मानवता के महान पुजारी: गणेश शंकर विद्यार्थी

Great Priest of Humanity: Ganesh Shankar Vidyarthi
 
Great Priest of Humanity: Ganesh Shankar Vidyarthi
(लेखिका: अंजनी सक्सेना – विभूति फीचर्स)
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कुछ ऐसे नाम दर्ज हैं जिन्होंने कलम को ही अपना शस्त्र बनाया और सच्चाई, समानता व मानवता के लिए प्राणों की आहुति दे दी। इन महान आत्माओं में एक नाम है — पंडित गणेश शंकर विद्यार्थी, जिन्हें मानवता का सच्चा पुजारी कहा जाता है।
उन्होंने सिद्ध कर दिया कि पत्रकार और साहित्यकार केवल समाज को दिशा देने वाले शब्दों के साधक नहीं होते, बल्कि वे सत्य और न्याय के लिए बलिदान देने वाले वीर भी हो सकते हैं।
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 जीवन परिचय और शिक्षा
गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 25 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद में हुआ। उनके पिता जय नारायण श्रीवास्तव ग्वालियर रियासत के एंग्लो वर्नाकुलर स्कूल में शिक्षक थे और उनकी माता एक संस्कारी, शिक्षित महिला थीं। विद्यार्थी जी की प्रारंभिक शिक्षा भेलसा (अब विदिशा, मध्य प्रदेश) में हुई।
आर्थिक कठिनाइयों के कारण वे कॉलेज की पढ़ाई पूरी नहीं कर सके, परंतु ज्ञान और सत्य की खोज में उन्होंने स्वयं को पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में समर्पित कर दिया। सरकारी नौकरी में कुछ समय कार्य करने के बाद उन्होंने महसूस किया कि उनका मार्ग सेवा और संघर्ष का है, न कि समझौते का — और उन्होंने नौकरी छोड़ दी।

पत्रकारिता में प्रवेश और प्रारंभिक संघर्ष

विद्यार्थी जी की पत्रकारिता यात्रा ‘कर्मयोगी’ और ‘स्वराज्य’ जैसे अखबारों से शुरू हुई। दोनों ही समाचार पत्र अपने निर्भीक तेवरों के लिए प्रसिद्ध थे। इन पत्रों में उनके क्रांतिकारी विचारों ने स्वतंत्रता आंदोलन के युवा वर्ग को नई दिशा दी।
उनकी लेखनी से प्रभावित होकर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें प्रसिद्ध पत्रिका ‘सरस्वती’ से जोड़ा। लेकिन उनका उग्र देशभक्त हृदय केवल साहित्य तक सीमित नहीं रह सका। उन्होंने बाद में ‘अभ्युदय’ साप्ताहिक में कार्य करते हुए अपने विचारों को अधिक सशक्त रूप से अभिव्यक्त किया।

 ‘प्रताप’ का प्रकाशन: कलम से क्रांति का बिगुल

1913 में विद्यार्थी जी ने काशीनाथ के साथ मिलकर ‘प्रताप’ नामक साप्ताहिक अखबार की शुरुआत की। यह अखबार जल्द ही स्वतंत्रता संग्राम की आवाज बन गया।
विद्यार्थी जी ‘प्रताप’ के मुखपृष्ठ पर आचार्य द्विवेदी की ये पंक्तियाँ छापते थे  जिसको न निज गौरव न निज देश का अभिमान है,
वह नर नहीं, नर पशु निरा, और मृतक समान है।
इन शब्दों ने हजारों युवाओं के भीतर देशभक्ति की ज्वाला प्रज्वलित की।
‘प्रताप’ ने गांधीजी के अहिंसक आंदोलन से लेकर काकोरी कांड, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु की फांसी जैसे विषयों को निडरता से प्रकाशित किया। मात्र सात वर्षों में ही यह साप्ताहिक एक दैनिक अखबार बन गया — उत्तर भारत की आवाज।

निडर पत्रकार और जनसेवक

विद्यार्थी जी का उद्देश्य स्पष्ट था  मैं स्वतंत्रता संग्राम का पक्षधर हूं और हर प्रकार की सत्ता का विरोधी — चाहे वह अंग्रेजों की हो, जमींदारों की, या ऊँची जातियों की।”
उनके इसी स्पष्टवाद ने अंग्रेजों की नींद उड़ा दी। परिणामस्वरूप उन्हें पाँच बार जेल जाना पड़ा। फिर भी वे अपने सिद्धांतों से कभी नहीं डिगे।
उन्होंने गांधीजी के चम्पारण आंदोलन की खबर सबसे पहले ‘प्रताप’ में प्रकाशित की, जिससे उन्हें “शांति के पुजारी पत्रकार” के रूप में पहचान मिली। वहीं दूसरी ओर, उन्होंने क्रांतिकारियों के विचारों को भी मंच दिया — भगत सिंह, अशफ़ाक़ उल्लाह खाँ, बटुकेश्वर दत्त, शचींद्रनाथ सान्याल जैसे अनेक क्रांतिकारी उनसे जुड़े रहे।
‘प्रताप प्रेस’ क्रांतिकारियों का आश्रयस्थल बन गया था।

 शहादत: मानवता के लिए अंतिम बलिदान

मार्च 1931 — भारत में अशांति का दौर था।
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई थी, जिससे देश शोक और क्रोध में डूबा हुआ था। अंग्रेजों की “फूट डालो और राज करो” नीति के चलते कानपुर में भयंकर साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे।
इस भयावह स्थिति में विद्यार्थी जी ने स्वयं को खतरे में डालकर लोगों के बीच जाकर उन्हें शांति का संदेश दिया। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता का आह्वान किया, आग में घिरे लोगों को बचाया और घायलों की सहायता की।
लेकिन मानवता के इस सच्चे सेवक को उन्हीं भीड़ के हाथों प्राण गंवाने पड़े, जिन्हें वे बचाने निकले थे।  उनकी शहादत 25 मार्च 1931 को हुई, और 29 मार्च को उन्हें चुपचाप पंचतत्व में विलीन कर दिया गया। वे मात्र 40 वर्ष की आयु में अमर हो गए।

विद्यार्थी जी की विरासत और आज की प्रासंगिकता

गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने जीवन से यह संदेश दिया कि पत्रकारिता केवल सूचना का माध्यम नहीं, बल्कि समाज सुधार का शस्त्र है।
आज जब धर्म, जाति और राजनीति के नाम पर समाज फिर से विभाजित हो रहा है, तो विद्यार्थी जी का जीवन हमें याद दिलाता है  मानवता सबसे ऊपर है, बाकी सब उसके बाद।”
उनकी लेखनी, उनका साहस और उनकी शहादत भारतीय पत्रकारिता के स्वर्ण अध्याय हैं। वे केवल एक पत्रकार नहीं, बल्कि मानवता के सच्चे सेनानी और युगपुरुष थे।

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