पूर्वोत्तर भारत के शिवाजी असम के वीरअहोम योद्धा लाचित बोरफुकन 
 

Shivaji of Northeast India Veerahom warrior Lachit Borphukan of Assam
Shivaji of Northeast India Veerahom warrior Lachit Borphukan of Assam
(शिव शंकर सिंह पारिजात-विभूति फीचर्स) भारत के मध्यकालीन और मुगलकालीन इतिहास के दौरान मुगलों और राजपूतों तथा मुगलों और मराठों के बीच हुई लड़ाईयों के बारे में तो सभी जानते हैं, जब राणा सांगा ने सैकड़ों घावों के बावजूद बाबर से ,घास की रोटी खाकर महाराणा प्रताप ने  अकबर से व अपने गुरिल्ला युद्ध कौशल से छत्रपति शिवाजी महाराज ने औरंगजेब से मोर्चेबंदी की थी। इसी तरह पूर्वोत्तर भारत में भी ऐसे कई महान योद्धा हुए हैं जिन्होंने अपने पराक्रम से मुगलों के पसीने छुड़ाए थे।

 अनेक प्रयासों के बावजूद मुगल इस क्षेत्र में अपने पैर नहीं जमा पाये थे। जब मुग़ल साम्राज्य अपने परवान पर था, उस समय भी पूर्वोत्तर राज्य खासकर असम में अपने पैर जमाने में मुगलों को सफलता नहीं मिल पायी थी। मोहम्मद गजनी से लेकर औरंगजेब के पहले तक मुगलों ने सत्रह बार असम में पैर जमाने की कोशिश की, पर वे विफल रहे। असम के अहोम योद्धाओं ने वीरता से मुगलों का सामना किया था जिनमें लाचित बोरफुकन का नाम प्रमुखता से लिया जाता है जो अपनी अदम्य वीरता के कारण पूर्वोत्तर भारत के 'शिवाजी' कहलाते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने शिवाजी की तरह मुगलों की कई बार रणनीति विफल की और उन्हें युद्ध के मैदान में हराया था। गुवाहाटी पर मुगलों का कब्जा होने के बाद लाचित ने शिवाजी की तरह ही उनको बाहर निकाला था।


असम के इतिहास पर नजर डालें तो प्राचीन काल में यह कामरूप या 'प्राग्यज्योतिषपुर' के रूप में जाना जाता था जिसकी राजधानी आधुनिक गुवाहाटी हुआ करती थी। इस साम्राज्य के अंतर्गत असम की ब्रह्मपुत्र घाटी, रंगपुर, बंगाल का कूच-बिहार और भूटान शामिल था।लाचित बोरफुकन अहोम साम्राज्य (1228-1826) के एक प्रसिद्ध सेना कमांडर थे। उन्हें 1671 की असम की विख्यात ‘सराईघाट की लड़ाई’ में उनके नेतृत्व के लिए जाना जाता है, जिसने राजा रामसिंह प्रथम के नेतृत्व में शक्तिशाली मुगल सेना द्वारा असम को वापस लेने के प्रयास को विफल कर दिया था।

Shivaji of Northeast India Veerahom warrior Lachit Borphukan of Assam


लाचित बोरफुकन के शौर्य और पराक्रम का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (नेशनल डिफेंस एकेडमी) के सर्वश्रेष्ठ कैडेट को उनके नाम पर 'लाचित बोरफुकन स्वर्ण पदक' प्रदान किया जाता है। इसके अलावा असम सरकार के द्वारा भी वर्ष 2000 में लाचित बोरफुकन अवॉर्ड की शुरुआत की गई थी। लाचित बोरफुकन के पराक्रम और सराईघाट की लड़ाई में असमिया सेना की विजय की स्मृति में संपूर्ण असम राज्य में प्रति वर्ष 24 नवम्बर को लाचित दिवस  मनाया जाता है।


