हनुमान जी को क्यों लेना पड़ा था 11 मुखी हनुमान का अवतार ,11 मुखी हनुमान कथा
सदुगुरुदेव श्री हनुमान जी महाराज चारो युगों में अपने भक्तों की समय-समय पर विपत्तियों से रक्षा करते रहते हैं क्योंकि माता सीता ने प्रभु श्रीराम की भक्ति में सदा-सर्वदा लीन रहने वाले श्रीहनुमान जी को सदा चिरंजीवी रहने का दुर्लभ वरदान दिया था-
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ॥
ऐसे हमारे आराध्य श्रीहनुमान जी महाराज ने हर युग में अपने भक्तों के साथ ही देवताओं की भी कई बार दुष्ट राक्षसों से रक्षा की है ।
11 मुखी हनुमान कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय कालकारमुख नामक एक भयानक दुष्ट राक्षस हुआ इस विकराल राक्षस के ग्यारह मुख थे,अपने इन ग्यारह मुखों से वह पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्यों को खाने लगा और ऋषि मुनियों के यज्ञ व हवन-पूजन इत्यादि को विध्वंस करने लगा उसके इस कार्य से पृथ्वी पर हाहाकार मच गया । उसके इस आसुरी कृत्य से पृथ्वी पर धीरे-धीरे धर्म का नाश होने लगा ।
जब उसके डर के कारण पूरी पृथ्वी पर उसका राज्य हो गया तो एक दिन एकांत में कालकारमुख ने सोंचा कि एक न एक दिन तो मेरी मृत्यु होना निश्चित है अतः कुछ ऐसा किया जाये जिससे मैं सदा-सर्वदा के लिए जीवित रहूँ और बड़े से बड़ा राक्षस या देवता भी मुझे मार न सकें किन्तु ये एक असंभव कार्य था क्योंकि परम पिता परमेश्वर ने इस संपूर्ण सृष्टि की रचना इस प्रकार की है कि इस पृथ्वी पर हर व्यक्ति नाशवान है फिर चाहे वो कोई राक्षस हो या फिर कोई सामान्य मनुष्य किन्तु अपने मन में सदा जीवित रहने की इच्छा पाले उस ग्यारह मुख वाले विकराल राक्षस ने ब्रह्माजी को प्रसन्न कर अमरता का वरदान पाने के लिए बहुत काल तक कठोर तपस्या की ।
कालकारमुख की इस कठिन तपस्या का परिणाम ये रहा कि अंततः ब्रह्माजी प्रकट हुए और उससे इच्छित वरदान मांगने के लिए कहा ब्रह्मा जी के ऐसा कहते ही कालकारमुख ने उनसे अमरता का वरदान माँगा किन्तु ब्रह्मा जी ने उसे इस वरदान को देने में अपनी असमर्थता व्यक्त की क्योंकि ये प्रकृति के नियम के सर्वथा विपरीत था अतः ब्रह्मा जी ने उससे कोई अन्य वरदान मांगने के लिए कहा जिस पर उस दुष्ट राक्षस कालकारमुख ने चालाकी पूर्वक ब्रह्मा जी से एक दुर्लभ वरदान माँगा,उस राक्षस ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे ब्रह्मदेव आप मुझे वरदान दीजिये कि जो मेरे जन्म की तिथि पर ग्यारह मुख धारण करे सिर्फ वही मुझे मार सके । ब्रह्माजी उसकी कुटिलता व चालाकी देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गये । इस प्रकार ब्रह्माजी से ऐसा दुर्लभ वरदान पाकर वह राक्षस निरंकुश हो गया और पृथ्वी लोक के साथ ही स्वर्ग लोक में भी भयानक उत्पात मचाने लगा ।
