Kumbh History : जब महाकुंभ में मिट्टी में मिल गई थी मुगलों की सेना

MahaKumbh 2025: Kumbh History, Significance & Unheard Facts | Kumbh In Mughal/British Era
 
 
Kumbh History : आस्था का सबसे बड़ा, जमावड़ा.. जिसमें शामिल होना यकीनन भगवान को पा लेने जैसा ही होता है.. संगम पर संतों का सैलाब, तन पर भस्म, माथे पर काला टीका, बाह-गले और कलाई पर मोटे-मोटे रूद्राक्ष धारण किए महाकाल के भक्त आस्था के सबसे बड़े जमावड़े में इकट्ठा होते हैं.घाट पर ऐसा सीन होता है कि मानों महादेव धरती पर अपने भक्तों को दर्शन देने आये हों. घाट पर इतनी energy के साथ ये सन्यासी, हर हर महादेव का जाप करते हैं कि मानों उनकी आवाज़ आसमान चीरते हुए सीधे भोलेनाथ तक पहुंचती है... आप समझ ही गए होंगे, बात हो रही है महाकुंभ की, जो महाकाल के भक्तों के लिए एक अमृत जैसा पर्व होता है. 

 45 दिनों तक चलने वाले इस महाकुंभ में 45 करोड़ Devotees आएंगे

इस साल 13 जनवरी से महाकुंभ मेले की शुरुआत होने जा रही है, जो कि 26 फरवरी तक चलेगा.उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले में ये भव्य आयोजन होने जा रहा है. पूरे 45 दिनों तक चलने वाले इस महाकुंभ में 45 करोड़ Devotees आएंगे, ये एक estimate number है..मतलब मोटे तौर पर देखें तो हर एक दिन में टोटल एक करोड़ Devotees और 45 दिनों में टोटल 45 करोड़. इतनी तो दुनिया के 41 देशों की population भी नहीं है. ज़ाहिर है करोड़ों लोगों का एक ही जगह इकठ्ठा होना, सरकार और प्रशासन दोनों के लिए किसी बड़े challenge से कम नहीं होता है. इस बार इतने बड़े महाआयोजन के लिए प्रशासन ने मेला क्षेत्र का दायरा 4,000 हेक्टेयर में फैला दिया है, और उसे 25 सेक्टरों में बांट दिया है.

दुनिया के कोने कोने से घसीट कर एक जगह इकट्ठा होने के लिए मजबूर कर देती है?

 क्यों मनाया जाता है ये महाकुंभ? आखिर लोगों की ये कैसी आस्था है कि वो उन्हें दुनिया के कोने कोने से घसीट कर एक जगह इकट्ठा होने के लिए मजबूर कर देती है? लोगों में महाकुंभ के दौरान ही गंगा में डुबकी लगाने का जुनून क्यों जागने लगता है? लोग ये बात अच्छी तरह से जानते हैं कि इतनी ओवर भीड़ में उनके अपने उनसे बिछड़ सकते हैं, बावजूद रिस्क लेकर वो महाकुंभ में पहुंचते हैं, ऐसा रिस्क क्यों लेते हैं लोग? आज हम आपको अपनी इस स्पेशल रिपोर्ट में महाकुंभ से जुड़े पूरे इतिहास को बताएंगे. लोगों में इसके लिए इतनी अहमियत क्यों है ये भी बताएंगे. इसके अलावा हम आपको महाकुंभ से जुड़े कुछ ऐसे तथ्यों से भी रूबरू करवाएंगे, जिन्हें शायद आपने पहले कभी नहीं सुने होंगे.

इन्द्र देवता ने महर्षि दुर्वासा को रास्ते में मिलने पर जब प्रणाम किया

देखिए पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक, एक बार इन्द्र देवता ने महर्षि दुर्वासा को रास्ते में मिलने पर जब प्रणाम किया तो दुर्वासा जी ने खुश होकर उन्हें अपनी माला दी, लेकिन इन्द्र ने उस माला को खुद के गले में ना डाल अपने हाथी के सिर पर डाल दिया, और हाथी ने क्या किया कि माला को सूंड से घसीटकर अपने पैरों से कुचल डाला... अब दुर्वासा जी को आ गया गुस्सा, और उन्होंने गुस्से में आकर इन्द्र को श्रीविहीन यानी सारी शक्तियों से रहित होने का शाप दे दिया. अब इस शाप के बाद इन्द्र घबरा गए और सीधे पहुंच गए ब्रह्माजी के पास. ब्रह्माजी को भी जब कुछ समझ नहीं आया तो वो इन्द्र को लेकर भगवान विष्णु के पास गए और उनसे इन्द्र की रक्षा करने की प्रार्थना की. भगवान विष्णु ने कहा कि इस समय असुरों का आतंक है, इसलिए तुम उनसे संधि कर लो, यानी कंप्रोमाइज कर लो और देवता और असुर दोनों मिलकर समुद्र मंथन कर अमृत निकालों. जब अमृत निकलेगा तो हम तुम लोगों को अमृत बांट देंगे और असुरों के हाथ कुछ नहीं लगेगा.