ऐसे तो इतिहास ने पूर्वोत्तर भारत के इस वीर योद्धा के साथ सम्यक न्याय नहीं किया है और देश के अन्य भागों के अधिकांश लोग उनके नाम से उतने वाकिफ नहीं हैं, किंतु इस वर्ष (2024 में)  प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के द्वारा पूर्वी असम के जोरहाट में लाचित बोरफुकन की 125 फुट ऊंची कांस्य प्रतिमा के अनावरण के  पश्चात् पूरे देश में असम के इस जांबाज जनरल की चर्चा हुई। इस ऐतिहासिक मूर्ति की ऊंचाई 84 फीट है, जो 41 फीट के पेडस्टल पर स्थापित है। इस तरह मूर्ति की कुल ऊंचाई 125 फीट होती है।‌ इस भव्य मूर्ति का अनावरण-समारोह टेओक के पास होल्लोंगापार में लाचित बोरफुकन मैदान विकास परियोजना परिसर में किया गया। 16.5 एकड़ में फैले इस क्षेत्र को एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा रहा है, जो क्षेत्र के इतिहास को उजागर करता है। गौरतलब है कि प्रतिमा की नींव फरवरी 2022 में पूर्व राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने रखी थी।


इस अवसर पर जोरहाट में एक रैली को संबोधित करते हुए, पीएम मोदी का वक्तव्य असम के इस महान योद्धा के व्यक्तित्व को उजागर करता है जब उन्होंने कहा था कि "आज मुझे लाचित बोरफुकन की प्रतिमा का अनावरण करने का अवसर मिला। वे असम की बहादुरी और साहस का प्रतीक हैं। 2022 में हमने दिल्ली में लाचित बोरफुकन की 400 वीं जयंती मनाई थी। मैं उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।”वस्तुत: लाचित बोरफुकन एक ऐसे योद्धा थे जिन्होंने पूर्वोत्तर की जमीन पर मुगलों की बर्बर विस्तारवादी मंसूबों को ही दफन कर दिया। उनके पराक्रम में इतना बल था कि उनसे टकराने के बाद मुगलों ने कभी पूर्वोत्तर पर काबिज होने का स्वप्न भी न देखा।


24 नवंबर 1622 को पैदा हुए लाचित बोरफुकन में युद्ध लड़ने की अद्भुत क्षमता थी। 1671 में हुए असम के सराईघाट के युद्ध में उन्होंने  मुगलों की विशाल सेना को अपनी रणनीतिक और जलीय युद्ध कौशल की वजह से घुटनों पर लाकर खड़ा कर दिया। हालांकि इस युद्ध के समय  लाचित पूरी तरह से स्वस्थ नहीं थे, किंतु उनमें राष्ट्रभक्ति का ऐसा जज्बा था कि बीमार होते हुए भी वे मातृभूमि की रक्षा के प्रण से नहीं डिगे और मुस्लिम आक्रांताओं से वीरता से लड़कर अपनी सेना को विजय दिलाई। लाचित बोरफुकन एक योग्य, कुशल और अनुभवी व्यक्ति थे तथा उन्होंने  मानविकी, शास्त्र और सैन्य कौशल की शिक्षा प्राप्त की थी। उन्हें सर्वप्रथम अहोम स्वर्गदेव के ध्वज वाहक (सोलधर बरुआ) का पद सौंपा गया था जो कि किसी महत्वाकांक्षी कूटनीतिज्ञ या राजनेता के लिए पहला महत्वपूर्ण कदम माना जाता था। बोरफुकन के रूप में अपनी नियुक्ति से पूर्व वे अहोम राजा चक्रध्वज सिंह की शाही घुड़साल के अधीक्षक (घोड़ बरुआ), रणनैतिक रूप से महत्वपूर्ण सिमुलगढ़ किले के प्रमुख और शाही घुड़सवार रक्षक दल के अधीक्षक (या दोलकक्षारिया बरुआ) के पदों पर आसीन रहे।


