सब तेरा बिखरा पड़ा है 

मोह तुमको छल रहा है 

आगे बढ़ो नियति गढ़ो 

ऐ राही भानु ढल रहा है 

sun rise
 ऐ राही भानु ढल रहा है!

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सुन पथिक क्या ठौर तेरा

तुम कहाँ तक जा रहे हो

है कोई गंतव्य या फिर

‘कर्मचक्र’ दोहरा रहे हो

पोटली भारी बड़ी है

एक क्षण विश्राम कर लो

बढ़ रहे बनकर अनश्वर 

अंत का भी ध्यान कर लो 

 साथ में जो चल रहे हैं

सब धुँध में खो जाएँगे 

लग रहे जो निज तुम्हें 

सब काल के हो जाएँगे 

 सब तेरा बिखरा पड़ा है 

मोह तुमको छल रहा है 

आगे बढ़ो नियति गढ़ो 

ऐ राही भानु ढल रहा है 

 ऐ राही भानु ढल रहा है!

- जया मिश्रा ‘अनजानी’

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