अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ ग़दर मचा रखा था लाला हरदयाल ने
फ़िर वहीं से अपने ज्ञान और वक्तव्य शक्ति के दम पर बजाते हैं आज़ादी का बिगुल। यह भी एक सवाल है कि जिस शिक्षा की वकालत लाला जी ने ज़िन्दगी भर की, जिस वज़ीफ़े के दम पर लाला जी ने दुनिया के विख्यात यूनिवर्सिटी में शिक्षा ली; आज हमारी शिक्षा प्रणाली में लाला हरदयाल के नाम पर कितने स्कॉलरशिप प्रोग्राम चल रहे हैं? क्या भारतीय विश्वविद्यालयों में लाला हरदयाल के ज़िन्दगी और उनके योगदान पर एक विशेष कोर्स नहीं संचालित किये जाने चाहिए?
ख़ैर, आज़ादी किसी एक व्यक्ति के बलिदान से नहीं मिली। इसलिए, इसका श्रेय किसी एक इन्सान को नहीं दिया जा सकता। देश में जहां अलग-अलग क्रान्तिकारी अलग-अलग परिस्थितियों में बलिदान दे रहे थे; वहीं, कांग्रेस के दोनों गुटों (नरम-गरम दल) अपने-अपने स्तर पर आन्दोलन चला रहे थे। कुछ ऐसे भी महान क्रान्तिकारी थे जो अपने घर-परिवार से दूर रहकर विदेशों में अगणित यातनाओं को झेलकर आज़ादी की लौ जला रखी थी।
इन सभी क्रान्तिकारियों और स्वतन्त्रता सेनानियों के राह वा संगठनों में भले ही अन्तर रहा हो; लेकिन सबका उद्देश्य एक ही था, आज़ादी। लाला हरदयाल भी ऐसे ही एक नायक थे। लाला हरदयाल की जीवन सफ़र को समझें; तब यही लगता है कि इनसे बड़ा समाजवादी, हिन्दुत्व और सनातनी विरले ही कही होंगे। क्या आज की राजनीति में लाला हरदयाल के कद़ को आदर्श भाव में सामने लाने की आवश्यकता नहीं है!
आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजी हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए एक से बढ़कर एक दीवाने अपनी जान जोख़िम में डालकर अपना काम कर रहे थे। इन्हीं दीवानों में से एक थे लाला हरदयाल। लाला हरदयाल का जन्म १४ अक्टूबर १८८४ को दिल्ली में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। लाला हरदयाल को बचपन में उनकी माता भोली रानी तुलसीदास की रामचरितमानस और वीर पूजा पाठ सुनाया करती थीं। जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके भीतर बचपन में ही तेज़ बुद्धि और निडरता का आगमन होने लगा। लाला जी के पिता गौरी दयाल माथुर दिल्ली स्थित एक ज़िला न्यायालय में रीडर थे। वे उर्दू और फ़ारसी के पण्डित थे। उनकी देख-रेख में लाला हरदयाल ने भी शिक्षा के प्रति समर्पण दिखाया।केवल सत्रह साल की उम्र में लाला हरदयाल का विवाह सुन्दर रानी नाम की एक ख़ूबसूरत लड़की से हो गया था। कम उम्र में ही लाला हरदयाल के ऊपर आर्य समाज की गहरी छाप पड़ी।
लाला हरदयाल की शिक्षा-दीक्षा की बात करें तो इस मामले में भी वे अव्वल रहे। उनकी आरम्भिक शिक्षा कैम्ब्रिज मिशन स्कूल में हुई और संस्कृत में ग्रेजुएशन की पढ़ाई दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से पूरी हुई। उन्होंने अपने एम ए की पढ़ाई लाहौर के पंजाब विश्वविद्यालय से की। एम ए में भी उन्होंने संस्कृत को ही प्राथमिकता दी। उन्होंने अपनी परीक्षा में बेहतरीन प्रदर्शन किया था जिसके परिणामस्वरूप उन्हें सरकार की ओर से दो सौ पौंड की छात्रवृत्ति दी गयी। इससे पता चलता है कि लाल हरदयाल अपनी पढ़ाई में कितने प्रखर थे।
