पूछते हो शिव नगरी काशी में इतने शिवलिंग क्यों ?

You ask why there are so many Shivlingas in the Shiva city Kashi?
 
शिव काशी शिव काशी काशीकाशी शिव:शिव 
अर्थात् काशी ही शिव है।

काशी में जो सहस्रशः शिवलिंग हैं, उनमें रत्नभूत रत्नेश्वर लिंग है, रत्नेश्वर महादेव की दया से अनेकशः रत्नों का भोग कर पुरुषार्थों में महारत्न निर्वाणपद किसने नहीं पाया  है?

उनमें श्रीबिंदु माधव के ज्ञानेश्वर स्वरूप से ज्ञान किसने नही पाया ? 

उनमें भीमेश्वर के भीषणबल से मोक्ष किसने नही पाया, यहां श्रीढुंढीराज के गणेश्वर रूप के दर्शन से किसने गणेश पद नही पाया ?
यह काशीपुरी की रचना शिव के शरीर के रूपी कृत्तिवासेश्वर का बड़ा शिवालय है----

यां दृष्ट्राऽपि नरो दूरात् कृत्तिवासः पदं लभेत् ।
सर्वेषामपि लिङ्गानां मौलित्वं कृत्तिवाससः ।। 
ॐकारेशः शिखा ज्ञेया लोचनानि त्रिलोचनः ।
गोकर्णभारभूतेशी तत्कर्णौ परिकीर्तितौ ।। 
विश्वेश्वराविमुक्तौ च द्वावेतौ दक्षिणौ करौ ।
धर्मेश मणिकर्णेशौ द्वौ करो दक्षिणेतरी ।। 
कालेश्वरकपर्दीशौ चरणावतिनिर्मलौ ।
ज्येष्ठेश्वरो नितम्बश्व नाभिवें मध्यमेश्वरः ।।
कपर्दोऽस्य महादेवः शिरोभूषा श्रुतीश्वरः ।
चन्द्रेशो हृदयं तस्य आत्मा वीरेश्वरः परः ।। 
लिङ्ग तस्य तु केदारः शुक्रं शुक्रेश्वरं विदुः ।
अन्यानि यानि लिङ्गानि परः कोटिशतानि च ।। 

जिसे मनुष्य दूर से भी देखकर शिवपद को प्राप्त करता है, यही कृत्तिवासेश्वर समस्त लिंगों के शिरोरूप हैं। ओंकारेश्वर ही शिखा, त्रिलोचन ही लोचन, गोकर्णेश्वर और भारभूतेश्वर दोनों कर्णं, विश्वेश्वर और अविमुक्तेश्वर, ये ही (दोनों) दक्षिण हस्त और धर्मेश्वर और मणिकर्णिकेश्वर ये (दोनों) वाम कर, कालेश्वर और कपर्दीश्वर दोनों निर्मल-चरण, ज्येष्ठेश्वर नितम्ब,मध्यमेश्वर,नाभि महादेव जटाजूट, श्रुतीश्वर शिरोभूषण, चन्द्रेश्वर हृदय, वीरेश्वर आत्मा, केदारेश्वर लिंग और शुक्रेश्वर शुक्र (वोयं) कहे गये हैं। इनसे भिन्न दूसरे जो सैकड़ों, करोड़ों से अधिक लिंग हैं।---

ज्ञेयानि नखलोमानि वपुषो भूषणान्यपि ।
यावेतौ दक्षिणो हस्तो नित्यनिर्वाणदी हि तौ ।।
जन्तूनामभयं दत्त्वा पततां मोहसागरे ।
इयं दुर्गा भगवती पितृलिङ्गमिदं परम् ॥ 

उन्हें शरीर के नख, लोम और भूषण रूप से समझना चाहिये। और ये जो दोनों दक्षिण-हस्त हैं,वे मोह-सागर में गिरते हुए जीवों को अभय देकर सर्वदा हित- कारक और निर्वाण-दायक हैं। यह भगवती दुर्गा हैं, यह श्रेष्ठ पितृलिंग है।

इयं हि चित्रघण्टेशी घण्टाकर्णह्रदस्त्वयम् ।
इयं सा ललितागौरी विशालाक्षीयमद्भुता ।।

यह चित्रघंटा देवी हैं। यह घंटाकर्ण हृद है। यह ललितागोरी और यह अद्भुत विशालाक्षी है।

आशाविनायकस्त्वेष धर्मकूपोऽयमद्भुतः ।
यत्र पिण्डान्नरो दत्त्वा पितन् ब्रह्मपदं नयेत् ॥ 

यह आशाविनायक हैं। यह विचित्र कूप है, जहाँ पर पिण्डदान करने से मनुष्य पितरों को ब्रह्मपद पर पहुँचा देता है।

एषा विश्वभुजा देवी विश्वेकजननी परा । 
असौ वन्दी महादेवी नित्यं त्रैलोक्यवन्दिता ।। 

विश्वमात्र की एक जननी सर्वश्रेष्ठा यह विश्वभुजा देवी हैं। यह नित्य त्रैलोक्य वन्दिता महादेवी वन्दी हैं।

निगडस्थानपि जनान् पाशान्मोचयति स्मृता ।
दशाश्वमेधिकं तीर्थमेतत्रैलोक्य वन्दितम् ।। 

ये स्मरण करते ही निगढ़ (बेड़ी) में बँधे हुए लोगों को भी पाश (फन्दे) छुड़ा देती हैं । त्रिभुवनपूजित यह दशाश्वमेध तीर्थ है।

यत्राहुतित्रयेणाऽपि अग्निहोत्रफलं लभेत् ।
प्रयागाख्यमिदं स्रोतः सर्वतीर्थोत्तमोत्तमम् ॥

यहाँ पर केवल तीन ही आहुति से अग्निहोत्र करने का फल प्राप्त होता है। यह प्रयाग नामक स्रोत समस्त तीर्थों में उत्तमोत्तम है।

अशोकाख्यमिदं तीर्थं गङ्गाकेशव एष वै ।
मोक्षद्वारमिदं श्रेष्ठं स्वर्गद्वारमिदं विदुः ॥ 

यह अशोक तीर्थं है, यह गंगाकेशव हैं, यही श्रेष्ठ मोक्षद्वार है और इसे स्वर्ग-द्वार कहते हैं।

उक्त पौराणिक प्रमाण स्पष्ट रूप से काशी नगरी को देवाधिदेव महादेव के साक्षात् विग्रह- शरीर रूप में अभिव्यक्त करते हैं, ऐसे में काशी के समस्त शिवलिंग महादेव के अंग रूप हैं और किसी भी शिवलिंग को स्थानच्युत करना, तोड़ना अथवा उनके अर्चन-पूजन में प्रमाद करना साक्षात् विश्वनाथ को क्षति पहुँचाना है। अतः काशी के तथाकथित विद्वानों, प्रशासकों, नेताओं से करबद्ध निवेदन है कि या तो वे विश्वनाथ की भक्ति का ढोंग छोड़ दें अथवा काशी में अन्य शिवलिंगों की उपेक्षा पर ध्यान दे।

सनातन धर्मग्रंथों में कहा गया है।

यस्य देवे परा भक्तिर यथा देवे तथा गुरु
तसयैत कथा ह्यर्थ: प्रकाशंते महात्मान:

सभी वैदिक ज्ञान का महत्व उन लोगों के दिलों में प्रकट होता है जो गुरु और ईश्वर की भक्ति में अटूट विश्वास रखते हैं।