युवाओं के प्रेरणाश्रोत आचार्य विनोबा भावे बनें_ अंकित मिश्रा

Acharya Vinoba Bhave became the source of inspiration for the youth - Ankit Mishra
 
लखनऊ डेस्क (आर एल पाण्डेय)। युवाओं के प्रेरणाश्रोत सदैव आचार्य विनोबा भावे बने रहेंगे_ अंकित मिश्रा। उक्त विचार विनोबा विचार प्रवाह परिवार की मासिक संगोष्ठी के वक्ता श्री अंकित मिश्रा जो गांधी स्मारक निधि भोपाल के युवा मित्र है।उन्होंने कहा कि इस धरती पर विनोबा हुए बहुत पुरानी बात नहीं है। वमुश्किल 5 दशक पहले 80 वर्षीय विनोबा भावे हमारे बीच थे। या कहें की 29 वर्षीय विनोबा आज से एक सदी पूर्व हमारे बीच में ही थे। हम हमेशा ऐसा मानते हैं कि गांधी और विनोबा केवल बुजुर्गों के मार्गदर्शक हैं। नौजवानों का उनसे कोई वास्ता नहीं है। लेकिन सवाल इस बात का है कि जवानी के बाद ही बुढ़ापा आता है जवानी की तपस्या और त्याग ही व्यक्ति को अनुभव युक्त और बढ़ती उम्र में चमकदार बनाता है। तब हमारी पीढ़ी के नौजवानों को उन 21 वर्षीय विनायक नरहरि भावे को समझना बहुत जरूरी है। कि आखिर वह विनोबा कैसे बने? उनका सार्थक जीवन आज भी करोड़ों लोगों के लिए मार्गदर्शक है,

जिससे लाखों लोगों की जिंदगियां बदली है। ऐसे में हम विनोबा भावे को केवल भूदान आंदोलन के जनक या सर्वोदयी नेता तक ही सीमित नहीं कर सकते और न ही वह प्रतियोगी परीक्षाओं के विद्यार्थिओं के लिए प्रथम रैमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता व 1983 में भारत रत्न से सम्मानित व्यक्ति की जानकारी तक सीमित हो सकते हैं। बल्कि जनता के दिलों का विश्वास जीतकर इन उपलब्धियों तक पहुंचने वाले विनोबा के नैतिक चरित्र को हमें समझना होगा। खासतौर से विनोबा भावे के युवापन को हमें खोजना होगा ताकि विनोबा ना सही लेकिन उनके चरित्र से उज्ज्वल इंसान बनने का मार्ग हमें मिल जाए। 

संस्कार - पिता जी बड़ौदा में नौकरी करते थे ।दीपावली में पिताजी घर आते तब बच्चे मिठाई की प्रतीक्षा करते। एक दिन वे बॉक्स में मिठाई लाये। तब वीनू की मॉ को अचरज हुआ। जब बक्से को खोला तो देखा कि मिठाई के बदले ‘‘बाल रामायण’’ और ‘‘बाल महाभारत‘‘ की किताबे थीं। मॉ बोलीं-बेटा, तुम्हारे पिताजी तो अद्भुत मिठाई लाये हैं। इससे अच्छी दूसरी मिठाई कौन सी हो सकती है। यह देखकर बालक विनोबा की आंखे चमक उठी। बड़े हो जाने पर विनोबा को इन्हीं सुन्दर पुस्तको से बढ़कर कोई मिठाई अच्छी नहीं लगी।

स्वाध्याय - विनोबा, बचपन से ही अध्ययनशील व्यक्ति थे, वह कहते थे मुझे तो       शिक्षक बनना पसंद है क्योंकि इससे मैं विद्यार्थी बना रहता हॅू। स्कूली शिक्षा के दौरान विनोबा ने हजारों, किताबें अक्षरश: पढ़ी। मराठी, संस्कृत, हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी, फ्रेंच इन 6 भाषाओं के उत्तम ग्रन्थ पढ़ें। विनोबा खुद लिखते है कि मैंने 50 वर्षों में वेद-वेदांत, रामायण, महाभारत, भागवत, योगवशिष्ठ, योगसूत्र, गहनसूत्र, सांख्य सूत्र सहित 33 भाष्य पढ़े। उन्हें लगभग 22 भाषाओं का ज्ञान था। 50 हजार पद उन्हें कण्ठस्थ थे। विनोबा लिखते हैं कि "माँ के दूध ने केवल मेरे शरीर को पोषण दिया, वहीं मेरे मन व बुद्धि को गीताई ने जीवन भर पोषण दिया।

