गीता के उपदेश , भक्ति मार्ग दुर्बलता से नहीं ,वीरता से स्वीकार किया जाता है: रमेश भैया

 
 ब्यूरो चीफ आर एल पाण्डेय

लखनऊ। विनोबा विचार प्रवाह के सूत्रधार रमेश भैया ने बताया कि       गीता के दूसरे अध्याय के प्रारंभ में ही अर्जुन करुणा ग्रस्त अर्थात स्वजन आसक्ति जन्य दीनता से ग्रसित,पाप की कल्पना से भयभीत  घबराया हुआ , आंसू बहाता हुआ, शोक करता हुआ दिखता है और कृष्ण भगवान उन्हें समझाते हुए कहते हैं। कि अनुचित समय पर अर्जुन तुझे कहां से यह पाप अर्थात हीन विचार सूझा है। श्रेष्ठ पुरुष इसे पसंद नहीं करते । इससे दुष्कीर्ति और दुर्गति ही होती है। पाप की व्याख्या करते हुए बाबा विनोबा ने कहा कि अच्छी बात भी अयोग्य समय पर करें तो वह पाप ही होता है

।अंग्रेजी में कहावत है _ *Dirt is matter diplaced* _ जो चीज ठीक जगह नहीं रखी गई , तो वह कचरा ही है।  भले चीज अच्छी हो, लेकिन  गलत जगह हो तो वह पाप होगा। अर्जुन की करुणा है,लेकिन वह भी गलत स्थान पर आयी , तो पाप हो गया। कोई भी सद्गुण अपनी जगह पर शोभा देता है। अभय गुण है लेकिन जहां डरना चाहिए वहां जरूर डरना चाहिए।कुछ डर अच्छा है जैसे कि मां _पिता बच्चे को अग्नि से डरना सिखाते हैं। डर बुरा है लेकिन योग्य जगह पर ही अच्छा होता है।


             स्वजन आसक्ति  निमित्त अर्जुन को जो शोक निर्माण हुआ वह उसके मन,बुद्धि,ह्रदय पर आघात कर रहा है। कृष्ण ने अर्जुन को इस आसक्ति निवारण के लिए  उससे कहा, कि  अर्जुन तू निर्वीर्य मत बन । तुझे यह सब बिल्कुल शोभा नहीं देता। क्षुद्र ,निर्बल वृत्ति छोड़कर छोड़कर तू उठ खड़ा हो। बाबा विनोबा ने बताया कि परमार्थ साधना का मुख्य आधार अंतःशक्ति ही है।

बाहर की परिस्थिति की अनुकूलता या प्रतिकूलता गौण है।यह अनुकूल न हो तो विरोध कर सकते हैं ।लेकिन अंतः शक्ति नहीं होगी तो साधना ही नहीं होगी ।देखने में अर्जुन की भाषा अहिंसा और संन्यास की लगती है। वह कहता है वे मुझे भले ही मार डालें , मैं मरने को तैयार हूं। ये बातें अर्जुन दुर्बलता के कारण बोल रहा है । बाबा विनोबा कहते थे कि  हिंदुस्तान की आम भक्तिमार्गी जनता में यह दुर्बलता है कि हमारे हांथ से क्या होने वाला है ,भगवान जो करेगा वही.... यह दुर्बल वृत्ति है। *भक्ति मार्ग दुर्बलता से नहीं ,वीरता से स्वीकार किया जाता है*। 


अर्जुन ने कुछ मन की तैयारी करते हुए कहा कि चलिए कृष्ण हम आपकी बात मान लेते हैं ।मुझे दुर्योधन को मारने में आपत्ति नहीं। 


 और अन्य संबंधियों की स्वजनआसक्ति भी में छोड़ सकता हूं। लेकिन भीष्म_ द्रोण हमारे पूज्यनीय हैं। पूज्य गुरुजनों को मारने की अपेक्षा भिक्षा मांगकर भी जीना हमें मंजूर है लेकिन.... 


 जबकि उपनिषद मानता है कि क्षत्रिय की दृष्टि से भिक्षा मांगना उचित नहीं है, इसका अर्जुन को खूब भान है फिर भी अर्जुन कहता है कि वह भी मांग लूंगा।                महान कवि कालिदास ने भी कहा ही है, *प्रतिबधन्याति हि श्रेय:पूज्य_ पूजा _व्यतिक्रम:।* पूज्य पुरुषों की पूजा होने के बदले उल्टा होगा अर्थात अपूजा होगी तो श्रेयो_ हानि होती है।       

       युद्ध में किसकी विजय होगी,यह प्रश्न सदैव संशय युक्त रहता है।इसके बजाय अर्जुन ने यहां एक नैतिक प्रश्न कृष्ण के समक्ष  उपस्थित किया कि युद्ध में किसकी विजय होना उचित है। प्रश्न अच्छा है किसकी जय से कल्याण होगा?        महाभारत के समय आधे से ज्यादा हिंदुस्तान कौरवों की तरफ था।पंजाब,बंगाल,उड़ीसा  उत्तरप्रदेश,बिहार यह उत्तर और पूर्व का हिस्सा कौरवों के पक्ष में था। गुजरात राजस्थान के लोग पांडवों की तरफ थे।महाराष्ट्र आदि किधर थे ,यह निश्चित नहीं कहा जा सकता क्योंकि दक्षिण के कितने लोग आए थे यह बहुत मालूम नहीं। भारत के दो भाग पड़ गए थे।बलराम की सहानुभूति दुर्योधन की ओर और कृष्ण की पांडवों की ओर।