साहित्यिक संस्था -साहित्य सुरभि- की 359वीं मासिक काव्य गोष्ठी
हम मगर सातों समन्दर पारकर बैठे रहे!
इस कदर हम जिंदगी से हारकर बैठे रहे,
घर हमारा था मगर हम द्वार पर बैठे रहे।
नाव में बैठे ही थे वो मिल गया साहिल उन्हें,
हम मगर सातों समंदर पारकर बैठे रहे।
संचालन कर रहे वरिष्ठ कवि ब्रजेंद्र अकिंचन की इस ग़ज़ल का भी हर शेर खूब पसंद किया गया-
नजर की जद में आ जाता, कहां ऐसा हुआ होगा,
वो आंसू था, न सपना था तुम्हें धोखा हुआ होगा।
धुआं पहले ही तय साजिश में जब ठंडा हुआ होगा,
कहीं जाके किसी फिर आग का सौदा हुआ होगा।
विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ कवि-पत्रकार गणेश पथिक ने अपने इस गीत से खूब वाहवाही बटोरी-
धुंधलाए दर्पण सुधियों के अपनों की पहचान खो गई,
लिप्साओं की मरीचिका में निष्ठा लहुलुहान हो गई।
भुतहा चिमनी लगीं उगलने जहरीली विनाश की फसलें,
बूढ़े बरगद की छाया क्यों बच्चों का अपमान हो गई?
युवा कवि प्रताप मौर्य मृदुल ने पीढ़ियों के बीच बढ़ते फासले को मार्मिक स्वरों में वाणी दी तो सब भावुक हो उठे-
सास-ससुर हर ताना सहते, पूत-बहू फिर भी ये कहते।
खेल चुके तुम अपनी पारी, वृद्धाश्रम की करो तैयारी।
वरिष्ठ कवि राजकुमार अग्रवाल राज की इस उम्दा ग़ज़ल ने भी खूब तालियां बटोरीं-
सैकड़ों तूफां की जद में बह गये
और हम साहिल पे तकते रह गये,
अब यही पूंजी है अपनी दोस्तों,
मेरे आंसूं जो पलक पर रह गए।
अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि रणधीर प्रसाद गौड़ धीर भी अपनी इस ग़ज़ल और एक उत्कृष्ट गीत को सुनाकर देर तक वाहवाही और तालियां बटोरते रहे-
इतनी तो नवाजिश हो जाए,
इतनी तो इनायत हो जाए,
नफरत जो तुम्हारे दिल में है-
वह आज मोहब्बत हो जाए।
वरिष्ठ कवि हिमांशु श्रोत्रिय निष्पक्ष ने वसंत ऋतु की महिमा पर यह गीत गाकर सुनाया तो सब झूम उठे-
जब-जब ऋतु वसंत आती है,
पुलक-पुलक धरती जाती है।
बौराता है आम चतुर्दिक,
कचरल गीत मधुर गाती है।
मुख्य अतिथि अश्विनी कुमार सिंह तन्हा की उत्कृष्ट रचनाएं भी खूब प्रशंसित हुईं-
छपी है अखबारों में यही खास खबर,
नुचे आज फिर किसी तितली के पर।
गोष्ठी के संयोजक वयोवृद्ध कवि राममूर्ति गौतम गगन के गीत और ग़ज़ल को भी खूब सराहा गया और काव्य प्रेमी हर पंक्ति पर तालियां बजाते रहे-
कामनाओं के घर में सद्भाव से
कल्पनाओं के मंडप सजाते रहे-
आंधियों के उपेक्षित सैलाब में
रेत के ही घरौंदे बनाते रहे।
( ब्यूरो चीफ आर एल पाण्डेय )