 हिमालय के पास देवता और दानवों ने समुद्र का मन्थन किया

तो अब शुरू हुआ अमृत मंथन. पृथ्वी के उत्तर भाग मे हिमालय के पास देवता और दानवों ने समुद्र का मन्थन किया... इसके लिए मंदराचल पर्वत को मथानी और नागराज वासुकि को रस्सी बनाया गया. Ultimately क्षीरसागर से पारिजात, ऐरावत हाथी, घोड़ा, रम्भा, कल्पबृक्ष शंख, गदा, धनुष, कौस्तुभमणि, चन्द्र मद, कामधेनु और अमृत कलश लिए धन्वन्तरि निकलें. इस कलश के लिए असुरों और दैत्यों में संघर्ष शुरू हो गया. अमृत कलश को दैत्यों से बचाने के लिए देवराज इन्द्र के बेटे जयंत बृहस्पति, चन्द्रमा, सूर्य और शनि की मदद से उसे लेकर भागे. ये देखकर दैत्यों ने उनका पीछा किया. ये पीछा बारह दिनों तक लगातार होता रहा. देवता उस कलश को छिपाने के लिए एक जगह से दूसरी जगह को भागते रहे और असुर उनका पीछा करते रहे.

 देवताओं ने अमृत कलश को लेकर हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक और उज्जैन शहरों के आकाश मार्ग से होते हुए गुजरे

 इस भागदौड़ में देवताओं को पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करनी पड़ी. इन बारह दिनों की भागदौड़ में देवताओं ने अमृत कलश को लेकर हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक और उज्जैन शहरों के आकाश मार्ग से होते हुए गुजरे... इसी दौरान इन चारों स्थानों में बहती नदियों यानी गंगा, गोदावरी और शिप्रा में कलश से अमृत की कुछ बूंदे छलक पड़ीं.और आखिर में कलह को शांत करने के लिए एक समझौता हुआ. भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर दैत्यों को भरमाए रखा और अमृत को इस तरह से बांटा कि दैत्यों की बारी आने तक कलश पूरा खाली हो गया... और इस तरह से जीत देवताओं की हुई अमृत कलश की बूंदे जिन नदियों पर पड़ीं, वहीं पर महाकुंभ का आयोजन होना शुरू हो गया. और ये चार जगह हैं हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और प्रयागराज कहते हैं कि देवताओं का एक दिन हम इंसानों के लिए एक साल के बराबर होता है, और अमृत मंथन पूरे 12 दिनों तक चला था, तो बस इसलिए 12 सालों में एक बार मनाया जाता है और इन्हीं चार शहरों में इसका आयोजन होता है.

हमारे देश में कई सैकड़ों सालों तक मुसलमान शासकों की हुकूमत थी

ये बात आप अच्छी तरह से जानते हैं कि हमारे देश में कई सैकड़ों सालों तक मुसलमान शासकों की हुकूमत थी. ऐसे में अब ये सवाल आता है कि क्या मुस्लिम हुकूमतों के सालों में भी महाकुंभ का आयोजन किया जाता था? तो इसका जवाब है हां. खुलासत-उत-तवारीख में मुगल साम्राज्य के दिल्ली सूबे के Description में मेले का article देखने को मिलता है. इसमें कहा गया है कि हर साल वैसाखी के दौरान जब सूर्य मेष राशि में एंटर होता है, तो आस-पास के ग्रामीण इलाकों से लोग हरिद्वार में इकट्ठा होते हैं.12 साल में एक बार, जब सूर्य कुंभ राशि में एंटर होता है, तो दूर-दूर से लोग हरिद्वार में इकट्ठा होते हैं. इस मौके पर नदी में स्नान करना, दान देना और बाल मुंडवाना पुण्य का काम माना जाता है. लोग अपने मृतकों की अस्थियों को नदी में प्रवाहित करते हैं ताकि वे अपने प्रियजनों को जो इस दुनिया में नहीं रहे, उनको मुक्ति दिला सकें.

