शिव पुराण पार्वती जन्म शँखनाद आह्लाद हुए धरती का उद्धरण हुआ हिमशिखरों की गोद में देवि का अवतरण हुआ

 
Shiv puran
 शिवपुराण काव्यावली | पार्वती जन्म (सर्ग-२)

प्रसन्न हुईं विश्वात्मिका

गिरि मेना की भक्ति से

वन्दन करते चक्षु भरते

वर माँगे सती शक्ति से

पराक्रमी  सौ  पुत्रों का

प्रथम हमें वरदान कहो

जो परमप्रतापी दीर्घायु

आर्यवर्त  के मान कहो

जग त्रिलोक में पूजित हो

और सर्वगुणी विद्याओं में

एक कन्या हो  तेजस्विनी

निजभाग्य की रेखाओं में

अवतार धरो हे आदिदेवि

दनुजों  पर  सन्धान करो

सकल मनोरथ पूर्ण करो

हे जननी ! कल्याण करो

देवि बोली हे गिरिशेखर!

गगनभेदी तुम शक्तिमान

हे तुषार! भारत के भाल

भूमण्डल पर  दीप्तमान!

हे पुत्री मेना सर्वसुन्दरी!

सती द्युति से कांतिमान

हे धरती की शोभाधारा

हिमप्रदेश पर विद्यमान

प्रथम तुम्हारे शत नंदन

उत्तर का  उत्थान करेंगे

सर्वश्रेष्ठ जो ज्येष्ठ रहेगा

लोग उसे 'मैनाक कहेंगे

पश्चात स्वयं मैं पराशक्ति

पुत्री का अवतार धरूँगी

संहार करूँगी असुरों का

धरती का उद्धार करूँगी

इतना  कहकर  सुरेश्वरी

तत्क्षण  अंतर्ध्यान   हुईं

मेना गिरिवर  धन्य  हुए

हिमनगरी द्युतिमान हुई

दिन बीते फिर मास वर्ष

उत्तर  में जयनाद  हुआ

विक्रमवर्ती  गिरिकुमार

ज्येष्ठ पुत्र 'मैनाक' हुआ

एक हिमालय  महीपति

शत पुत्रों  के  अधिपति

फिरभी एक निराशा थी

पुत्री की  अभिलाषा थी

कृपा हुई  कल्याणी की

वरदान का  न्यास हुआ

मेनावती के  गर्भगृह में

सुरेश्वरी का  वास हुआ

वसंत ऋतु में चैत्र मास

नवमतिथि को अर्धरात्र

वसुन्धरा प्रज्वलित हुई

आदिशक्ति  प्रकट  हुई

शँखनाद  आह्लाद   हुए

धरती का उद्धरण हुआ

हिमशिखरों की गोद में

देवि का अवतरण हुआ

धन्य हुए गिरिराज मेना

तीनों लोक  संतृप्त हुए

कन्यारूपी ज्योति फूटी

सिद्ध मुनि विश्वस्त हुए

शैलराज  का यशवंदन

मेना का जयगान हुआ

पर्वतपुत्री वो कहलायी

'पार्वती' जो नाम हुआ

पाषाणों का ठोस लिए

वेदों  का  उद्घोष  लिए

तरुण हुई सुरस्वामिनी

सर्वांगसुन्दरी  कामिनी

पूर्णचन्द्र का हिमविधान

मुखमंडल पर दीप्तमान

केेेशपाश जो तमविलीन

कृष्णविवर-सा अंतहीन!

रे नयनदल का तेजबल

शिथिलों  में आवेग भरे

श्यामवर्ण लावण्य जैसे

नील कमलदल देह धरे

थी बान्धवों की लाडली

व्याघ्र  केहरि  साथी थे

पार्वती वो स्वयं भवानी

आराध्य शिव वैरागी थे

एक दिवस  जब देवर्षि

शैलराज के द्वार पधारे

उत्तम वंदन आवभगत

गिरिश्रेष्ठ ने पाँव पखारे

सविनय बोले पर्वतराज

हे भक्तशिरोमणि नारद

हे  ब्रह्मपुत्र  हे  महामुने

हे  देवर्षि  ज्ञानविशारद

यह मेरी कन्या पार्वती !

सर्वगुणी और ज्ञानवती

ब्रह्मा का सम्भाव्य कहें

प्राज्ञ इसका भाग्य कहें

प्राज्ञ इसका भाग्य कहें!

(शेष भाग अगले सर्ग में)

- जया मिश्रा 'अन्जानी'

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