पृथ्वी पर अपना आतंक स्थापित करने के बाद एक बार कालकारमुख ने स्वर्गाधिपति इन्द्र को युद्ध के लिए ललकारा, ये देखकर इन्द्र सहित सभी देवताओं में भयानक खलबली मच गयी क्योंकि देवताओं को ये पता था कि ब्रह्मा जी के वरदान के कारण इस भयानक राक्षस को कोई भी मार नहीं सकता है अतः सभी देवता भाग कर भगवान विष्णु (भगवान् श्रीराम) की शरण में पहुंचे और उनसे इस दुष्ट राक्षस से मुक्ति दिलाने के लिये प्रार्थना की । शिवजी कहते हैं कि – हे भवानी - देवताओं को इस प्रकार आर्तनांद करते देख प्रभु श्रीरामजी ने महाबली हनुमानजी से कहा – हे पवनपुत्र, हे,महावीर हनुमान- आप तो अतुलित बल के धाम हैं, बुद्धि तथा ज्ञान की आप साक्षात् मूर्ति हैं, सारा संसार आपको संकट मोचन के नाम से जानता है अतः आप अपने नाम को चरितार्थ कर सभी देवताओं व पृथ्वी को इस भयानक विकराल राक्षस से मुक्ति दिलाइये । हे बजरंग बली - धर्म पर विशाल संकट आन पड़ा है अतः आप उस संकट का निवारण कीजिये ।
श्रीहनुमान जी प्रभुश्रीराम के अनन्य भक्त होने के साथ ही ज्ञानिनामग्रगण्यम् हैं अतः प्रभुश्रीराम की आज्ञा मिलते ही श्रीहनुमानजी ने अपनी बुद्धिमता का प्रयोग करते हुए उस विकराल राक्षस के जन्मदिन जो कि उस वर्ष चैत्र पूर्णिमा (श्रीहनुमत अवतरण दिवस) शनिवार के दिन ही पड़ने वाला था अपना एकादश मुखी रूप धारण किया और पृथ्वी पर जाकर श्रीहनुमानजी ने उस विकराल कालकारमुख नामक राक्षस को युद्ध के लिये ललकारा ।
हनुमानजी की युद्ध की ललकार सुनते ही कालकारमुख अपनी विशाल सेना लिए हनुमानजी की ओर युद्ध करने के लिए दौड़ा, उस दुष्ट राक्षस को अपनी ओर आता देख महावीर हनुमानजी क्रोध में अग्नि के समान भभक उठे और क्षणमात्र में ही उस विकराल राक्षस कालकारमुख का उसकी सम्पूर्ण सेना सहित संहार कर दिया । यह अद्भुत एवं दुर्लभ दृश्य देखकर देवताओं ने आकाश से श्रीहनुमानजी की जय जयकार करते हुये पुष्पवर्षा की, साथ ही प्रभुश्रीरामजी ने श्रीहनुमानजी के इस रण-कौशल को देखकर उनका यथोचित सम्मान किया । महाबली हनुमानजी के इस “एकादशमुखी” रूप का पूजन-ध्यान व दर्शन करने से सभी बुरे कर्म व चित्त के दोषों से मुक्ति मिलती है ।
11मुखी हनुमान का मंदिर देहरादून के पास है और कहा जाता है कि हनुमान जी ने यहां विश्राम किया था इस कारण से इसमन्दिर की स्थापना हुई है ।
माना जाता है कि 11 मुखी हनुमान जी की आराधना से कठिन से कठिन समस्या भी दूर हो जाती हैं क्योंकि 11 मुल्हि हनुमान में असीम शक्ति समाहित होती है जिसकी पूजा से ऐसी कोई समस्या नही जिसका निदान न हो ।
11 मुखी हनुमान कवच के पाठ से किसी भी प्रकार का भय ,भूत प्रेत या बाधा से मुक्ति मिलती है ।
11 मुखी हनुमान कवच का पाठ
।। श्रीगणेशाय नम: ।।
।। लोपामुद्रोवाच ।।
कुम्भोद्भवदया सिन्धो श्रुतं हनुमंत: परम् ।
यंत्रमंत्रादिकं सर्वं त्वन्मुखोदीरितं मया ।।१।।
दयां कुरु मयि प्राणनाथ वेदितुमुत्सहे ।
कवचं वायुपुत्रस्य एकादशखात्मन: ।।२।।
इत्येवं वचनं श्रुत्वा प्रियाया: प्रश्रयान्वितम् ।