लाला हरदयाल उच्च शिक्षा को ग्रहण करना चाहते थे। उन्हें मालूम था कि ज्ञान की लौ से ही अज्ञानता और गुलामी के अन्धेरे को मिटाया जा सकता है। लाला जी उसी छात्रवृत्ति के सहारे आगे पढ़ने के लिए लन्दन चले गये। वहां, सन् १९०५ में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया। उनकी मेहनत का नतीज़ा था कि वहां उन्हें दो छात्रवृत्तियां और मिलीं।
क्रान्ति और विद्रोह की पहली सीढ़ी विश्वविद्यालयों में मिलती है। लाला हरदयाल के साथ भी कुछ ऐसा ही संयोग हुआ। देश पहले से ही औपनिवेशिक शासन का चंगुल में फंसकर जूझ रहा था। ऐसे में भारतीय युवा देश-दुनिया के विश्वविद्यालयों में, जहां-जहां भी थे उनका बस एक ही ख़्वाब था 'आज़ादी'।लाला हरदयाल भी अब इसी संयोग की ओर मुड़ने लगे थे। हालांकि, इसके पहले ही वे क्रान्तिकारी मास्टर अमीरचन्द की गुप्त संस्था के सदस्य बन चुके थे। उन दिनों उसी लन्दन में एक और भारतीय हस्ती रहते थे, श्यामजी कृष्ण वर्मा। वर्मा जी ने देशभक्ति का प्रचार करने के लिए वहीं लन्दन में ही इण्डिया हाउस नामक संस्था की स्थापना की थी। लाला हरदयाल दूरदर्शी और एक कुशल रणनीतिकार भी थे। इसका अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनका विचार था, " भारत को आज़ादी दिलाने के लिए सबसे पहले जनता में राष्ट्रीय भावना जगाने की आवश्यकता है। उसके बाद पहले सरकार की कड़ी आलोचना की जानी चाहिए, फ़िर जाकर युद्ध की तैयारियां। तभी कोई ठोस नतीज़ा निकल सकता है वरना नहीं। " हालांकि, कुछ दिनों तक विदेश में रहने के बाद १९०८ में वे भारत वापस लौट आये।
एक ऐसी घटना का ज़िक्र करना आवश्यक हो जाता है जिसके बाद लाला हरदयाल के जीवन में नया मोड़ आ गया।उस दौर में लाहौर में युवाओं के मनोरंजन ख़ातिर एक क्लब हुआ करता था। उस क्लब का नाम था यंग मैन क्रिश्चियन एसोसिएशन। यानि कि वाई एम सी ए। उन्हीं दिनों लाला जी उसी लाहौर में अपनी एम ए की पढ़ाई कर रहे थे। ऐसा बताया जाता है कि लाला जी की वाई एम सी ए क्लब के सचिव से किसी मसले पर तीखी बहस हो गयी। लाला जी को गुस्सा आ गया। उस छात्र ने आगे-पीछे का परवाह किये बिना ही उसी क्लब के समानान्तर यंग मैन इण्डिया एसोसिएशन की स्थापना कर दिया।
जब मो अल्लामा इक़बाल ने सुनायी 'सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा 'लाला हरदयाल के कॉलेज में ही एम ए इक़बाल प्रोफेसर थे। उनकी लाला जी से अच्छी बनती थी। मीडिया रिपोर्टों में ऐसा कहा जाता है कि लाला जी ने अपने एसोसिएशन की उद्घाटन समारोह के अवसर पर उस समारोह की अध्यक्षता करने के लिए प्रो इक़बाल से निवेदन किया। प्रो इक़बाल ने लाला जी की इस निवेदन को स्वीकार कर लिया। इसी समारोह में प्रो इक़बाल ने अपनी मशहूर रचना ' सारे जहां से अच्छा ' सुनायी। प्रो इक़बाल की इस रचना ने उस समारोह में उपस्थित हर किसी को मन्त्रमुग्ध कर दिया।लाला हरदयाल जब भारत आते हैं; तब वे सबसे पहले पूना जाते हैं। वहां पर उनकी मुलाक़ात महान क्रान्तिकारी बाल गंगाधर तिलक से होती है। लाला हरदयाल कुछ वक्त व्यतीत करने के बाद लाहौर के एक अंग्रेजी दैनिक अख़बार 'पंजाबी' से जुड़कर बतौर सम्पादक काम करने लगे।
