यह जो धरा की दुर्दशा है यह अंत का आह्वान है !
झरिया की आग
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ये धूम्र काले , दग्ध वसुधा
नित दिन यहाँ प्रलय देखो
चितादाह या झरिया देखो
धरती का तप्त हृदय देखो
हर क्षण धरा फटती यहाँ
हर क्षण कोई नवत्रास है
ऐसा भयावह दृश्य जैसे
दधीचि का कोई श्राप है
जैसे मृदा की सेज पर
जीवन ने त्यागा श्वास है
वीरान जैसे कोई मरघट
हर ओर बिखरी राख़ है
ये नगर ज्वालामयी है
धरणी उगलती आग है
वरदान के परिधान में
ये कोयला अभिशाप है
प्रकृति का क्रोध उत्कट
मनुज तुमको ज्ञात क्या है
सदुपयोग हो तो सम्पदा
दोहन हुआ तो आपदा है
कभी गौर से तुम देखना
धरती का जो उत्कर्ष है
मृत्यु सहज आ जाती है
जीवन के भाग संघर्ष है
पूछना उन खग निकर से
अनमोल कितना प्राण है
उद्योग तेरे खनिज दोहन
जीवन का ये अपमान है
यह जो धरा की दुर्दशा है
तेरे स्वार्थ का परिणाम है
लेकिन मनु तुम जान लो
यह अंत का आह्वान है !
यह अंत का आह्वान है !
© जया मिश्रा 'अन्जानी'