मुगल बादशाहों और इतिहासकारों ने तो भव्य मेले का आनंद तक भी उठाया हुआ है

कई मुगल बादशाहों और इतिहासकारों ने तो भव्य मेले का आनंद तक भी उठाया हुआ है. 1608 में यूरोपियन ट्रैवलर टॉम कारियट के कुंभ डिस्क्रिप्शन में 1620 के कुंभ में जहांगीर के खुद हरिद्वार आकर रहने की बात पता चलती है. हालांकि उन्हें यहां का मौसम रास न आया और कुछ ही दिनों में वो कांगड़ा चले गये. इसके अलावा तैमूर का इतिहासकार शरफुरुद्दीन 1398 के कुंभ में हरिद्वार आया. उसने हिंदुओं के सबसे बड़े मेले को आईनी किताब में दर्ज किया है... शफुरुद्दीन ने हरिद्वार का नाम तब कुपिला लिखा था. और तो और गजनवी के समय में इतिहासकार अबु रिहान ने हरकी पैड़ी की चरण पादुका पर नागा संन्यासियों के स्नान का डिस्क्रिप्शन लिखा है. अकबर ने तो अपनी Mint ही हरिद्वार में बनाई थी. उसका प्रसिद्ध इतिहासकार अबुल फजल 16वीं शताब्दी में कुंभ मेला देखने आया था. गंगा और मेले का वर्णन उसने आईने अकबरी में किया है.अबुल ने मायापुरी और हरिद्वार दोनों नामों का जिक्र किया. वहीं, 1776 में मुगल सम्राट शाह आलम ने तो कुंभ लूटा भी, और इतिहासकार जमीयत खान ने कुंभ की धार्मिकता और साधुओं की संख्या की बात को जमीयतनामा में मेंशन किया है.

मुग़ल बादशाह जहांगीर और महाकुंभ से जुड़ा एक इंटरेस्टिंग किस्सा सुनाते हैं

चलिए अब आपको मुग़ल बादशाह जहांगीर और महाकुंभ से जुड़ा एक इंटरेस्टिंग किस्सा सुनाते हैं. अकबर के बाद उनके बेटे जहांगीर ने 1605 ईसवीं में सत्ता की बागडोर संभाली. प्रयागराज में उन्होंने सिंहासन पर आसीन होकर मुकुट धारण किया.अपना dominance दिखाने के लिए अपने नाम का सिक्का चलवाया... जहांगीर ने सत्ता संभालने के बाद सनातन और सनातन के मानने वालों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया. यमुना तट पर बने किले के अंदर स्थित अक्षयवट वृक्ष को कई बार कटवाया और जलवाया. वो बात और है कि उसके बावजूद अक्षयवट वृक्ष का कुछ नहीं बिगड़ा क्योंकि जलने और कटने के कुछ समय बाद अक्षयवट वृक्ष अपने पुराने स्वरूप में आ जाता था. उस दौर में अखाड़ों के संत समूह के बजाय छोटी-छोटी टुकड़ी में कुंभ क्षेत्र में एंट्री करते थे. मशहूर इतिहासकार प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी के मुताबिक, जहांगीर के राज में प्रयागराज में कुंभ मेला लगा तो उसकी सेना ने टुकड़ी में आने वाले संतों पर हमला करना शुरू कर दिया. इसमें लगभग 60 संतों की दर्दनाक मौत हो गई... इसकी सूचना अखाड़ों में पहुंची तो नाराज़गी बढ़ गई.फिर overall सभी अखाड़ों के संत एकजुट होकर हाथी-घोड़े, बग्घी व बैलगाड़ी पर सवार होकर प्रयागराज पहुंचे. उन्हें कौशांबी क्षेत्र में रोकने की कोशिश की गई. तब नागा समेत बाकि संतों ने जहांगीर की सेना पर जोरदार हमला बोला.


जहांगीर की सेना को पीछे ढकेलते हुए आगे बढ़ते हुए संगम क्षेत्र तक आ गए

लगभग 15 दिनों तक चले युद्ध में संत, जहांगीर की सेना को पीछे ढकेलते हुए आगे बढ़ते हुए संगम क्षेत्र तक आ गए. इसके बाद जहांगीर को हार स्वीकार करनी पड़ी, लेकिन कांग्रेस के ज़माने में इतिहासकारों ने इस घटना की अनदेखी की. वो मुगलों का गुणगान करते रहे, लेकिन नागा संतों की वीरता, समर्पण का उल्लेख कभी नहीं किया.

