शरद यादव: मेधावी छात्र, मंडल मसीहा और मधेपुरा 
बिस्तरबंद और साधरण रेल यात्रा से कैसे सामाजवाद को अपनी राजनितिक यात्रा में गढ़ते थे शरद भाई?

Sharad yadav
 

ब्यूरो चीफ आर एल पाण्डेय

लखनऊ। शरद यादव आज के ही दिन, सन 1947 में मध्य प्रदेश के होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम) के पहाड़ी इलाके और मां नर्मदा की गोद में जन्में थे। बचपन से ही ओजस्वी, "शरद भाई" की शुरुआती शिक्षा दीक्षा बाबई (अब माखन नगर) के गांव आखमऊ गांव और माध्यमिक शिक्षा इटारसी से प्राप्त की। एक मेधावी छात्र के तौर पर, उन्होंने जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से स्नातक की उपाधि के साथ साथ, गोल्ड मेडल भी प्राप्त किया। अव्वल दर्जे के थे शरद भाई। पर राजनीती और जनता के मुद्दों में को समझने के लिए अक्सर भारतीय रेल के सामान्य और शयन दर्ज़ों के डिब्बों में यात्रा करते थे। 


शरद भाई बिस्तरबंद लिए समूचे देशभर में साधरण श्रेणी में यात्रा करते थे, जिसके दौरान वे स्वाभाविक रूप से देश, शहर और समाज विषमताओं को बहुत निकट से देखते और समझते रहे। जनता की इसी करीबी समझ ने उन्हें युवा नेता से एक परिपक्व समाजवादी नेता के तौर पर राष्ट्रीय पटल पर ला खड़ा किया, जहाँ उन्होंने लगभग पांच दशक से भी अधिक समय तक एक मजबूत समाजवादी राजनेता के रूप में अपनी पहचान को कायम रखी।     


सत्तर के दसक से राजनीती में आए शरद भाई ने अपनी राजनितिक यात्रा एक छात्र नेता के तौर पर शुरू की। उन दिनों जबलपुर विश्वविद्यालयों में छात्र संघ के चुनाव नही होने से जो पुरुस्कृत छात्र होते थे उनको विश्वविद्यालय छात्र संघ इकाई में शामिल किया जाता था -- उन्हीं में से एक थे शरद भाई। उन्होंने अपना शुरूआती राजनितिक जीवन मूलतः चार मुद्दों से शुरू किया। पहला: 18 वर्ष के युवक-युवतियों को मतदान का अधिकार मिले।

दूसरा, सभी विश्वविद्यालयों, महाविश्वविद्यालयों में अनिवार्य सदस्यता वाली छात्र संगठन हों। तीसरा, शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं बल्कि मातृभाषा हिन्दी हो, पर अन्य सभी मातृ भाषाओं को भी सम्मान मिले। और चौथा, छात्र संघ के चुनाव प्रत्यक्ष मतदान प्रणाली से हो। उन्होंने उपरोक्त सभी मांगों को लेकर जबलपुर विश्व विद्यालयों के छात्रों और देश भर के छात्र संघों से विस्तार में बैठक की। वे डॉ राम मनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण का से पूर्ण रूप से प्रभावित थे। उन दिनों केन्द्र तथा राज्य में कांग्रेस का शासन था। जब भी सरकार की नीतियों से ख़िलाफ़ अपनी आवाज बुलंद करनी हो या कोई आंदोलन करना हो तो शरद भाई जबलपुर के प्रसिद्ध मालवीय नगर चौराहा पहुंचते जहाँ सैकड़ों छात्र और समर्थकों के साथ विचार विमर्श करते और अगले कार्यकर्म की घोषणा उसी मालवीय नगर चौक से करते थे। उन्हीं दिनों, जबलपुर नगर निगम के चुनाव में उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और संयुक्त सोसलिस्ट पार्टी को सभी सीटों पर चुनाव लड़वाया। शहर के मोहल्लों और वार्डों में भाषण दिया और प्रचार किया जिसके बाद वे एक नेता के रूप में उभरे। 


