शहीद करतार सिंह सराभा जी के जन्मदिवस पर दी पुष्पांजलि
ब्यूरो चीफ आर एल पाण्डेय
नई दिल्ली। ब्रिगेड ट्रस्ट के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव जोली खोसला ने शहीद करतार सिंह सराभा के जन्मदिवस पर पुष्पांजलि देते हुए कहा कि एक दिन, एक हफ़्ते, एक महीने या एक साल में हमें आज़ादी नहीं मिली. असंख्य लोगों ने कई साल संघर्ष किया, हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दी और तब कहीं जाकर हमें आज़ाद देश का दर्जा मिला, आज़ाद हवा में सांस लेने का अधिकार मिला. हमारे उज्जवल 'कल' के लिए उन्होंने अपना 'आज' कुर्बान कर दिया. बड़े ही दुख की बात है कि आज हम उन असंख्य बलिदानों का मोल नहीं समझते. ये आज़ादी जो हमें 'दिलवाई गई है', इसका उचित सम्मान नहीं करते. क्या हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल जाने वाले उन शूरवीरों को क्या सिर्फ़ साल के दो दिन ही याद किया जाना चाहिए?
सर्वोच्च बलिदान देने वाले कई स्वतंत्रता सेनानियों को तो आज हर कोई नाम से जानता है लेकिन इतिहास में बहुत से स्वतंत्रता सेनानी, उनकी कुर्बानी गुम हो गई. या उनमें से कुछ जीके के फ़ैक्ट बन कर रह गए. देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देने वाला ऐसा ही एक दीवाना था, नाम था करतार सिंह सराभा !
करतार सिंह सराभा का जन्म 24 मई, 1896 को अविभाजित पंजाब के लुधियाना के पास स्थित सराभा गांव में हुआ था. पंजाब में उन दिनों नकारात्मक बदलाव की आंधी चल रही थी. अंग्रेज़ों ने 1849 में महाराजा रंजीत सिंह का राज्य छीन लिया था और उनके सबसे छोटे बेटे दिलीप सिंह को पेंशन के रूप में मामूली रकम देना शुरू कर दिया था. अंग्रेज़ी हुकूमत के कब्ज़े के बाद सैंकड़ों की संख्या में सिख ब्रितानिया सेना में शामिल होने लगे. एक लेख की मानें तो 1900 के आते-आते अंग्रेज़ों की आधी सेना सिखों की ही थी. ऐसे दौर में बड़े हो रहे थे करतार सिंह सराभा.
गांव में ही बीता शुरुआती जीवन
सराभा के बचपन के शुरुआती साल गांव में ही बीते. सराभा सिर्फ़ 8 साल के थे जब उनके पिता की मौत हो गई. पिता के जाने के बाद उनके दादाजी ने उन्हें पाल-पोस कर बड़ा किया. एक लेख की मानें तो बचपन में वे बड़े शरारती थे और उनके सहपाठी उन्हें 'अफ़लातून' कहकर बुलाते थे. सराभा खेल-कूद में भी आगे थे और शरारती होने के बावजूद उन्हें सभी प्यार करते थे. बचपन से ही उनमें एक लीडर के गुण थे.
9वीं कक्षा की पढ़ाई पूरी करके सराभा अपने चाचा बख्शीश सिंह के पास कटक, ओडिशा चले गए. कटक के रैवनशॉ कॉलेजिएट से उन्होंने 1911 में मैट्रीकुलेशन पास किया. खास बात ये है कि सुभाषचंद्र बोस ने भी इसी कॉलेज से पढ़ाई की थी. बेनी माधव दास उस समय इस संस्था के हेडमास्टर थे, सराभा उनसे बेहद प्रभावित हुए.
16 नवंबर 1915 को करतार सिंह सराभा और उनके छह नए साथियों बक्शी सिंह सुरेश सिंह वासु रन हरनाम सिंह जगत सिंह तथा विष्णु गणेश पिंगले के साथ लोहार जेल में फांसी देकर सहित कर दिया गया और सेंट्रल जेल में कैद के दौरान इनका वजन 14 पाउंड बढ़ गया था फांसी के प्रति इनकी निर्भयता को दर्शाता है यह शहीद भगत सिंह जी के भी आदर्श थे भगत सिंह इन का चित्र हमेशा अपने पास रखता थे हम सब भारतीयों को इनके बारे में खासकर नौजवानों को इनकी गाथाएं पढ़कर इनके नक्शे कदम पर चलना चाहिए।