असम के इतिहास पर नजर डालें तो 1228 से 1826 के बीच लगभग 600 वर्षों तक अहोम राजाओं ने असम के प्रमुख हिस्सों पर शासन किया था। इस दौरान अहोम साम्राज्य पर तुर्क, अफगान और मुगलों के कई बार हमले हुए। मुगलों का पहला हमला लाचित के जन्म से सात साल पहले 1615 में हुआ था। 1663 में मुगलों से अहोम पराजित हो गए जिसके बाद घिलाजरीघाट की संधि हुई। इस संधि के अनुसार अहोम राजा जयध्वज सिंह को अपनी बेटी और भतीजी को मुगल हरम में भेजना पड़ा। मुगलों को 82 हाथी, 3 लाख सोने-चाँदी के सिक्के, 675 बड़ी बंदूकें और 1000 जहाज मिले। इसके अलावा राज्य का एक बड़ा हिस्सा भी चला गया।


राजा जयध्वज सिंह इस सदमे को सह नहीं सके और जल्द ही उनकी मृत्यु हो गई जिसके बाद चक्रध्वज सिंह उनके उत्तराधिकारी बने। चक्रध्वज सिंह ने मुगलों के हाथों हुए अहोम साम्राज्य के इस अपमान का बदला लेने की ठानी, और, यहीं से लाचित बोरफुकन की शौर्य गाथा शुरू होती है। अहोम सम्मान को वापस पाने के लिए राजा चक्रध्वज सिंह ने अगस्त 1667 में लाचित बोरफुकन को अपना सेनापति नियुक्त किया। बोरफुकन को मानविकी और शास्त्रों के बारे में अच्छी जानकारी थी और वे सैन्य कौशल में पारंगत थे। सेनापति बनने से पहले वे अहोम साम्राज्य में कई अन्य अहम जिम्मेदारी भी निभा चुके थे।


4 नवंबर 1667 को बोरफुकन के सैनिकों ने गुवाहाटी पर कब्जा कर लिया। मुगलों से युद्ध होने के कारण गुवाहाटी रणनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण जगह थी। इस हार के बाद मुगल शासक औरंगजेब ने गुवाहाटी को फिर से हासिल करने के लिए आमेर के राजा मिर्जा राजा जय सिंह के पुत्र राजा राम सिंह की कमान में एक बड़ी सेना भेजी। हालांकि इस दौरान अहोमों और मुगलों के बीच कई बार संघर्ष हुए और एक रणनीति के तहत लाचित ने मुगलों को पानी की तरफ धकेलने का प्रयास किया क्योंकि जल युद्ध में पारंगत लाचित इस बात से भलीभांति परिचित थे कि भले ही जमीन पर मुगल सेना कितनी भी मजबूत हो, पर जल में वे उतने कारगर नहीं और अंततः 1671 में सराईघाट का युद्ध लड़ा गया।
इस युद्ध में मुगल फौज की संख्या 50 हजार से भी अधिक थी। इतनी अधिक संख्या में आई मुगल फौज को घेरने के लिए बरफुकन ने अपनी मात्र 7 नौकाओं में सवार सैनिकों के साथ जल-युद्ध की रणनीति अपनाई। ब्रह्मपुत्र नदी और आसपास के पहाड़ी क्षेत्र पर अपनी मजबूती बना कर मुगलों को नाकों चने चबवा दिए। उन्हें पता था कि जमीन पर मुगलिया फौज चाहे कितनी भी मजबूत हो, लेकिन पानी में वे घुटने टेकने को मजबूर होंगे।


 सराईघाट युद्ध के घटनाक्रम पर नजर डालें तो लाचित और उनकी सेना द्वारा पराजित होने के बाद मुगल सेना ब्रह्मपुत्र नदी के रास्ते ढाका से असम की ओर चली और गुवाहाटी की ओर बढ़ने लगी। रामसिंह के नेतृत्व वाली मुग़ल सेना में 30 हजार पैदल सैनिक, 15 हजार तीरंदाज़, 18 हजार तुर्की घुड़सवार, 5 हजार बंदूकची और 1 हजार से अधिक तोपों के अलावा नौकाओं का विशाल बेड़ा था।लड़ाई के पहले चरण में मुग़ल सेनापति राम सिंह को जब असमिया सेना के विरुद्ध कोई भी सफलता नहीं मिली, तो रामसिंह ने षड्यंत्रपूर्वक अहोम शिविर में एक तीर के माध्यम से पत्र भेजकर लाचित की निष्ठा पर  भ्रम फैलाने का प्रयास किया, पर सफल न हो सका।यद्यपि इस प्रकरण से क्षणभर के लिये अहोम राजा को लाचित की निष्ठा और देशभक्ति पर संदेह हुआ, लेकिन उनके प्रधानमंत्री अतन बुड़गोहेन ने राजा को समझाया कि यह लाचित के विरुद्ध एक चाल है।