अंग्रेजी हुकूमत का दमन जोरों पर था। लेकिन, १९०८ में इस दमन की गति कुछ तेज़ होने लगी थी। इस दरमियान लाला हरदयाल के प्रवचनों से प्रभावित होकर जहां विद्यार्थी अपने-अपने कॉलेज छोड़ने लगे, वहीं सरकारी कर्मचारियों ने भी अपनी-अपनी नौकरियों से दूरी बना ली। ब्रितानिया सरकार इतना असहज महसूस करने लगी कि वो इन्हें गिरफ़्तार करने की योजना बनाने लगी। लाला हरदयाल ने लाला लाजपत राय की सलाह पर पेरिस जाना स्वीकार कर लिया। वे वहीं रहकर जेनेवा से प्रकाशित मासिक पत्रिका ' वन्दे मातरम ' का सम्पादन करने लगे। वे अपने लेखों में गोपाल कृष्ण गोखले जैसे उदारवादी विचारों वालों की आलोचनाएं खुलकर किया करते थे। दरअसल, लाला जी विदेशों में रहकर देशभक्ति का प्रचार-प्रसार किया करते थे। यह इतना आसान नहीं था। ख़ासतौर पर विदेशी धरती पर। वे फ्रांस में भी अधिक दिनों तक टिक न सके। इसका मुख्य कारण यह था कि पेरिस में इनके रहने-खाने का प्रबन्ध पेरिस में भारतीय देशभक्त कर सकने में असमर्थ रहे। इसके बाद लाला जी अल्जीरिया चले गये। वे वहां भी अधिक दिनों तक न रह सके और फ़िर इसके बाद अमेरिका चले गये। लाला जी वहां बड़े-बड़े धर्माचार्यों और विचारकों पर अध्ययन करने में लग गये। भाई परमानन्द के कहने पर इन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में हिन्दू दर्शन पर अनेक व्याख्यान दिया। ग़ौर करने वाली बात है कि अमेरिका में वहां के बुद्धिजीवियों में लाला जी की पहचान हिन्दू सन्त-ऋषि एवं स्वतन्त्रता सेनानी की बन गयी थी।१९१२ में, अमेरिका के ही स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में लाला हरदयाल हिन्दू दर्शन एवं संस्कृत के प्रोफेसर नियुक्त किये गये। वहीं रहकर लाला जी ने विख्यात 'ग़दर' पत्रिका निकालना प्रारम्भ कर दिया।
लाला जी ग़दर पत्रिका को अधिक दिनों तक चला नहीं सके क्योंकि उन्हीं दिनों जर्मनी और इंग्लैंड में भीषण जंग छिड़ चुकी थी। लाला हरदयाल ने जहां अमेरिका में रहकर क्रान्ति का बिगुल बजाने का बीड़ा उठाया, वहीं भाई परमानन्द इंडिया में रहकर ही क्रान्ति का मंगल अभियान चलाने लगे रहे। इसके परिणामस्वरूप भाई परमानन्द जी को गिरफ़्तार कर कड़ी सजा दी गयी। लेकिन, लाला हरदयाल अपने तेज़ बुद्धि के कारण अंग्रेजों को चकमा देकर अचानक स्विट्जरलैंड चले गये। वहां वे जर्मनी के साथ मिलकर भारत को आज़ादी दिलाने की कोशिशों में लगे रहे। जर्मनी के बाद वे स्वीडन चले गये। उन्होंने वहां की भाषा स्विस को भी किसी तरह से बेहद कम समय में सीख लिया। इसके बाद वे वहां स्विस भाषा में ही इतिहास, संगीत और दर्शनशास्त्र पर लेक्चर देने लगे। सबसे बड़ी बात यह है कि तब तक लाला हरदयाल विश्व की कुल तेरह भाषाओं में पारंगत हो चुके थे।
लाला हरदयाल एक कुशाग्रबुद्धि वाले तेज़-तर्रार क्रान्तिकारी थे। उनकी मृत्यु को लेकर भी तरह-तरह की बातें कही जाती हैं। लेकिन, जो मीडिया रिपोर्टों में बतायी जाती है उसके अनुसार लाला जी की मृत्यु ४ मार्च १९३८ को फिलाडेल्फिया में हुई थी। यह भी हमारा दुर्भाग्य है कि लाला जी ज़िन्दा रहते भारत नहीं आ सके। उनकी मृत्यु अकस्मात् हुई थी; इस घटना ने भारतीय जनता को सन्देह में डाल दिया था। हालांकि, सन् १९२७ में लाला जी को जब भारत लाने के मार्ग अवरूद्ध हो गये तब उन्होंने इंग्लैंड में ही रहने का निर्णय लिया। लन्दन में रहते हुए ही उनकी कालजयी कृति ' हिंट्स फार सेल्फ कल्चर ' प्रकाशित हुई। जिसको पढ़ने के बाद हर कोई यही कहता है कि लाला हरदयाल की विद्वत्ता अद्वितीय थी। वे साधारण मनुष्य नहीं थे।