पर्वत लाँघू तुझको ढूँढू निर्भीक आगे बढ़ती हूँ :जया मिश्रा अनजानी

पर्वत लाँघू तुझको ढूँढू निर्भीक आगे बढ़ती हूँ :जया मिश्रा अनजानी

मुक्तविकल मैं तरंगिणी

सौंप चली सब मेरा रे

वेग कोलाहल चंचलता

ओ जलधि अब तेरा रे

पर्वत लाँघू तुझको ढूँढू

निर्भीक आगे बढ़ती हूँ

घोर पिपासा आतुर मैं

सागर- सागर करती हूँ

निर्झरणी मैं सागरप्रेमी

प्रणय प्रतिज्ञा धरती हूँ

भीषण हठ उद्वेग लिए

दम्भ गिरि का हरती हूँ

नीरनिधि ओ नाथ मेरे

तुझसे संगम जीवन है

सदियों लंबी प्रीत मेरी

सागरतट पर अर्पण है

चिरबैरागी हृदय में तेरे

वेग समाहित करती हूँ

नितदिन तेरी देहरी पर

प्रेम प्रवाहित करती हूँ

काट चलूँ पाषाणों को

तरुवरतृण सहलाती हूँ

जीवन-धारा जलमाला

मैं राही हँसती-गाती हूँ

विरह वेदना व्याकुल मैं

मधुरिम गीत सुनाती हूँ

जाने कितने कल्पों से

मैं सप्तपदी दोहराती हूँ

प्रेम परीक्षा जितनी हो

निष्ठा पुलकित होती है

जहाँ बहे उदगार मेरा

वसुधा जीवित होती है

जन्मों की बंजारण मैं

बस तुझमें ढूँढू डेरा रे

मुक्तविकल मैं तरंगिणी

सौंप चली सब मेरा रे

वेग कोलाहल चंचलता

ओ जलधि अब तेरा रे !

ओ जलधि अब तेरा रे !

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