साल 1974 में, जयप्रकाश नारायण ने उन्हें जबलपुर लोकसभा सीट के उप चुनाव में जनता के उम्मीदवार के रुप में लड़ने को कहा गया था। चूंकि शरद भाई इसके इच्छुक नहीं, उन्होंने चुनाव लड़ने से मना कर दिया। फिर भी, जयप्रकाश नारायण के निकटतम सहयोगी दादा धर्माधिकारी ने जबलपुर उप चुनाव के लिए इनका नामांकन जेल से ही भरवाया दिया। चूँकि शरद भाई ने इलाके की समाजिक और छात्रों की समस्याओं को हल करना शुरू कर दिया, उन्हें छात्र संघ समुदाय का पूर्ण विश्वास प्राप्त था। परिणामस्वरुप, उन्होंने प्रतिष्ठित सेठ गोविंददास के पौत्र रवि मोहन दास को इस चुनाव में पराजित कर दिया। अपने राजनितिक सफ़र की शुरुआत में, शरद भाई विभिन्न अवसरों पर देश की कई जेलों में बंद रहे - जिनमें (अविभाजित) मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की कई जेलें शामिल हैं। 


समाजिक विसमताओं के विरुद्ध मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने में शरद भाई ने अग्रणी भूमिका निभाई थी। इसके लिए उन्होंने देश भर में मंडल रथ यात्राएं निकाली और तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्व. "दाऊ साहब" अर्जुन सिंह जी के साथ मिल कर उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण निति लागू कराने के लिए काम किया।
शरद भाई ने अपने पिछले संसदीय क्षेत्र मधेपुरा (बिहार) में अनेक बड़े बड़े जनहित के काम किए जिसमे एक बडी सड़क जो एक शहर से दूसरे शहर को जोड़ती है, प्रमुख है। जबलपुर में रेलवे जोनल इन्ही के अथक प्रयास के बन सका।


अपने लम्बे राजनितिक जीवन में शरद भाई ने समाज के हर पहलू को छुआ। पिछड़ों का आरक्षण, किसानों के मुद्दे, एफ.डी.आई, एस.इ.ज़ेड, आदि। शरद भाई ने "गरीबी के हिन्द महासागर को देखिए" शीर्षक से एक लेख लिखा जो 14 नवंबर 2007 को दैनिक भास्कर के राष्ट्रीय संस्करण में छपा था। तत्कालीन राज्य सभा में भारतीय जनता पार्टी के विपक्ष के नेता स्व. जसवंत सिंह ने उसे पढ़ा और शरद भाई को एक पत्र में कुछ यूँ लिखा: मैं जो रोज़ अनुभव करता हूं वह आपसे कहूं तो शायद मेरा आशय अधिक स्पष्ट हो जाए। दिल्ली में जहां मैं रहता हूं, उस कालोनी की एक सड़क की बात है। तीन मूर्ति लेन में रहता हूं, यह हमारी राजधानी का अव्वल हिस्सा तो नहीं, परंतु, फिर भी समृद्ध या विशेषाधिकार रखनेवालों का इलाका तो अवश्य कहलाएगा।

इस सड़क पर आजकाल कोई काम चल रहा है...सड़क की एक छोर पर प्रधानमंत्री जी का दुर्गनुमा रिहायशी बंगला है, जिसके इर्द-गिर्द तारबंदी, बड़ी-बड़ी आंखों को चकाचौंध कर देने वाली बत्तियां, और बंदूको से लेस पुलिसवाले हैं। जब भी मित्रगण पूछते हैं, "कहां रहते हो?" तो जवाब देता हूं: "प्रधान मंत्री के "सर्वेंट क्वाटर्स" में"। जसवंत सिंह जी आगे लिखते हैं: और मैं यह व्यंग में नही कहता शरद जी, मानिए। मैं इस तथ्य को स्वीकार कर मुंह फेर लेता हूं...। शायद, वे भी शरद भाई के लेख से प्रभावित थे।  


शरद भाई एक ऐसे भारती राजनेता जो क्रमशः तीन राज्यों से लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधत्व किया। जबलपुर, बदायूं और मधेपुर बिहार से और उत्तर प्रदेश, बिहार से राज्य सभा सदस्य के लिए चुने गए।


शरद भाई बिस्तरबंद लिए समूचे देश भर में साधरण रेल में शायद इसलिए यात्रा करते रहे ताकि वे समाज की पीड़ा को बख़ूबी समझ सकें। इसलिए, उनका शुरुआती दिल्ली का घर उनके लिए नही बल्कि सबके लिए था। उनको याद करते हुए, उनके जबलपुर दिनों के एक साथी ने पिछले साल मुझसे कहा: "अरे रामबहोर! शरद भाई को तो धोती बांधने नही आता था... हमने सिखाया... शरद भाई अंतिम विदाई तक धोती कुर्ता में रहे।" ठीक उसी तरह, जैसे वे जीवनपर्यन्त समाजवाद की विचारधारा में रचे बचे रहे। आज उनके जन्मदिवस पर उनको नमन।

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