प्रभुपाद ने 14 बार विश्व का भ्रमण किया 

 

कृष्णभावना ही जीव की वास्तविक भावना है

ब्यूरो चीफ आर एल पाण्डेय

लखनऊ। श्रील प्रभुपाद जी के तिरोभाव दिवस पर मन्दिर अध्यक्ष अपरिमेय श्याम प्रभु जी ने श्रील प्रभुपाद जी के तीन महत्वपूर्ण सिद्धान्तों पर चर्चा की, जो निम्नवत है:-
1- प्रचार ही सार
2- पुस्तकें ही आधार
3-  शुद्धता ही शक्ति
के साथ-२ श्रील प्रभुपाद जी के जीवन सफर के विषय में बताया।  इनका नाम *"अभयचरण डे" था और इनका जन्म कलकत्ता में बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था । सन् १९२२ में कलकत्ता में अपने गुरुदेव श्री भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर से मिलने के बाद उन्होंने श्रीमद्भग्वद्गीता पर टिप्पणी लिखी, गौड़ीय मठ के कार्य में सहयोग दिया तथा १९४४ में बिना किसी की सहायता के एक अंगरेजी पत्रिका आरंभ की ”जिसके संपादन, टंकण और परिशोधन (यानि प्रूफ रीडिंग) का काम स्वयं संभाला। सन् १९४७ में गौड़ीय वैष्णव समाज ने इन्हें भक्तिवेदान्त की उपाधि से सम्मानित किया, क्योंकि इन्होने सहज भक्ति के द्वारा वेदान्त को सरलता से हृदयंगम करने का एक परंपरागत मार्ग पुनः प्रतिस्थापित किया।
सन् १९५९ में सन्यास ग्रहण के बाद उन्होंने वृंदावन में श्रीमद भागवत पुराण का अनेक खंडों में अंग्रेजी में अनुवाद किया। सन् १९६५ में अपने गुरुदेव के अनुष्ठान को संपन्न करने वे ७० वर्ष की आयु में बिना धन या किसी सहायता के अमेरिका जाने के लिए निकले जहाँ सन् १९६६ में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की स्थापना की। सन् १९६८ में प्रयोग के तौर पर वर्जीनिया (अमेरिका) की पहाड़ियों में नव-वृन्दावन की स्थापना की। सन १९७२ में टेक्सस के डैलस में गुरुकुल की स्थापना कर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की वैदिक प्रणाली का सूत्रपात किया।
सन १९६६ से १९७७ तक उन्होंने विश्वभर का १४ बार भ्रमण किया तथा अनेक विद्वानों से कृष्णभक्ति के विषय में वार्तालाप करके समझाया कि कृष्णभावना ही जीव की वास्तविक भावना है। उन्होंने विश्व की सबसे बड़ी आध्यात्मिक पुस्तकों की प्रकाशन संस्था- भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट- की स्थापना के साथ-साथ कृष्णभावना के वैज्ञानिक आधार को स्थापित करने के लिए उन्होंने भक्तिवेदांत इंस्टिट्यूट की भी स्थापना की।

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