संस्कृत शब्दानुशासन के  अन्तिम रचयिता  महापंडित, कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी 

Lord Birsa Munda, a symbol of valor and bravery, dedicated to nature
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(संदीप सृजन -विनायक फीचर्स)विश्व के इतिहास में संस्कृत के मध्यकालीन रचनाकारों में प्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचन्द्राचार्यजी का नाम विशेष महत्व रखता है। वे महापण्डित थे, काव्यशास्त्र के आचार्य थे, योगशास्त्र मर्मज्ञ थे और 'कलिकालसर्वज्ञ' जैसी महान उपाधि से अलंकृत थे। जैनधर्म और दर्शन के तो वे प्रकाण्ड विद्वान् थे ही अपने समय के महान टीकाकार भी थे। वे जहाँ एक तरफ विभिन्न शास्त्रों के पारंगत थे वहीं दूसरी अनेक भाषाओं के मर्मज्ञ भी थे। हेमचन्द्राचार्यजी आज भी विश्व के सर्वश्रेष्ठ व्याकरणकार एवं अनेक भाषाकोशकार माने जाते है। भारतीय चिंतन, साहित्य और साधना के क्षेत्र में उनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। हेमचन्द्राचार्यजी ने साहित्य, दर्शन, योग, व्याकरण, काव्यशास्त्र, वाङ्मय के सभी अंगों पर नवीन साहित्य की सृष्टि तथा नये पंथ को आलोकित किया। संस्कृत एवं प्राकृत पर उनका समान अधिकार था।

 

हेमचन्द्राचार्यजी का जन्म गुजरात में अहमदाबाद से 100 किलोमीटर दूर दक्षिण-पश्चिम स्थित धंधुका नगर में विक्रम संवत 1145 को कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि में हुआ था। माता-पिता शिव पार्वती उपासक मोढ वंशीय वैश्य थे। पिता का नाम चाच और माता का नाम पाहिणी देवी था। बालक का नाम चंगदेव रखा। माता पाहिणी और मामा नेमिनाथ दोनों ही जैन धर्म के उपासक थे। चंगदेव जब गर्भ में थे तब माता ने आश्चर्यजनक स्वप्न देखे थे। इस पर जैनाचार्य देवचंद्रसूरी जी ने स्वप्न का विश्लेषण करते कहा कि सुलक्षण सम्पन्न पुत्र होगा जो दीक्षा लेगा और जैन सिद्धान्त का सर्वत्र प्रचार प्रसार करेगा।

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बाल्यकाल से चंगदेव दीक्षा के लिये दृढ थे। खम्भात में जैन संघ की अनुमति से उदयन मंत्री के सहयोग से नौ वर्ष की आयु में दीक्षा संस्कार विक्रम सवंत 1154 में माघ शुक्ल चतुर्दशी शनिवार को हुआ और उनका नाम मुनि सोमचंद्र रखा गया। अल्पायु में शास्त्रों में तथा व्यावहारिक ज्ञान में निपुण हो गये। 21 वर्ष की अवस्था में समस्त शास्त्रों का मंथन कर ज्ञान वृद्धि की । नागपुर (महाराष्ट्र) के पास धनज ग्राम के एक वणिक ने विक्रम सवंत 1166 में सूरिपद प्रदान महोत्सव सम्पन्न किया। तब एक आश्चर्यजनक घटना घटी। मुनि सोमचन्द्र एक मिट्टी के ढेर पर बैठे थे। आचार्य देवचन्द्रसूरी जी ने अपने ज्ञान में देखा और कहा कि, "सोम जहाँ बैठेगा वहाँ हेम ही होगा" और वह मिट्टी का ढेर सोने में बदल चुका था। उस के बाद सोमचन्द्र, आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी के नाम से जाने लगे।

आचार्य श्री ने साहित्य और समाज सेवा करना आरम्भ किया और पैदल विहार करते हुए अणहिलपुरपत्तन में पधारे। जिस मार्ग से आचार्य श्री ने प्रवेश किया उसी मार्ग पर सामने से महाराजा सिद्धराज जयसिंह की सवारी आ रही थी। जब सिद्धराज जयसिंह की नजर आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी पर गयी तो वो आचार्य श्री को देखकर विस्मित हो गये और सहजभाव से उनके सामने नत मस्तक हो गये।उन्होंने आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी को अपने राजभवन में पधारने की विनती की। आचार्य श्री भी शकुन देख कर धर्मप्रभावना जान कर राजसभा में राजा सिद्धराज जयसिंह को प्रतिबोध देने लगे। राजा सिद्धराज जयसिंह के अनुरोध पर योगानुयोग आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी ने कश्मीर जाकर सरस्वती देवी की साधना की और देवी का साक्षात्कार प्राप्त कर देवी से आठ व्याकरण ग्रंथ प्रदान करने का निवेदन किया। देवी कृपा से आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी व्याकरण ग्रंथ लेकर राजा सिद्धराज जयसिंह के दरबार में पहुंचे। जिसका नाम सिद्धहेम शब्दानुशासन दिया। राजा की प्रसन्नता का पार नहीं रहा। राजा ने उस ग्रंथ को हाथी पर रखवाकर नगर में भ्रमण करवाया था। यह महान ग्रंथ आज भी संस्कृत व्याकरण के प्रमुख ग्रंथों में माना जाता है।

आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी की जितनी प्रगाढ़ता सिद्धराज जयसिंह से थी उससे भी अधिक घनिष्टता उनके सिंहासन पर बैठने वाले राजा कुमारपाल से रही। कुमारपाल अपने समय के दिग्विजयी महाराजा रहे। अठ्ठारह देशों में उनका शासन था। उनके शासन में मारना, काटना जैसे शब्दों का प्रयोग करना निषेध था। अहिंसा के क्षेत्र में आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी की प्रेरणा से उन्होंने कई कार्य किए जो कि जैन ग्रंथों में विस्तार से पढ़े जा सकते है। महाराजा कुमारपाल ने अपने आत्मकल्याण के लिए आग्रह कर आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी से एक ग्रंथ लिखने का अनुरोध किया तो आचार्य श्री ने योगशास्त्र ग्रंथ की रचना की थी।

आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी द्वारा रचित ग्रंथों मे योगशास्त्र सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसकी शैली पतंजलि के योगसूत्र के अनुसार ही है किन्तु विषय और वर्णन क्रम में मौलिकता एवं भिन्नता है। योगशास्त्र नीति विषयक उपदेशात्मक काव्य की कोटि में आता है। योगशास्त्र जैन संप्रदाय का धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रंथ है। वह अध्यात्मोपनिषद् है। इसके अंतर्गत मदिरा दोष, मांस दोष, नवनीत भक्षण दोष, मधु दोष, उदुम्बर दोष, रात्रि भोजन दोष का वर्णन है। योगशास्त्र आज भी अत्यन्त उपादेय ग्रन्थ है। आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी ने अपने योगशास्त्र से सभी को गृहस्थ जीवन में आत्मसाधना की प्रेरणा दी। पुरुषार्थ से दूर रहने वाले को पुरुषार्थ की प्रेरणा दी। इनका मूल मंत्र स्वावलंबन है। वीर और दृढ चित पुरुषों के लिये उनका धर्म है। आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी के ग्रंथो ने संस्कृत एवं धार्मिक साहित्य में भक्ति के साथ श्रवण धर्म तथा साधना युक्त आचार धर्म का प्रचार किया। समाज में से निद्रालस्य को भगाकर जागृति उत्पन्न की। सात्विक जीवन से दीर्घायु पाने के उपाय बताये। सदाचार से आदर्श नागरिक निर्माण कर समाज को सुव्यवस्थित करने में आचर्य ने अपूर्व योगदान किया।

प्रसिद्ध विद्वान सोमेश्वर भट्ट की 'कीर्ति कौमिदी' में आचार्य हेमचन्द्रसूरी जी के बारे में कहा है कि "सदा हृदि वहेम श्री हेमसूरेः सरस्वतीम्।,सुवत्या शब्दरत्नानि ताम्रपर्णा जितायया ॥" आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी ने तर्कशुद्ध, तर्कसिद्ध एवं भक्तियुक्त सरस वाणी के द्वारा ज्ञान चेतना का विकास किया और परमोच्च चोटी पर पहुंचा दिया। पुरानी जड़ता को जड़मूल से उखाड़कर फेंक दिया। आत्मविश्वास का संचार किया। आचार्य के ग्रंथो के कारण जैन धर्म गुजरात में दृढमूल हुआ। भारत में सर्वत्र, विशेषतः मध्य प्रदेश में, जैन धर्म के प्रचार एवं प्रसार में उनके ग्रंथों ने अभूतपूर्व योगदान किया। इस दृष्टि से जैन धर्म के साहित्य में आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों का स्थान अमूल्य है। अन्य ग्रंथों में काव्यानुशासन, छन्दानुशासन, सिद्धहेमशब्दानुशासन (प्राकृत और अपभ्रंश का ग्रन्थ), उणादिसूत्रवृत्ति, अनेकार्थ कोश, देशीनाममाला, अभिधानचिन्तामणि, द्वाश्रय महाकाव्य, काव्यानुप्रकाश, त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित, परिशिष्ट-पर्वन, अलङ्कारचूडामणि, प्रमाणमीमांसा, वीतरागस्तोत्र आदि प्रसिद्ध है।

आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी ने 84 वर्ष की अवस्था में अनशनपूर्वक अन्त्याराधन क्रिया आरम्भ की। विक्रम सवंत 1229  में महापंडितों की तरह समाधि मरण को प्राप्त किया।  आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी को पाकर उस समय गुजरात अज्ञानता, धार्मिक रुढियों एवं अंधविश्वासों से मुक्त हो धर्म का महान केन्द्र बन गया था। अनुकूल परिस्थिति में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी सर्वजनहिताय एवं सर्वापदेशाय पृथ्वी पर अवतरित हुए। 12 वीं शताब्दी में पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, वल्लभी, उज्जयिनी, काशी इत्यादि समृद्धिशाली नगरों की उदात्त स्वर्णिम परम्परा में गुजरात के अणहिलपुर ने भी गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया।

आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी अद्वितीय विद्वान थे। साहित्य के सम्पूर्ण इतिहास में किसी दूसरे ग्रंथकार की इतनी अधिक और विविध विषयों की रचनाएं उपलब्ध नहीं है। व्याकरण शास्त्र के इतिहास में आचार्य हेमचन्द्रसूरीजी का नाम सुवर्णाक्षरों से लिखा जाता है। संस्कृत शब्दानुशासन के वे अन्तिम रचयिता हैं। इनके साथ उत्तर भारत में संस्कृत के उत्कृष्ट मौलिक ग्रन्थों का रचनाकाल समाप्त हो जाता है।

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