साल 2014 से लेकर अबतक यानी 10 सालों में देशभर में कई बदलाव आए हैं जानिए
चलिए सबसे पहले हम वन नेशन-वन इलेक्शन के बारे में जानते हैं कि आखिर ये क्या है, कैसा प्रोसेस है और साथ ही हम इसकी हिस्ट्री पर भी बात करेंगे. आपको मालूम है कि भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में हर कुछ महीनों के अंतराल में कहीं ना कहीं चुनाव होते रहते हैं, पूरे देश का ध्यान उस तरफ चला जाता है, सियासत तेज होती है, चुनाव आयोग हरकत में आता है, सुरक्षा सहित तमाम सरकारी इंतजाम करने होते हैं, आचार संहिता लागू हो जाती है और केंद्र व राज्य सरकार की ओर से जनता के लिए किए जाने वाले विकास कार्यों का sequence बार बार interrupt होता है... एक देश एक चुनाव की perception में राज्यों और केंद्र के चुनाव एक साथ होंगे ताकि आने वाले कई सालों तक seamlessly काम कर सकें.
इसके इतिहास पर बात करें तो.
One Nation One Election का Idea कम से कम 1983 से ही चला आ रहा है, जब चुनाव आयोग ने पहली बार इस पर विचार किया था... हालांकि, 1967 तक, भारत में एक साथ चुनाव कराना एक आदर्श नियम था. लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के लिए पहला आम चुनाव 1951-52 में एक साथ आयोजित किया गया था.
ये practise 1957, 1962 और 1967 में हुए तीन आम चुनावों में भी जारी रही. हालांकि, 1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं के समय से पहले भंग होने की वजह से ये चक्र टूट गया.1970 में, लोकसभा को समय से पहले ही भंग कर दिया गया और 1971 में नए चुनाव कराए गए. इस तरह, पहली, दूसरी और तीसरी लोकसभा ने पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा किया. लोक सभा और विभिन्न राज्य विधान सभाओं के समय से पहले Dissolution और Tenure Expansion के परिणामस्वरूप, लोक सभा और राज्य विधान सभाओं के लिए अलग-अलग चुनाव हुए हैं, और एक साथ चुनाव कराने का चक्र टूटा है.
आपको बता दें कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने साल 1970 में लोकसभा भंग करवा दी थी और तय समय से 15 महीने पहले ही 1971 में आम चुनाव करवा दिए थे. इंदिरा अल्पमत सरकार चला रही थीं और पूर्ण सत्ता चाहती थीं. उनके इस फैसले ने राज्य विधानसभा चुनावों को आम चुनाव से अलग कर दिया था.ये तो रही इतिहास की बात, अब चलिए जानते हैं कि वन नेशन-वन इलेक्शन का कॉन्सेप्ट किफायती होता है या फिर इससे फिज़ूलखर्ची होती है.
देखिए साल 2018 में लगाए गए अनुमान के मुताबिक, लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग-अलग कराए जाने पर सरकारी खजाने पर 10 हजार करोड़ रुपये का Burden पड़ता है. साल 2019 लोकसभा चुनाव को लेकर सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की रिपोर्ट में ये आंकड़ा 10 से 12 हजार करोड़ रुपये आंका गया था, लेकिन अगर ये चुनाव एक साथ कराए जाएंगे तो ये आंकड़ा घटकर 4500 करोड़ रुपये हो जाएगा. यानी एक साथ चुनाव कराने पर करीब 5500 करोड़ रुपये की बचत होगी. तो वन नेशन-वन इलेक्शन का कॉन्सेप्ट एक तरह से बहुत ज्यादा किफायती हुआ
आपको बता दें कि लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव, दोनों में चुनाव आयोग को कई तरह के खर्चों से गुजरना पड़ता है. इनमें अधिकारियों और सशस्त्र बलों की तैनाती, मतदान केंद्र स्थापित करना, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों यानी EVMs की खरीद और अन्य जरूरी उपकरण की व्यवस्था शामिल है. इसके साथ ही जागरूकता कार्यक्रम चलाने में भी खर्च होता है.
इनमें से EVMs की खरीद एक बड़ा खर्च ह. चुनाव आयोग को अपने अधिकारियों और स्वयंसेवकों को उनके चुनावी कार्य के लिए बड़ा पेमेंट करना पड़ता है. अधिकारियों को ट्रेनिंग और यात्रा के लिए पेमेंट किया जाता है. इसके अलावा, चुनाव आयोग राजनीतिक दलों के चुनावी अभियानों और मतदान प्रक्रिया की वीडियोग्राफी भी कराता है, जिससे खर्च और बढ़ जाता है. और सोचिए इतना सब कुछ उसको हर कुछ महीनों के अंतराल में ही करना पड़ता है. लेकिन अगर वन नेशन-वन इलेक्शन का मसौदा लागू होता है तो फिर खर्चा कितना काम हो जाएगा, इसका आप खुद अंदाज़ा लगा सकते हैं
वैसे हो सकता है कि आपका मन में ये भी सवाल उठ रहा हो कि वन नेशन-वन इलेक्शन के लागू होने के बाद क्या देश के आम लोगों पर भी किसी तरह का कोई असर होगा? तो हम आपको बता दें कि बिल्कुल असर होगा. राहत की बात ये है कि ये असर पॉज़िटिव होगा... देखिए क्या है ना कि चुनाव में जो भी खर्च होता है, वो होता तो इनडायरेक्टली आपका ही पैसा है ना, जिसे आप टैक्स के तौर पर सरकार को देते हैं. तो अब जब देशभर में एक ही समय पर चुनाव होने से सरकार का वो पैसा या आपका वो पैसा बचेगा.जो कि फिर आपके और देश के डेवलपमेंट पर ही इस्तेमाल किया जाएगा.
बहरहाल, वन नेशन वन इलेक्शन प्रस्ताव को कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद माना जा रहा है कि 2029 के लोकसभा चुनावों तक इसको अमलीजामा पहनाया जा सकता है... इसके तहत हम लोग फिर वैसे ही व्यवस्था में पहुंच जाएंगे जब देश में एक साथ लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव होते थे. अब कहा जा रहा है कि कोविंद कमेटी की सिफारिशें लागू करने के बाद फिर से पुरानी छूटी हुई व्यवस्था को स्वीकार कर लिया जाएगा लेकिन क्या मौजूदा दौर में ये सब इतना आसान है जितना कहा जा रहा है? कहीं ये पूरी कवायद 'आधी हकीकत आधा फसाना' जैसी कहावत न बनकर रह जाए?