विकास की उल्टी गंगा से बदहाल होती जीवनदायिनी गंगा

Ganga, which gives life, is deteriorating due to reverse development.
 
कुमार कृष्णन -विभूति फीचर्स) हिमालय की नदियों और पर्वतों की संवेदनशीलता को बचाए रखना एक चुनौती के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। हिमालयी राज्यों के विकास मॉडल को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। सवाल आम आदमी ने उठाए तो इन राज्यों में रहने वाले खास लोगों ने भी उठाये। सवाल सुप्रीम कोर्ट ने भी अनेक मौकों पर उठाए तो उन हस्तियों ने भी उठाए जिन पर भारत सरकार ने अनेक मौकों पर भरोसा किया,जिम्मेदारियाँ सौंपीं। गंगा एक्शन प्लान से लेकर अनेक विकास परियोजनाओं को लेकर बनी कमेटियों के सदस्य, चेयरमैन तक रहे वैज्ञानिक रवि चोपड़ा ने भी सवाल उठाए लेकिन विकास के नाम पर आम से लेकर खास तक की अनसुनी की गयी। 
किसने की, कब की, क्यों की, अब यह किसी से छिपा नहीं है। पर्यावरणविद सुरेश भाई कहते हैं कि हिमालय में हैवी कंस्ट्रक्शन संभव नहीं है फिर भी हम करते जा रहे हैं।हिमालय में बहुमंजिली इमारतों की जगह नहीं है फिर भी हम बनने दे रहे हैं । विकास के नाम पर पानी बहाव के अनेक रास्ते बंद हो गये हैं जबकि पहाड़ों से रिसाव बना हुआ है। यही रिसाव लोगों के घरों-प्रोजेक्ट तक पहुंचता है।दरों-दीवारों को कमजोर करता है। नतीजतन, हल्का सा भूकंप आने पर ऐसे भवन इमारतें धराशायी होते हुए देखे जा रहे हैं। जान-माल का नुकसान न हो तो शोर भी नहीं होता।गंगा भागीरथी अपने उद्गम स्थल के पहले ही उत्तरकाशी से ही दूषित हो रही है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल , हाईकोर्ट, पर्यावरण मंत्रालय की रोक के बाद भी गंगा नदी में धड़ल्ले से बेरोक-टोक माफिया खनन कर रहे हैं और सड़क निर्माण में लगी निर्माण एजेंसियां ऑल वेदर सड़क निर्माण का हजारों टन मलबा सीधे भागीरथी नदी में उड़ेल रहे हैं।
 इससे गंगा नदी की स्वच्छता और अविरलता को खतरा पैदा हो गया है और ऐसा लग रहा है कि ज़िला प्रशासन जान-बूझकर आंखे मूंदे हुए है।जीवनदायिनी और पूजनीय गंगा नदी इन दिनों अपनी दुर्दशा पर रो रही है। सड़क निर्माण कार्य में लगी ऑल वेदर निर्माण एजेंसियां और ज़िले में सक्रिय हुए खनन माफिया नदी में इस कदर तक खनन कर रहे हैं किनदी की धारा ही परिवर्तित हो जा रही है।भागीरथी नदी के किनारे चिन्यालीसौड़ से लेकर उत्तरकाशी जिला मुख्यालय तक कई जगह ऑल वेदर सड़क निर्माण कार्य का मलबा सीधे नदी में डाला जा रहा है तो दूसरी ओर खनन माफिया नदी के बीचों-बीच बड़ी-बड़ी पोकलैंड जैसी मशीनें उतारकर कर नदी में खनन कर रहे हैं।
पर्यावरणविद् सुरेश भाई कहते हैं कि खुलेआम गंगा और हिमालय के पर्यावरण, पारिस्थितिकी से खिलवाड़ किया जा रहा है जो बहुत दुखद है और इससे जो नुक़सान हो रहे हैं उनकी भरपाई नहीं की जा सकेगी।
पहाड़ से उतर कर मैदानी इलाकों में बिहार और झारखंड में सबसे अधिक लंबा प्रवाहमार्ग गंगा का ही है। शाहाबाद के चौसा से संथाल परगना के राजमहल और वहां से आगे गुमानी तक गंगा के संगम तक गंगा का प्रवाह 552 किलोमीटर लंबा है। गंगा बिहार और झारखंड की भूमि में अपने प्रभूत जल को फैलाती है एवं इसकी भूमि को शस्य श्यामला करती हुई बहती है। इस स्थिति का आकलन करते हैं तो मछुआरे, किसानों, नाविकों और पंडितों की जीविका का आधार है गंगा। गंगा के किनारे बसे मछुआरों ने गंगा को प्रदूषित होते हुए देखा है, उसकी दुर्दशा होते देखी है। 
