अवध की वरासत को संरक्षित करने में फिल्मों ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है : मुजफ्फर अली

 

  *"भारतीय फिल्मों में तहज़ीब-ए अवध" पुस्तक का विमोचन*

ब्यूरो चीफ आर एल पाण्डेय

लखनऊ। सिनेमा, जीवन से अलग नहीं है, फिल्मों ने अवध की विरासत को संरक्षित करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सभी कलाएं, चाहे वो नृत्य, संगीत, चित्रकला, कविता हो या फिल्म निर्माण, इसका उपयोग रचनात्मक भी हो सकता है और विनाशकारी भी। कला के माध्यम से मनुष्य समाज को सुंदर बना सकता है, क्योंकि कला तब तक एक अभ्यास है, या प्रशिक्षण से परे, जब तक व्यक्ति पूजा, तपस्या और आध्यात्मिकता की सीमा में प्रवेश नहीं करता, तब तक उसे जीवन नहीं मिल सकता है। उक्त विचार प्रसिद्ध फिल्म निर्माता, फैशन डिजाइनर, चित्रकार, सूफी और वरिष्ठ समाजसेवी मुजफ्फर अली बतौर मुख्य अतिथि अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज (ए0 आई0 आई0 एस0) में 'हिन्दुतानी फिल्मों में तहज़ीब-ए-अवध पुस्तक के विमोचन के अवसर पर व्यक्त किये। उन्होंने आगे कहा कि फिल्मों के माध्यम से जनता तक अपनी बात पहुंचाई जा सकती है। अवध की सभ्यता और संस्कृति लखनऊ, कोलकाता, मुंबई और फिर दिल्ली प्रवास के दौरान हमेशा मेरे साथ रही है। 

डॉ. डॉ0 मुंतज़िर कायमी की किताब " हिदुस्तानी फिल्मों में तहज़ीब-ए-अवध", जो पहली बार आज से लगभग बारह साल पहले उर्दू में प्रकाशित हुई थी, अब डॉ0 प्रार्थना सिंह की मेहनत और प्रयास से हिन्दी के बड़े दर्शकों तक पहुँची है। इससे यह पता चलता है कि अवध की विभिन्न कलाएँ सिनेमा तक कैसे पहुँची हैं।


       कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि और प्रसिद्ध इतिहासकार तथा अवध के इतिहास और संस्कृति पर विशेष स्थान रखने वाले डॉ0 रोशन तकी ने कहा कि अंग्रेजों ने हमें जो औपनिवेशिक संस्कृति सौंपी, क्या वो हमारी फिल्मों में दिखाई देती है। यह इतिहासकारों की जिम्मेदारी है कि सत्यता को प्रस्तुत करें। मुजफ्फर अली की वर्तमान समय में आत्मकथा 'जिक्र' के बारे में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि पुस्तक का नाम एक प्रतीकात्मक स्थिति रखता है, जिसमें एक तरफ जिक्र का सिलसिला सूफी सम्प्रदाय में इसका प्रयोग एक विशेष अर्थ में किया जाता है। वहीं दूसरी ओर इसका तात्पर्य पैगम्बरों से भी है और सामान्य अर्थ में व्यक्ति अपने इतिहास का उल्लेख कर सकता है। सूफीवाद के बारे में उन्होंने कहा कि जिस प्रकार मछली को तैरना नहीं सिखाया जाता लेकिन जिस वातावरण और समाज में वह रहता है, उसी वातावरण में लोगों और उसके रहस्यमय विचार घुले हुए हैं। डॉ0 मुंतज़िर कायमी ने कहा कि यह सच है कि हमारी फिल्मों ने सभ्यता को विकसित करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।

लखनऊ की सभ्यता और संस्कृति को परवान चढ़ाने में हमारी फिल्मों का बहुत अहेम रोल है। जिससे उन्हें बहुत लाभ हुआ। हम कथक, ठुमरी, दादरा, मुजरा, कव्वाली और तवाएफबाज़ी को अवध की संस्कृति मानते हैं क्योंकि इन कलाओं को सिनेमा के माध्यम से पर्दे पर दिखाया जाता है। जबकि अवध की सभ्यता और संस्कृति इससे कहीं अधिक है।
अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में प्रसिद्ध फ़ारसी विद्वान प्रोफेसर आरिफ़ अय्यूबी ने बताया कि कैसे उन्होंने फ़ारसी भाषा और साहित्य सिखाने के लिए हिंदी फिल्मों का उपयोग किया, जिसके माध्यम से कोई भी फ़ारसी भाषा और साहित्य आसानी से सीख सकता है।

मुजफ्फर अली द्वारा मैंने अधिकांश के दृश्यों, संवादों और गीतों का उपयोग किया छात्रों के फ़ारसी ज्ञान के लिए जिसका परिणाम बहुत अच्छा रहा। मुज़फ्फर अली का आना हम सभी के लिए प्रसन्नता का विषय है, क्योंकि कई अमेरिकी शैक्षणिक संस्थान उर्दू भाषा और साहित्य और लखनऊ की संस्कृति को सीखने और छात्रों को इससे परिचित कराने के लिए यहाँ आते हैं। अवध की संस्कृति, उमरावजान, अंजुमन, गमन और आगमन जैसी फिल्में भी दिखाई जाती हैं।  कार्यक्रम के संचालन का दायित्व डॉ0 एहतशाम खान ने निभाया।

अंत में डॉ. प्रार्थना सिंह ने सभी अतिथियों एवं प्रतिभागियों एवं श्रोताओं को धन्यवाद ज्ञापित किया। कार्यक्रम में विशेष रूप से पत्रकार एवं लेखक प्रदीप कपूर, दृष्टिहीनों के लिए काम करने वाले, रोगों के विशेषज्ञ रोहित मीत उपस्थित रहे। कार्यक्रम में डॉ0 सरदार मेहदी, डॉ. दीबा मेंहदी आबदी, फखरुद्दीन अली अहमद राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय की प्राचार्या डॉ0 सीमा सिंह, डॉ0 सना परवीन अंसारी, डॉ0 असमी सिद्दीकी, कल्बे आबिद, काजमी फातिमा, मुहम्मद शोएब, कल्बे अब्बास एवं अभय कुमार एवं अनेक छात्र एवं अवध संस्कृति प्रेमी उपस्थित रहे।