाते हैं लेकिन करने वाला तुरंत उस कार्य को पूरा कर लेता है।
मनुष्य को अपने जीवन में अपने कर्म को हमेशा धर्म सम्मत रखने की आवश्यकता होती है। जब हमारा कर्म बिगड़ता है तो फिर लाख प्रयास करने के बाद भी हमारी मती गति काल के वश में चली जाती है।
पूज्यश्री ने कहा कि मनुष्य को अपने जीवन में भगवान और भागवतों के साथ नहीं उलझना चाहिए। भगवान तो अपने प्रति किये गए किसी के दोष को क्षमा भी कर देते हैं। लेकिन, अगर उनके भक्तों के साथ किसी तरह का अन्याय होता है तो उसे भगवान कभी भी माफ नहीं करते हैं। यह हमारे विभिन्न सदग्रंथों में ही उदाहरण के साथ वर्णित है। मनुष्य को यह प्रयास करना चाहिए कि उससे कभी भी किसी साधु संत और भगत का अपकार नहीं हो। अगर ऐसा होता है तो परिणाम भी झेलने के लिए तैयार रहना होगा।
मनुष्य के जीवन में सुख और दुख दोनों का आना निश्चित है एक आता है तो एक चला जाता है। दुख हो या सुख दोनों ही अपने ही कर्मों के अनुसार ही मनुष्य के जीवन में आता है।
हमारे सद्ग्रन्थों का एक सरल सिद्धांत है कि आदमी को सब कार्य छोड़कर भोजन करना चाहिए, हजार कार्य छोड़कर स्नान करना चाहिए और एक लाख कार्य छोड़कर भी दान करना चाहिए। चाहे वह दान थोड़ा ही हो। लेकिन, यह सभी कुछ छोड़ कर के भगवान का भजन करना चाहिए।
पूज्यश्री ने कहा कि मनुष्य अपने अर्थ और संपत्ति का उत्तराधिकारी तो बना जाता है लेकिन अपने परमार्थ पथ का उत्तराधिकारी कोई-कोई ही बना पाता है। सनातन धर्म के सद्ग्रन्थों में बार-बार कहा गया है कि जीवन में अपने श्रेष्ठ की अवहेलना करने वाले खुद ही परिणाम भुगतते हैं।
प्रेमभूषण जी महाराज ने कहा कि अपने जीवन काल में ही हमें अपने परमार्थ पथ का उत्तराधिकारी तैयार करने की आवश्यकता है, तभी तो कई पीढ़ियों तक परमार्थ चलता रहता है।
कथा कर्म में महाराज श्री ने कई सुमधुर भजनों से श्रोताओं को भावविभोर कर दिया। हजारों की संख्या में उपस्थित रामकथा के प्रेमी, भजनों का आनन्द लेते हुए, झूमते नजर आए।
इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप उ प्र सरकार के खाद्य रसद मंत्री सतीश शर्मा जी, क्षेत्रीय अध्यक्ष भाजपा अवध क्षेत्र कमलेश मिश्रा जी ,लखनऊ महानगर के भाजपा अध्यक्ष आनंद द्विवेदी जी,सदस्य विधान परिषद आदरणीय पवन सिंह चौहान जी, आईएएस अजय सिंह जी, पूर्व राज्यपाल के बेटे अमित टंडन जी, नमिता शुक्ला जी, जस्टिस सुधीर सक्सेना जी, सहित सम्मलित हुए ।