जब अर्जुन के जैसी ऋजुता (सरल भाव ) और हरिशरणता होती है, तो फिर विषाद का भी योग बनता है, इसीको ‘हृदय-मंथन’ कहते हैं:रमेश भईया

गीता की परिभाषा बताते हुए कहा कि जब अर्जुन के जैसी ऋजुता (सरल भाव ) और हरिशरणता होती है, तो फिर विषाद का भी योग बनता है। इसीको ‘हृदय-मंथन’ कहते हैं। गीता की इस भूमिका कों मैंने उसके संकल्प के अनुसार *‘अर्जुन-विषाद-योग’* जैसा विशिष्ट नाम न देते हुए *‘विषाद-योग’* जैसा सामान्य नाम दिया है, क्योंकि गीता के लिए अर्जुन एक निमित्त मात्र है।
यह नहीं समझना चाहिए कि पंढरपुर (महाराष्ट्र) के पांडुरंग का अवतार सिर्फ पुंडलीक के लिए ही हुआ, क्योंकि हम देखते हैं कि पुंडलीक के निमित्त से वह हम जड़ जीवों के उद्वार के लिए आज हजारों वर्षों से खड़ा है।
इसी प्रकार गीता की दया अर्जुन के निमित्त से क्यों न हो, हम सबके लिए हैं। अतः गीता के पहले अध्याय के लिए *विषाद-योग*’ जैसा सामान्य नाम ही शोभा देता है। यह गीता रूपी वृक्ष यहां से बढ़ते-बढ़ते अंतिम अध्याय में *प्रसाद-योग*-रूपी फल को प्राप्त होने वाला है।
दूसरे अध्याय से गीता की शिक्षा का आरंभ होता है। शुरू में ही भगवान जीवन के सिद्वांत बता रहे हैं। इसमें उनका आशय यह है कि यदि शुरू में ही जीवन के वे मुख्य तत्व गले उतर जायंे, जिनके आधार पर जीवन की इमारत खड़ी करनी है, तो आगे का मार्ग सरल हो जायेगा। दूसरे अध्याय में आने वाले ‘सांख्य-बुद्वि’ शब्द का अर्थ विनोबा जी ने किया है। जीवन के मूलभूत सिद्वांत ।
इन मूल सिद्वांतों को अब हमें देखना है। परंतु इसके पहले यदि हम इस ‘सांख्य’ शब्द के प्रसंग से गीता के पारिभाषिक शब्दों के अर्थ का थोड़ा स्पष्टीकरण कर लें तो अच्छा होगा।