सततसाधना चिंतन में वर्ष सताइस बीत गए आदिशक्ति प्रकट हुई
पार्वती जन्म (सर्ग-१)
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विकट तपस्या शुरू हुई
दुर्लभ वर की आशा थी
मेना-गिरिवर शेखर को
पुत्री की अभिलाषा थी
मास दिवस थे बीत गए
जगजन्नी का ध्यान धरे
ऋतुओं का रंग बदला
वात सलिल आहार रहे
शुक्लचंद्र-सी दीप्तमान
मेना नितदिन होती थी
पर्वतराज हिमालय में
जगदंबा की ज्योति थी
सततसाधना चिंतन में
वर्ष सताइस बीत गए
आदिशक्ति प्रकट हुई
चक्रशूल पुंडरीक लिए
हुई सफल चिर साधना
हिम् मेना ने चक्षु खोले
तेजपुंज सिंहवाहिनी से
वंदन करते दंपति बोले
हे रुद्राणी शंकरसंगिनी
हे मातङ्गी बंधनभंजिनी
हे वाराही दैत्यविमर्दिनी
हे ब्रह्माणी मंगलकरणी
प्रलयध्वंश का द्वार तुम
तुम विश्वविदारक शक्ति
तुम सृजनबीज देवेश्वरी
तुम ही पंचभूत संयुक्ति
सर्वव्यापिनी महामाया
मिथ्याजगत संधान तुम
तुम अंतकाल का सत्य
ब्रह्मज्ञान कल्याण तुम
श्रृंगार तुम, सौंदर्य तुम
तुम भयावह काल भी
गंगा हो तुम मंदाकिनी
तुम अनल उदगार भी
तुष्टि तुम्हीं तृप्ति तुम्हीं
तुम क्षुधा सन्सार की
वार की, प्रतिकार की
तुम गर्जना संहार की
श्वास का विश्वास तुम
तुम रुधिर का वेग हो
घोर तामस अन्धकार
तुम दिवाकर तेज हो
तुम गति ब्रह्माण्ड की
तुम दिशा हो मेघ की
प्रथमनाद ॐकार तुम
तुम लिपि हो वेद की
तुम भवानी स्वामिनी
तुमसे सकलसंसार है
जय जयंती कालिका
तेरी सदा जयकार है
तेरी सदा जयकार है!
(शेष भाग अगले सर्ग में)
© जया मिश्रा 'अन्जानी'