आत्मज्ञान आत्मा में ही है कहीं बाहर से आने वाला नहीं_ रमेश भइया
जिसका ऐहिक जीवन बिगड़ गया उसका पारमार्थिक जीवन तो बन ही नहीं सकता।यह हो सकता है कि ऐहिक जीवन अच्छा होते हुए भी,पारमार्थिक जीवन अच्छा न हो। मनुष्य और प्राणियों के लिए 98 डिग्री गर्मी की जरूरत होती है। सूर्य अगर कहे कि मैं ज्यादा गरमी क्यों रक्खूं ? तो समस्त संसार ठंडा पड़ जायेगा। सूर्य की गर्मी लाखों गुना अधिक होती है तब जाकर मनुष्य 98 डिग्री ग्रहण कर पाता है। इसी प्रकार समाज के नेताओं की महानतम शुद्धि होगी,तब समाज एक अल्पांश में उसे ग्रहण करेगा। समाज के नेताओं की नैतिकता और पारमार्थिक जीवन का आदर्श समाज से बहुत ऊंचा होना चाहिए।
कर्मयोग का विकर्म के साथ योग होता है तब आत्मज्ञान प्रकट होता है। आत्मज्ञान को गीता ने अकर्म कहा है। इसकी तुलना उष:काल से कर सकते हैं।रात्रि की ओर से देखने से उषा दिन है और दिन की ओर देखने से उषा रात्रि है। भगवान कहते हैं कि सब कर्मों और विकर्मों में आत्मज्ञान सबसे श्रेष्ठ है_ सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते कर्म जब तक सहज नहीं होता,अधूरा ही समझना चाहिए।कर्म के सब गुण जब इंद्रियों में ही स्वगत हो जायेंगें तब कर्म पूर्ण हुआ ऐसा समझ सकते हैं। कर्म की परिसमप्ति ज्ञान में होती है।
भगवान कहते हैं_ ज्ञान प्राप्ति के लिए ज्ञानियों के पास जाओ । और फिर ज्ञान की प्रक्रिया बताते हुए कहते हैं_ नम्रता, जिज्ञासा,और सेवा। शंकराचार्य ने कहा है_ आत्मा को जानने की इच्छा रखो और घर छोड़ो।घर में आसक्ति लगी रहती है।इन आसक्तियों के रहते आत्मोन्नति नहीं हो सकती।ज्ञान प्राप्त हो जाने पर घर और बाहर दोनों बराबर है। जिसे आत्मा को जानने की इच्छा है,उसे गुरु को खोजना होगा। बिना गुरुकृपा आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होता। गीता कहती है कि नम्रभाव से गुरु की सेवा करो,प्रश्न पूछो और ज्ञान हासिल करो। ज्ञान की प्राप्ति शाब्दिक या तार्किक प्रक्रिया नहीं है।ज्ञान जीवन में उतरना चाहिए। पूर्ण ज्ञानी और अनुभवी गुरु चाहिये। अर्जुन को भगवान कृष्ण गुरु के रूप में मिले थे। दत्तात्रेय ने चौबीस गुरु बनाए थे। योग्य गुरु मिलना दुर्लभ है। तो क्या हम निराश होंगें?
गीता कहती है कर्म_ विकर्म के आचरण से, यदि मनुष्य अपने चित्त की शुद्धि करता रहे और ज्ञान की पिपासा बनाए रखें तो उसे आत्मज्ञान हो जायेगा। आखिर आत्मज्ञान तो आत्मा में ही है। कहीं बाहर से आनेवाला नहीं। हां,गुरु के बिना समय अधिक लगेगा,कष्ट भी अधिक हो सकते हैं। गुरु को खोजने का तरीका है कि हम उत्तम शिष्य बनें। आत्मज्ञान की।छानबीन करते हुए भगवान उसके तीन परिणामों का जिक्र करते हैं।1_ मोहनाश 2_ पाप निस्तार 3_ कर्मदाह । देह_विस्तार ज्ञान_ विस्तार नहीं, मोह_ विस्तार है। माता अपने पुत्रों में अपने शरीर का विस्तार देखती है।यह मोह विस्तार ही है। यदि वह संसारभर के सब बच्चों पर अपने बच्चे जैसा प्रेम करने लगे, तब उसे मोह_ विस्तार नहीं कहा जाएगा बल्कि।आत्मज्ञान होगा।
अर्जुन के चित्त में स्वजन_ परजन का मोह पैदा हुआ था, वह स्व और पर में भेद करने लगा था। भगवान उसे कहते हैं कि तुम स्व और पर का भेद विचार त्यागकर , समभाव से बर्ताव करो। अर्थात तटस्थ भाव से आचरण करने को कहा। कुटुंब,समाज ,राष्ट्र चाहे विस्तार कितना ही बड़ा क्यों न हो,जहां कहीं अहम जुड़ा है,वह शरीर का ही विस्तार है,आत्मा का नहीं।वह ज्ञान नहीं , मोह है। शरीर_ विस्तार ,क्षेत्र_, विस्तार ,अहम_ विस्तार से काम नहीं बनेगा। गहराई बढ़ानी होगी,आत्म_ विस्तार करना होगा।।
बाबा विनोबा का कहना है कि स्थूलरूप से हम सारे संसार की सेवा करना चाहें तो भी नहीं कर सकेंगें।शरीर की अपनी सीमा है और हमें सीमा के भीतर ही सेवा करनी होगी। इतना जरूर देखना होगा कि वह सेवा किसी के विरोध में न हो। तुकाराम महाराज सेवा तो अपने आसपास के लोगों की करते थे लेकिन जब उनसे पूंछा गया कि आपका स्वदेश कहां है तो उन्होंने उत्तर दिया_ आमुचा स्वदेश भुवनत्रयामधेन वास हमारा स्वदेश त्रिभुवन है। आत्मज्ञानी पुरुष जहां कहीं भी जायेगा,अपने को अपने घर ही अपने स्वजनों के बीच जायेगा। समत्वबुद्धि आत्मज्ञान का पहला रूप है।