विनोबा विचार प्रवाह के सूत्रधार रमेश भईया ने भेंट किया गीता पर लिखा हुआ विश्लेषण 
 

Ramesh Bhaiya, the mastermind of Vinoba Vichar Pravah, presented an analysis written on Gita
Ramesh Bhaiya, the mastermind of Vinoba Vichar Pravah, presented an analysis written on Gita
उत्तर प्रदेश डेस्क लखनऊ (आर एल पाण्डेय)। विनोबा विचार प्रवाह बाबा विनोबा को गीता का पांचवा अध्याय अत्यंत प्रिय और बारहवां  अध्याय गांधी जी को विशेष  प्रिय माना गया*। बाबा विनोबा बताते थे कि गीता के भिन्न भिन्न अध्याय भिन्न भिन्न विचारकों को।विशेष प्रिय हुए है। इसकी एक सारिणी बाबा ने बनाई थी

कि किसे कौन सा अध्याय ज्यादा प्रिय था। गीता का बारहवां अध्याय काफी छोटा परंतु भक्त लक्षणों से परिपूर्ण है इसलिए गांधी जी को प्रिय था। नौवां अध्याय ज्ञानदेव महाराज को प्रिय था वे उसी का।चिंतन करते हुए समाधिस्थ हुए थे।वेदंतियों को पद्रहवां अध्याय प्रिय क्योंकि इसमें वेदों का सब सार सा जाता है।कंठस्थ करने में छोटा और सरल है। विनोबा जी की मां जो ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थीं उन्हें यह अध्याय कंठस्थ था। हमने अपनी राष्ट्रीय ग्रामस्वराज्य पदयात्रा के समय में इसके साक्षात दर्शन किए कि महाराष्ट्र में शाम के भोजन से पहले घरों के बच्चे तक गीताई के पंद्रहवें अध्याय का पाठ करना कर्तव्य मानते है।

अध्याय दो और तीन कर्मयोगियों को प्रिय है। लोकमान्य तिलक ने इन दोनों अध्यायों को बड़ा महत्व दिया। अध्याय तेरहवां शंकराचार्य जी।को प्रिय था।अठारहवें अध्याय को एकाध्यायी गीता भी कहा गया है क्योंकि समस्त गीता का सार इसमें है। बाबा का पांचवे अध्याय से अत्यंत परिचय था। उनकी प्रीति इसी अध्याय से ज्यादा थी। गीता की सर्वाधिक गुत्थियां इसी में हैं उनका अर्थ लगाना और समझना दोनो कठिन हैं। बाबा ने इसको खोलने में काफी मेहनत की। जब खुल गया,तो बाबा ने इसी अध्याय से गीता का तर्जुमा प्रारंभ किया।        इस अध्याय में भगवान कहते हैं कि अकर्म में कर्म सन्यास है और कर्म में अकर्म योग है।

संन्यासी और योगी की योग्यता बराबर है।दोनों का अंतरिक स्वरूप एक ही है। दोनों वीतराग हैं,दोनों में  रागद्वेष नहीं है। दो तोला सोना गोलाकार है या त्रिकोणाकार है दोनों का व्यवहारिक मूल्य तो एक ही है। ऐसा ही संन्यासी।और कर्मयोगी दोनो का व्यावहारिक और वास्तविक मूल्य एक ही।है। सन्यासी ने कर्म का। त्याग किया है,लेकिन उसने कर्म को कर्मद्वेष से नहीं छोड़ा। दूसरी ओर कर्मयोगी कर्म राग से प्रेरित होकर कर्म नहीं।करता। दोनों।की।प्रेरणा रागद्वेषरहित होने से सन्यास और कर्मयोग तो स्वरूपत: एक ही हैं।
कर्मयोग और सन्यास स्वरूपत: समान, फलत: समान ही हैं। कर्मयोगी का लोकसंग्रह अधिक स्पष्ट और शांति कम  स्पष्ट  होती है। और सन्यासी की शांति अधिक स्पष्ट और लोकसंग्रह कम स्पष्ट दिखाई पड़ता है। कर्मयोगी और सन्यासी का लक्ष्य ,ध्येय एक है। दोनों को एक ही स्थान प्राप्त होता है, मोक्ष।  कुल मिलाकर स्वरूप, परिणाम, लक्ष्य तीनों दृष्टि से देखें तो सन्यासी और कर्मयोगी में कोई भेद नहीं ,दोनों एक ही हैं। दोनों में भेद सिर्फ आकार का है,प्रकार का नहीं। दोनों की।योग्यता बराबर होने पर भी सन्यास की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ बताया गया है। कर्मयोगो विशिष्यते। कभी कभी मनुष्य शरीर से पंगु बन जाता है या ऐसी परिस्थिति आ जाती है जिससे कर्म का आचरण संभव नहीं, उस दृष्टि से अकर्मयोग का अभ्यास भी होना चाहिए। वह कठिन और कष्टसाध्य  हो सकता है लेकिन यह मानकर टालना ठीक नहीं। जप ध्यान आदि।इसमें मददगार हैं।

हिंदू धर्म में चार आश्रम_ ब्रम्हचर्य, गृहस्थ वानप्रस्थ और सन्यास। यह सन्यास आश्रम जो है । गीता जिसे सन्यास कहती है वह दूसरी वस्तु है। संन्यास आश्रम एक व्यवस्था है जबकि सन्यास एक व्यवस्था नहीं बल्कि अवस्था है। गीता जीवन के टुकड़े नहीं करना चाहती।  मनुस्मृति आदि स्मृति ग्रंथ  समाज की।व्यवस्था बनी रहे, उस दृष्टि से प्रवृत्त हुए हैं।वे तैलदीप का काम करते हैं।और गीता तो मणिदीप हैं।वह व्यवस्थानिष्ठ नहीं,ज्ञाननिष्ठ हैं।समाज निष्ठ नहीं,विचारनिष्ठ है। तंत्रनिष्ठ नहीं बल्कि मंत्रनिष्ठ है। वह।सूर्य के।समान है,अग्नि के।समान नहीं। सूर्य व्यापक सेवा करता है। अग्नि व्यवस्थात्मक सेवा करती है। अग्नि का प्रकाश और ताप आखिर उसे सूर्य से ही तो प्राप्त हुए हैं। वैसे ही स्मृतिग्रंथ का मूल श्रोत तो गीता जैसे मंत्रनिष्ठ ग्रंथ ही होते हैं।    भगवान योगी के लिए पद्मपत्रमिवांभसा की उपमा देते हुए कहते हैं कि जो योगी हैं नि:संगभाव से कर्म करता है उसे पाप चिपकता नहीं।जैसे कमल पानी से रस लेता  है किंतु उससे निर्लिप्त रहता है।कमल निर्लिप्तता और पवित्रता का प्रतीक है।इसलिए तो भगवान के अवयवों को कमल की उपमा देते हैं जैसे कि करारबिंद, पदार बिंद, मुखारविंद, आदि आदि।

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