विकास की गलत अवधारणा के कारण गंगा में बाढ़ और कटाव का संकट पैदा हो गया है। कल-कारखानों का कचरा नदियों के जल को प्रदूषित कर रहा है और पानी जहरीला होता जा रहा है। भागलपुर विश्वविद्यालय के दो प्राध्यापकों केएस बिलग्रामी, जेएस दत्ता मुंशी ने एक अध्ययन से खुलासा किया था कि बरौनी से लेकर फरक्का तक 256 किलोमीटर की दूरी में मोकामा पुल के पास गंगा नदी का प्रदूषण भयानक है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने एक मई, 2024 को दिए अपने आदेश में राज्य और जिला अधिकारियों को पानी की गुणवत्ता का विश्लेषण करने के बाद रिपोर्ट प्रस्तुत करने का आदेश दिया था। उन्हें उन जगहों से नमूने एकत्र करने का निर्देश दिया गया जहां सहायक नदियां गंगा में मिलती हैं और राज्य में नदी के प्रवेश और निकास बिंदुओं से उसके नमूने लेने के लिए कहा गया था।  
ट्रिब्यूनल ने सभी 38 जिलों से रिपोर्ट मांगी थी। साथ ही बिहार सरकार द्वारा इन्हें अदालत द्वारा की गई टिप्पणियों के आधार पर संकलित करने के लिए कहा गया था। इस आधार पर बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने गंगा में उस जगह से नमूने एकत्र किए हैं जहां सहायक नदियां मिलती हैं। इसके साथ ही राज्य में नदी के प्रवेश बिंदु और निकास बिंदु से भी पानी के नमूने एकत्र किए हैं। बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ऐसे 646 उद्योगों की पहचान की है जो दूषित पानी उत्पन्न कर रहे हैं। इनमें 105 उद्योग अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों की श्रेणी में आते हैं, जबकि 541 अन्य उद्योग शामिल हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने विभिन्न जिलों में इन बेहद प्रदूषणकारी उद्योगों का निरीक्षण करने का काम थर्ड पार्टी एजेंसियों को सौंपा है।
इनमें नेशनल शुगर इंस्टिट्यूट, आईआईटी बीएचयू, एनआईटी पटना, मुजफ्फरपुर में एमआईटी और केंद्रीय विश्वविद्यालय दक्षिण बिहार (सीयूएसबी) शामिल हैं। रिपोर्ट में यह भी जानकारी दी है इनमें से जो अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों की श्रेणी में आते हैं उन्होंने कचरे के उपचार और निपटान के लिए अपशिष्ट उपचार संयंत्र (ईटीपी) स्थापित किए हैं।
बिहार में गंगा का पानी नहाने लायक भी नहीं है। गंगा की जल गुणवत्ता पीएच, घुलनशील ऑक्सीजन (डीओ), और बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) के मानकों को पूरा करती है। हालांकि, यह स्नान के लिए सुरक्षित आवश्यक बैक्टीरियोलॉजिकल मानकों जैसे टोटल कोलीफॉर्म और फीकल कोलीफॉर्म को पूरा नहीं करती है। गंगा तथा अन्य नदियों के प्रदूषित और जहरीला होने का सबसे बड़ा कारण है कल-कारखानों के जहरीले रसायनों का नदी में बिना रोकटोक के गिराया जाना। कल-कारखानों या थर्मल पावर स्टेशनों का गर्म पानी तथा जहरीला रसायन या काला या रंगीन एफ्लूएंट नदी में जाता है, तो नदी के पानी को जहरीला बनाने के साथ-साथ नदी के स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता को नष्ट कर देता है। नदी में बहुत-से सूक्ष्म वनस्पति होते हैं जो सूरज की रोशनी में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाते हैं, गंदगी को सोखकर ऑक्सीजन मुक्त करते हैं।
पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों पर काम करने वाली संस्था इनवॉइस फाउंडेशन के मुख्य पदाधिकारी सौरभ सिंह बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में गंगा के पानी में बैक्टीरिया का प्रदूषण बढ़ा है और इसका सीधा असर वाराणसी के आसपास रहने वाले लोगों के स्वास्थ पर देखा जा सकता है। सौरभ उत्तर प्रदेश और बिहार के गंगा से सटे इलाकों में भूजल प्रदूषण और उसमे आर्सेनिक और नाइट्रेट के प्रदूषण पर कई सालों से काम कर रहे हैं और गंगा में बढ़ रहे प्रदूषण के कारण भूजल और इससे होने वाली फसलों में नुकसान की आशंका जताते हैं।गंगा बेसिन के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा संयुक्त राष्ट्र के मानकों से कहीं ज़्यादा पायी जाती है और इस पूरे क्षेत्र के भूजल में आर्सेनिक का प्रदूषण व्याप्त है जो कि एक बड़ी समस्या है।
भूजल में आर्सेनिक की उपस्थिति काफी ऊपरी सतह पर पायी जाती है इसलिए ऐसे इलाकों में शुद्ध पानी के लिए गहरे बोरवेल किये जाते हैं। लेकिन अगर गंगा के पानी में प्रदूषण बढ़ता है और इससे भूजल भी प्रभावित होता है तो ऐसे में इन क्षेत्रों के लोगों के लिए ऊपरी और निचली दोनों सतहों का भूजल उपयोग योग्य नहीं बचेगा। इसका सबसे बुरा असर मछुआरों के रोजी-रोजी एवं स्वास्थ्य पर पड़ रहा है।कटैया, फोकिया, राजबम, थमैन, झमंड, स्वर्ण खरैका, खंगशी, कटाकी, डेंगरास, करसा गोधनी, देशारी जैसी देशी मछलियों की साठ प्रजातियां लुप्त हो गयी हैं। फरक्का बैराज बनने के बाद स्थिति यह है कि गंगा में समुद्र से मछलियां नहीं आ रही हैं। परिणामस्वरूप गंगा में मछलियों की भारी कमी हो गयी है। 
मछुआरों की बेरोजगारी का एक बड़ा कारण है। 1971 में पश्चिम बंगाल में फरक्का बराज बना और 1975 में उसकी कमीशनिंग हुई। जब यह बराज नहीं था तो हर साल बरसात की तेज जलधारा के कारण 150 से 200 फीट गहराई तक प्राकृतिक रूप से गंगा नदी की उड़ाही हो जाती थी। जब से फरक्का बराज बना सिल्ट की उड़ाही की यह प्रक्रिया रुक गई और नदी का तल ऊपर उठता गया। सहायक नदियां भी बुरी तरह प्रभावित हुईं।
जब नदी की गहराई कम होती है तो पानी फैलता है और कटाव तथा बाढ़ के प्रकोप की तीव्रता को बढ़ाता जाता है। मालदह-फरक्का से लेकर बिहार के छपरा तक यहां तक कि बनारस तक भी इसका दुष्प्रभाव दिखता है। फरक्का बराज के कारण समुद्र से मछलियों की आवाजाही रुक गइ। फीश लैडर बालू-मिट्टी से भर गया। झींगा जैसी मछलियों की ब्रीडिंग समुद्र के खारे पानी में होती है, जबकि हिलसा जैसी मछलियों का प्रजनन ऋषिकेश के ठंडे मीठे पानी में होता है। अब यह सब प्रक्रिया रुक गई तथा गंगा तथा उसकी सहायक नदियों में 80 प्रतिशत मछलियां समाप्त हो गईं। गंगा से बाढ़ प्रभावित इलाके का रकबा फरक्का बांध बनने से पूर्व की तुलना में काफी बढ़ गया। पहले गंगा की बाढ़ से प्रभावित इलाके में गंगा का पानी कुछ ही दिनों में उतर जाता था लेकिन अब बरसात के बाद पूरे दियारा तथा टाल क्षेत्र में पानी जमा रहता है। 
बिहार में फतुहा से लेकर लखीसराय तक 100 किलोमीटर लंबाई एवं 10 किलोमीटर की चौड़ाई के क्षेत्र में जलजमाव की समस्या गंभीर है। फरक्का बांध बनने के कारण गंगा के बाढ़ क्षेत्र में बढ़ोतरी का सबसे बुरा असर मुंगेर, नौवगछिया, कटिहार, पूर्णिया, सहरसा तथा खगड़िया जिलों में पड़ा। इन जिलों में विनाशकारी बाढ़ के कारण सैकड़ों गांव विस्थापित हो रहे हैं। फरक्का बराज की घटती जल निरस्सारण क्षमता के कारण गंगा तथा उनकी सहायक नदियों का पानी उलटी दिशा में लौटकर बाढ़ तथा जलजमाव क्षेत्र को बढ़ा देता है। इस बार के बाढ़ के दुष्परिणाम फरक्का के कारण देखने को मिले। फरक्का का सबसे बुरा हश्र यह हुआ कि मालदा और मुर्शिदाबाद की लगभग 800 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की उपजाऊ भूमि कटाव की चपेट में आ गयी और बड़ी आबादी का विस्थापन हुआ। दूसरी ओर बड़ी- बड़ी नाव द्वारा महाजाल, कपड़ा जाल लगाकर मछलियों और डॉल्फिनों की आवाजाही को रोक देते हैं। इसके अलावा कोल, ढाव और नालों के मुंह पर जाल से बाड़ी बांध देते हैं। जहां बच्चा देनेवाली मछलियों का वास होता है। बिहार सरकार ने अपने गजट में पूरी तरह से इसे गैरकानूनी घोषित किया है। बाड़ी बांध देने से मादा मछलियां और उनके बच्चे मुख्यधारा में जा नहीं सकते और उनका विकास नहीं हो पाता है। इसी कारण से गंगा में मछलियों का अकाल हो गया है।