वक्तुं प्रचक्रमे तत्र लोपामुद्रां प्रति प्रभु: ।।३।।
।। अगस्त उवाच ।।
नमस्कृत्वा रामदूतं हनुमन्तं महामतिम् ।
ब्रह्मप्रोक्तं तु कवचं श्रृणु सुन्दरि सादरात् ।।४।।
सनन्दनाय सुमहच्चतुराननभाषितम् ।
कवचं कामदं दिव्यं रक्षःकुलनिबर्हणम् ।।५।।
सर्वसंपत्प्रदं पुण्यं मर्त्यानां मधुरस्वरे ।
ॐ अस्य श्रीकवचस्यैकादशवक्त्रस्य धीमत: ।।६।।
हनुमत्कवचमंत्रस्य सनन्दन ऋषि: स्मृत: ।
प्रसन्नात्मा हनुमांश्च देवाताऽत्र प्रकीर्तितः ।।७।।
छन्दोऽनुष्टुप् समाख्यातं बीजं वायुसुतस्तथा ।
मुख्यात्र प्राण: शक्तिश्च विनियोग: प्रकर्तित: ।।८।।
सर्वकामार्थसिद्धयर्थ जप एवमुदीरयेत् ।
स्फ्रें बीजं शक्तिधृक् पातु शिरो मे पवनात्मज: ।
इति अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।।
क्रौं बीजात्मा नयनयोः पातु मां वानरेश्वर: ।।९।।
इति तर्जनीभ्यां नमः ।।
ॐ क्षं बीजरुपी कर्णौं मे सीताशोकविनाशन: ।
इति मध्यमाभ्यां नमः ।।
ॐ ग्लौं बीजवाच्यो नासां मे लक्ष्मणप्राणदायक: ।
इति अनामिकाभ्यां नमः ।।१०।।
ॐ वं बीजार्थश्च कण्ठं मे अक्षयक्षयकारक: ।
इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।।
ॐ रां बीजवाच्यो हृदयं पातु मे कपिनायक: ।
इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।।११।।
ॐ वं बीजकीर्तित: पातु बाहु मे चाञ्जनीसुत: ।
ॐ ह्रां बीजं राक्षसेन्द्रस्य दर्पहा पातु चोदरम् ।।१२।।
सौं बीजमयो मध्यं मे पातु लंकाविदाहाक: ।
ह्रीं बीजधरो गुह्यं मे पातु देवेन्द्रवन्दित: ।।१३।।
रं बीजात्मा सदा पातु चोरू वार्धिलङ्घन: ।
सुग्रीव सचिव: पातु जानुनी मे मनोजव: ।।१४।।
आपादमस्तकं पातु रामदुतो महाबल: ।
पुर्वे वानरवक्त्रो मां चाग्नेय्यां क्षत्रियान्तकृत् ।।१५।।
दक्षिणे नारसिंहस्तु नैऋत्यां गणनायक: ।
वारुण्यां दिशि मामव्यात्खवक्त्रो हरिश्वर: ।।१६।।
वायव्यां भैरवमुख: कौबर्यां पातु मां सदा ।
क्रोडास्य: पातु मां नित्यमीशान्यां रुद्ररूपधृक् ।।१७।।
रामस्तु पातु मां नित्यं सौम्यरुपी महाभुज : ।
एकादशमुखस्यैतद्दिव्यं वै कीर्तितं मया ।।१८।।
रक्षोघ्नं कामदं सौम्यं सर्वसम्पद्विधायकम् ।
पुत्रदं धनदं चोग्रं शत्रुसम्पत्तिमर्दनम् ।।१९।।
स्वर्गापवर्गदं दिव्यं चिन्तितार्थप्रदं शुभम् ।
एतत्कवचमज्ञात्वा मंत्रसिद्धिर्न जायते ।।२०।।
चत्वारिंशत्सहस्त्राणि पठेच्छुद्वात्मना नर: ।
एकवारं पठेन्नित्यं कवचं सिद्धिदं महत् ।।२१।।
द्विवारं वा त्रिवारं वा पठन्नायुष्यमाप्नुयात् ।
क्रमादेकादशादेवमावर्तनकृतात्सुधी: ।।२२।।
वर्षान्ते दर्शनं साक्षाल्लभते नात्र संशय: ।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति पुरुष: ।।२३।।
ब्रह्मोदीरितमेतद्धि तवाग्रे कथितं महत् ।
इत्येवमुक्त्वा कवचं महर्षिस्तूष्णीं बभूवेन्दुमुखीं निरीक्ष्य ।
संहृष्टचित्ताऽपि तदा तदीयपादौ ननामातिमुदा स्वभर्तु: ।।२४।।
।। इत्यगस्त्यसंहितायामेकादशमुखहनुमत्कवचं संपूर्णम् ।।
Input - श्रीमती नीरा मिश्रा
लखनऊ
मो-9794946648