दृढ़ निश्चय - दस साल में विनोबा ने दासबोध व ज्ञानेश्वरी पूरी पढ़ ली। लगभग 40 हजार श्लोक कष्ठस्थ कर लिये। एक बार संवाद करते हुए मॉ ने विनोबा से कहा, विनायक शास्त्र में ऐसा  लिखा है कि गृहस्थाश्रम स्वीकार करने पर माता-पिता का उद्धार होता है और अखण्ड ब्रम्हचर्य व्रत का पालन करने से उनकी बयालीस पीढ़ियों का उद्धार होता है। माँ की इस बात को सुनकर विनोबा नैष्टिक ब्रम्हचारी बनकर पूरे जीवन जय जागत के लक्ष्य को साकार करने में लगे रहे।उनके दो भाई बालकोबा और शिवाजी भावे भी ब्रम्हचारी हुए।

आत्मविश्वास - गणित, विनोबा का प्यारा विषय था। उस पर प्रभुत्व भी ऐसा कि शिक्षक दुविधा में पड़ जाये तो विनायक उसे सुलझा दें।
गणित से उनका आत्मविश्वास भी इतना बढ़ गया कि वह उनके लिए नित्य आनंद की चीज बन गई। एक बार शिक्षक बोर्ड पर सवाल हल कर रहे थे लेकिन उत्तर नही आ रहा था, तब विनोबा से कहा कि वे इसे हल करें।और विनोबा के हल करते ही उत्तर आ गया और वह आत्मविष्वास से बोले ‘‘ सर किताब में जो उत्तर छपा है वह गलत है।’’ उसके बाद तो विनोबा रोज गणित लगाते। विनोबा कहते हैं कि हमें गणित रोजाना हल करना चाहिए यह हमारी जड़ता व संकुचित बुद्धि को खत्म करके तर्क क्षमता को बढ़ाती है।  विनोबा जी अधिकांशत: अपनी बात को गणित के सूत्र में कहते। एक बार तो उन्होंने जीवन का समीकराण ही बना दिया। त 2 + भ 1 = जीवन। त यानि त्याग जीवन में दो मात्रा होना चाहिए और भ यानि भोग एक मात्रा। तब जीवन चलता है। विनोबा के इस गुण के कारण उन्हें गणितानंद भी कहा जाता है। वह कहते थे। भगवान के बाद अगर कोई चीज मुझे सबसे अधिक प्रिय है, तो वह है गणित।

साहस - बात 1913 की है जब विनोबा जी की उम्र महज 18 साल थी उन्होंने मैट्रिक पास करके बड़ौदा के इंटरमीडियेट कॉलेज में प्रवेश लिया। पंरतु आधुनिक ढंग की पढ़ाई के प्रति उनके मन में कभी आकर्षण नहीं रहा। प्रत्यक्ष जीवन में इसकी उपयोगिता के बारे में वे सदा बड़े कड़े आलोचक रहे। वे प्रायः मित्रों से कहा करते थे आजकल के स्कूल-कॉलेज तो ‘युअर मोस्ट ओबीडिएण्ट सर्वेण्टस’ ढालने वाले निरे बड़े-बड़े कारखाने हैं। उन्हें लगता था कि इस बीमारी से छुट्टी मिले। एक दिन विनोबा जब माँ के पास रसोई में बैठे थे तब उन्होंने कागजों का पुलिंदा आग की तरफ बढ़ा दिया। माँ ने कहा  ‘‘विन्या किसी दिन तेरे काम आयेंगे ये प्रमाण पत्र’’ विनोबा ने कहा नहीं इसकी मुझे कोई जरूरत नहीं है। वह मानते थे कि जीवन जीने की कला ही शिक्षण है।

निर्णय क्षमता - इंटर में पढ़ाई के दौरान विनोबा जी को दो बातें बहुत प्रभावित कर रहीं थी। एक थी बंगाल की क्रांति और दूसरी हिमलाय की शांति। या तो ब्रह्म की प्राप्ति की जाए या स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होकर देश को आजादी दिलाई जाए। इस विचार मंथन के बीच 1916 में वह इण्टर की परीक्षा देने बड़ौदा से बम्बई जाने वाली गाड़ी में चढ़े। परन्तु वह बीच रास्ते में ही सूरत में उतर गए और काशी का रास्ता पकड़ लिया। घर पर पत्र लिख दिया कि आपको भरोसा होगा कि मैं चाहे जहाँ जाऊंगा, पंरतु मेरे हाथों से कभी कोई अनैतिक काम नहीं होगा। 21 वर्षीय विनोबा में यह निर्णयक्षमता दूरदर्शी सोच व नैतिक निष्ठा से ही संभव हो सकी। और वह दो महीने काशी में उपनिषदों का अध्ययन करके महात्मा गांधी के काशी हिंदू विश्वविद्यालय में दिए भाषण से प्रभावित होकर 07 जून 1916 में साबरमती आश्रम पहुंचे और महात्मा गांधी से मिलकर उन्होंने कहा कि आज मुझे बंगाल की क्रांति व हिमालय की शांति दोनों मिल गई। तथा बापू ने विनोबा से मिलकर कहा कि ‘‘लोग आश्रम में कुछ पाने के लिए आते है। पंरतु विनोबा तो आश्रम को अपने पुण्यों से सिंचित करने आए हैं। वे पाने नहीं देने के लिए आए हैं आश्रम के दुर्लभ रत्नों में से वे एक है।