नदियों की गाद बढ़ने के साथ-साथ नदियों की जलराशि भी निरंतर कम होती जाएगी। इससे हिमालय से लेकर मैदानी क्षेत्रों में पानी की समस्या बढ़ेगी, कृषि सबसे अधिक प्रभावित होगी, प्रदूषण चारों तरफ बीमारी के रूप में फैलेगा, जिसको हम जलवायु परिवर्तन के रूप में देख रहे हैं। बिहार में अस्सी के दशक में गंगा को पानीदारों यानी जलकर जमींदारों से मुक्त कराने के लिए गंगा ​मुक्ति आंदोलन का आगाज हुआ था।यदि 1974 के बाद के अहिसंक आंदोलन की चर्चा करें तो उनमें गंगा मुक्ति आंदोलन एक प्रमुख आंदोलन है। गंगा के सवाल को लेकर पुनः गंगा मुक्ति आंदोलन ने पूरे देश में गंगा पर काम करने वाले लोगों को एकजुट करने की दिशा में पहल आरंभ कर दी है । इसके तहत आगामी 28, 29 और 30 नवंबर को मुजफ्फरपुर में 'गंगा बेसिन: समस्या और समाधान ' विषय पर राष्ट्रीय विमर्श हो रहा है। 
इस आंदोलन के प्रणेता अनिल प्रकाश का कहना है कि‘‘बोध गया का भूमि-मुक्ति संघर्ष अपनी सफलता का एक चरण पूरा कर चुका था। तभी कहलगांव के मछुआरों और वहां के अन्य पुराने साथियों ने मुझे कहलगांव भागलपुर बुलाया। जहां गंगा के जमींदारों के शोषण और अत्याचार से त्रस्त मछुआरे अपनी मुक्ति की लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। सन् 1982 में जब मैं कहलगांव गया और गंगा की लहरों ने मुझे खींच लिया। 
तब से आज तक जब भी किसी नदी के किनारे जाता हूं या समुद्र तट पर खड़े होकर निहारता हूं तो एक खास तरह के आकर्षण की अनुभुति से गुजरने लगता हूं। नदियों के किनारे की बस्तियों में, मिट्टी के घरों और फूस की झोंपड़ियों में लोगों के साथ बरसोंबरस तक गुजरे दिन हमारे जीवन के अनमोेल दिन हैं। वहां काफी कुछ सीखने को मिला,आगे का रास्ता दिखाई पड़ा और मन को बड़ी ताकत मिली। नाविक, मछुआरे साथियों, दियारे किसानों, मछली बेचनेवाली महिलाओं और भैंस दुहनेवालों के साथ नाव पर बैठकर गंगा की लहरों में घूमते हुए जो अनुभव मिले, वे ज्ञानचक्षु खोलनेवाले थे। रात में नाव पर सोते जागते, कतार से लगी नावों पर मछली पकड़नेवालों के बच्चों से बतियाते, उन्हें पढ़ाते हुए, उनके साथ गाते, खेलते बहुत कुछ सीखा। संघर्षों और आंदोलनों के बीच से बहुत से सवाल पैदा हुए। पानी और जमीन के सामंती रिश्ते से लड़ते हए स्त्री-पुरुष समानता, जातिप्रथा के उन्मूलन, सांप्रदायिक सद्भाव के लिए जी-जान से लगे थे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढ़ते प्रभाव और साम्राज्यवादी विकास प्रणाली के खतरे की पहचान होने लगी थी। प्रदूषित होती नदियां, बाढ़ और जल-जमाव का बढ़ता प्रकोप, ऊसर होते खेेत, रोजगार के साधनों से उजड़ते लोगों की पीड़ा और आक्रोश से पनपे संघर्ष ने हमारी वैचारिक दिशा का निर्माण किया।’’दस वर्षो के अहिंसात्मक संघर्ष के फलस्वरूप गंगा को जलकर जमींदारी से मुक्त कराने में कामयाबी हासिल की। उस दौर में गंगा मुक्ति आंदोलन ने जो सवाल उठाये थे, वे आज भी प्रासंगिक हैं और इन सवालों का हल निकाला जाना और उन पर अमल करना अब बहुत ही आवश्यक है,तभी हम जीवनदायिनी गंगा और उस पर आश्रित पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं से लेकर मनुष्यों तक का संरक्षण कर सकेंगे।