खैर, ये तो रही मुस्लिम शासकों के दौर में महाकुंभ की बात, चलिए बात को बताते हैं कि अंग्रेजों के ज़माने में कैसे होता था महाकुंभ का आयोजन. आज़ादी से 5 साल पहले यानी 1942 में प्रयागराज में कुंभ का आयोजन हुआ था. इसकी तैयारी अंग्रेजी हुकूमत ने महीनों पहले तैयारी शुरू कर दी थी. कुंभ मेला चार जनवरी से चार फरवरी तक चलने वाला था... इससे पहले ही उस वक्त की अंग्रेजी हुकूमत ने एक अनोखा फरमान जारी किया था.

दरअसल, अंग्रेजी फरमान के मुताबिक, devotees यानी श्रद्धालुओं को कुंभ में शामिल होने से रोका जा रहा था.अंग्रेजी हुकूमत ने फैसला लिया कि देश के अलग-अलग हिस्सों से कुंभ में आने वाले श्रद्धालुओं को रोका जाएगा.तय किया गया कि ट्रेनों से आ रहे श्रद्धालुओं को प्रयागराज नहीं आने दिया जाएगा.

अंग्रेजी हुकूमत के इस फैसले से महाकुंभ में शामिल होने वाले से खलबली मच गई

अंग्रेजी हुकूमत के इस फैसले से महाकुंभ में शामिल होने वाले से खलबली मच गई.अंग्रेजी हुकूमत का इस फैसले के पीछे ये दावा था कि कुम्भ के दौरान प्रयागराज में बमबारी हो सकती है.ऐसा इसलिए क्योंकि 1942 में सेकंड वर्ल्ड वॉर चल रहा था. इस वर्ल्ड वॉर में जापान भी शामिल हो चुका था. ऐसे में अंग्रेजी हुकूमत को ये डर था कि कहीं जापान प्रयागराज में बमबारी न कर दे और इसलिए अंग्रेजी हुकूमत ने कुंभ के समय ये फरमान जारी किया था.

हालांकि अंग्रेजी हुकूमत का ये फरमान तो किसी और वजह से ही जारी किया गया था... प्रयागराज में बमबारी हो जाने के डर से ही तत्कालीन सरकार ने ट्रेनों से प्रयागराज आने वाले श्रद्धालुओं पर रोक लगाई थी ताकी कुंभ में कम भीड़ हो सके. हालांकि, प्रयागराज में बमबारी नहीं हुई और ये बात अफवाह साबित हुई, लेकिन अंग्रेजी हुकूमत के इस फैसले से देश के हजारों श्रद्धालु कुंभ में संगम स्नान करने से वंचित रह गए

भारत छोड़ो आंदोलन के डर से लोगों के आने पर रोक लगाई थी

असल बात ये थी कि साल 1942 में ही महात्मा गांधी के नेतृत्व में हमारे देश में भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था. हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के इतिहासकारों का कहना है कि अंग्रेजों ने बमबारी के डर से नहीं, बल्कि भारत छोड़ो आंदोलन के डर से लोगों के आने पर रोक लगाई थी. क्योंकि अंग्रेजी सरकार ये नहीं चाहती थी कि कुम्भ में देश के कोने-कोने से लोग संगम स्नान करने आएं... इसकी आड़ में संगम किनारे लाखों हिन्दुस्तानियों का जमावड़ा उनके खिलाफ चल रहे आंदोलन को कहीं ताकतवर न बना दे... तो बस इसलिए बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को कुंभ में एंटर नहीं होने दिया गया.

बहरहाल, इन सारी बातों से एक बात ये तो साथ हो गई है कि न जाने कितनी बार लोगों के दिलों से कुंभ की गरिमा को मिटाने की कोशिश की गई, लेकिन ये कोशिशें कभी कामयाब नहीं हो सकीं... लोगों के दिलों में कुंभ के लिए जो जगह पहले थी, वो जगह आज भी है... कुंभ को मिटाने वाले आकर चली भी गए, लेकिन कुंभ कभी ना मिट सका. कुंभ को मिटाने वाले मिट्टी में ज़रूर मिल गए ये है