गुण दर्शन - विनोबा जी हमेशा  गुण दर्शन की बात करते थे। हम जिसे बुरा कहते हैं उसकी बुराई करते है जबकि विनोबा जी उसमें भी दोष की जगह गुण देखते थे। भूदान यात्रा के समय जब वह बागियों के क्षेत्र से गुजर रहे थे तब किसी ने कहा कि बाबा आप बागियों के क्षेत्र में हैं फ़ौरन बाबा ने कहा कि मैं डाकुओं के नहीं,बल्कि सज्जनों के प्रदेश में पहुँच रहा हूॅ। आप यदि बागी हैं तो मैं भी बागी ही हूँ। आपका मित्र हूँ। बाबा कहते थे कि अगर व्यक्ति का हम गुणदर्शन करेंगे तो उससे हमें ज्यादा लाभ मिलेगा। जिस तरह हम गंदगी को नहीं देखते वैसे ही हमें दोष नहीं देखना चाहिए। गुण दरवाजा है और दोष दीवार हैं। अगर हम दीवार की तरफ जायेंगे तो टकरायेंगे और दरवाजे से जायेंगे तो उसके अंदर के नैतिक चरित्र को प्राप्त कर लेंगे।

सादगी - सादे जीवन का मतलब व्यक्ति विशेष की जगह समाज के अंतिम व्यक्ति को ध्यान में रखते हुए जीवन जीना। खान-पान, रहन-सहन से शालीनता महसूस हो। आज के जमाने की जो आवश्यकताएं है, उन्हें परिवार व समाज का स्तर देखते हुए ही पूरा करना चाहिए। आज स्टेंडर्ड ऑफ लिविंग (जीवन का स्तर) की जगह ‘‘स्टेंडर्ड ऑफ कण्डक्ट’’ (आचरण का स्तर) बढ़ाने की जरूरत है। हम किन चीजों का स्तर बढ़ायेंगे? सिगरेट का, शराब का, कपड़ों का, व्यवहार का, भोजन का। यह हम तय करेंगे। तो हम प्रकृति की अनुपम कृति को साथ भी जोड़  सकें।

समय प्रबंधन - किसी के भी जीवन का यह महत्वपूर्ण सूत्र है। यदि हमने समय को साध लिया तो हम यथाशक्ति साध्य कर सकते है। विनोबा जी के जीवन की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसी की ताकत से वह अपने जीवन के तेरह वर्षों में लगभग 70 हजार कि.मी. पैदल चले, जिसमें लगभग 44 लाख एकड़ भूदान प्राप्त किया। विनोबा अपने आश्रम जीवन के दिनों में सबसे संयमी अनुशासित व स्वावलम्बी व्यक्ति थे। एक वर्ष की छुट्टी पर जब वह आश्रम से बाहर गये तो प्रतिदिन 10-12 मील चलते, 300 सूर्य नमस्कार, 6 से 8 सेर अनाज पीसते साथ में गीता, उपनिषद् का अध्ययन आश्रम के नियमों का पालन करते हुए किया करते। और जैसे ही एक वर्ष पूरा हुआ तो ठीक उसी मिनट विनोबा जी आश्रम वापस लौट आये। बापू ने प्रसन्न होकर कहा कि इससे तुम्हारी सत्यनिष्ठा प्रकट होती है। विनोबा बोले यह मेरी गणितनिष्ठा है। बापू ने मुस्कुराते हुए कहा कि गणित क्या कभी सत्य को छोड़ सकती है।
बापू उनके इस आचरण से बहुत प्रसन्न हुए और कहने लगे कि ‘‘तुम्हारे लिए कौन सा विशेषण काम में लाउॅ‘‘, यह मुझे नहीं सूझता। तुम्हारा प्रेम और तुम्हारा चरित्र मुझे मोह में डुबो दे रहा है। मैं तुम्हारे लिए पिता का पद ग्रहण करता हॅू। लेकिन सच्चा पुत्र वह है जो पिता के कर्माें में वृद्धि करे।