सराईघाट की लड़ाई के अंतिम चरण में, जब मुगलों ने सराईघाट में नदी से आक्रमण किया, तो मुगलों की विशाल सेना को देख असमिया सैनिक लड़ने की इच्छा खोने लगे थे। कुछ सैनिक पीछे भी हट गए। यद्यपि लाचित उस समय गंभीर रूप से बीमार थे, फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। वे एक नाव पर सवार हुए और सात नावों के साथ मुग़ल बेड़े की ओर बढ़ चले। उन्होंने अपने सैनिकों से कहा, "यदि आप युद्ध से भागना चाहते हैं, तो भाग जाएं। किंतु महाराज ने मुझे जो कार्य सौंपा है, उसे मैं निष्ठापूर्वक पूरा करूंगा। चाहे मुग़ल मुझे बंदी ही क्यों न बना लें। आप लोग महाराज को सूचित कर दीजिएगा कि उनके सेनाध्यक्ष ने उनके आदेश का पालन करते हुए पराक्रमपूर्वक युद्ध किया।" लाचित के इस ओजपूर्ण आह्वान के बाद उनके सैनिक तेजी से लामबंद हो गए और ब्रह्मपुत्र नदी में एक भीषण युद्ध हुआ। लाचित बोरफुकन विजयी हुए और मुग़ल सेनाएं गुवाहाटी से पीछे हट गईं।

मुग़ल सेनापति ने अहोम सैनिकों और अहोम सेनापति लाचित बोरफुकन के हाथों अपनी पराजय स्वीकार करते हुए लिखा, "महाराज की जय हो! सलाहकारों की जय हो! सेना-नायकों की जय हो! देश की जय हो! वस्तुत: युद्ध में केवल एक ही व्यक्ति सभी शक्तियों का नेतृत्व करता है! यहां तक ​​कि मैं राम सिंह, व्यक्तिगत रूप से युद्ध-स्थल पर उपस्थित होते हुए भी, कोई कमी या कोई अवसर नहीं ढूंढ सका! " इस ऐतिहासिक युद्ध में जीत के एक साल बाद वीर योद्धा बोरफुकन का निधन हो गया।

मृत्यु के उपरांत उन्हें असम के हॉलोंगापार में अहोम राजघराने के शाही कब्रिस्तान में दफनाया गया, जहां अब एक स्मारक बनाया गया है। इस परियोजना की कुल लागत 214 करोड़ बताई जाती है। होलोंगापार में विकास के पहले चरण में स्टैच्यू ऑफ वेलोर स्थापित किया गया था और दूसरे चरण का काम  चल रहा है। यहां अहोम राजवंश के 600 वर्षों के शासन के इतिहास को प्रदर्शित करने वाली एक गैलरी बनाई जा रही है, जबकि राज्य के समकालीन इतिहास को प्रदर्शित करने के लिए एक और गैलरी स्थापित की जा रही है। 500 लोगों की क्षमता वाला ऑडिटोरियम भी बनाया जा रहा है। लाचित बोरफुकन असम के एक जांबाज़ योद्धा थे जिन्होंने अपनी वीरता से असम  ही नहीं, वरन् भारत की गौरवगाथा में अहम योगदान किया है। इतिहास में उन्हें उचित स्थान देना, इस वीर योद्धा के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।( लेखक पूर्व जनसंपर्क उपनिदेशक एवं इतिहासकार हैं)

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