Hinglaj Temple : जब नेहरू ने पाकिस्तान को सौंप दिया हिंगलाज माता मंदिर

Balochistan would have been a part of India, not Pakistan if Nehru agreed | Hinglaj Temple 
 
Hinglaj Temple  : जब नेहरू ने पाकिस्तान को सौंप दिया हिंगलाज माता मंदिर
 Hinglaj Temple   : पाकिस्तान जैसे देश की हमारे भारत के सामने क्या हैसियत है, कोई हैसियत नहीं है. जितना पाकिस्तान का डिफेंस बजट है, उससे ज़्यादा तो अंबानी अपने यहां शादी पर खर्च कर देते हैं. पहलगाम हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच एक बार फिर टेंशन बढ़ गई है. पाकिस्तान की ज़रा हिम्मत तो देखिए, पहले अपने आतंकवादी भेजकर हमारे मासूम हिंदुस्तानियों पर गोलियां चलवाता है, और फिर हमको आंख भी दिखाता है, ये जानते हुए भी कि भारत को ज़्यादा वक्त नहीं लगेगा पाकिस्तान को दुनिया के नशे से हटाने के लिए. बावजूद इसके आज वो हमारे सामने सीना तान कर खड़ा हुआ है.

 चीन  कंधे से कंधा मिलाकर चलेगा


ये सब कुछ वो अपने दम पर नहीं कर रहा है, बल्कि उसे अपने फादर यानी चीन पर पूरा भरोसा है कि दुनिया का कोई देश उसके साथ खड़ा हो या ना हो, लेकिन चीन ज़रूर उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलेगा. और चीन की भी मजबूरी है पाकिस्तान का साथ देने की. भई चीन अगर पाकिस्तान का साथ नहीं देगा तो वो अपने प्रोडक्ट्स को दूसरे देशों में भला कैसे बेचेगा... हालांकि, चीन के आगे पाकिस्तान का साथ देने की मजबूरी कभी ना होती अगर हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू बलूचिस्तान को पाकिस्तान के हिस्से में डालने के बजाय हिंदुस्तान में ले आते. चलिए, आज आपको तारीख़ की एक ऐसी कहानी बताते हैं, जिसे सुनने के बाद आप अफसोस के अलावा और कुछ नहीं कर पाएंगे.

आपको जानकर हैरानी होगी कि बलूचिस्तान पाकिस्तान में कभी शामिल ही नहीं होना चाहता था और पाकिस्तान को बनाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना खुद भी नहीं चाहते थे कि बलूचिस्तान पाकिस्तान के हिस्से में आए, तो फिर ऐसा क्या हुआ कि आज बलूचिस्तान, जो कभी हिंदू की आस्था का केंद्र हुआ करता था, आज पाकिस्तान के हिस्से में है. देखिए पाकिस्तान बनने के बाद से ही बलूचिस्तान में विद्रोह की आवाज़ उठती रही हैं. लेकिन बलूचिस्तान में चीन की एंट्री के बाद से सिचुएशन और complex हो गई है. पाकिस्तान ने बलूचिस्तान का ग्वादर पोर्ट चीन को दिया है और स्थानीय बलोच इसके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन करते रहे हैं.

हैदराबाद आख़िरकार 13 सितंबर 1948 को सैन्य कार्रवाई के बाद भारत में शामिल हो गया


बलूचिस्तान हमेशा से फ़ारस और हिंद साम्राज्य के बीच पूरब से लेकर पश्चिम तक सैंडविच की तरह रहा है. बलूचिस्तान के उत्तर में पड़ोसी अफ़ग़ानिस्तान को भी इन साम्राज्यों के युद्ध का दंश झेलना पड़ा है लेकिन बलोचों के पास उनकी तरह सुरक्षा के लिए पहाड़ नहीं हैं.स्टेट ऑफ़ कलात को कई लोग पाकिस्तान का हैदराबाद कहते थे. कलात स्वतंत्र रियासत था, जिसने पाकिस्तान में शामिल होने से इनकार कर दिया था और हैदराबाद ने भी भारत में शामिल होने से इनकार कर दिया था. फिर मोहम्मद अली जिन्ना ने कलात और हैदराबाद दोनों को क़ानूनी सलाह दी थी कि 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश राज ख़त्म होने के बाद भी ये स्वतंत्र संप्रभु स्टेट यानी independent sovereign state के तौर पर रह सकते हैं. दोनों ही मामलों में कोई समझौता नहीं हो पा रहा था. हैदराबाद आख़िरकार 13 सितंबर 1948 को सैन्य कार्रवाई के बाद भारत में शामिल हो गया.

जर्मन Political Scientist मार्टिन एक्समैन ने बलोच राष्ट्रवाद और उसके इतिहास पर एक अहम किताब लिखी है.ये किताब है- 'Back to the Future: The Khanate of Kalat and the Genesis of Baloch Nationalism 1915-1955'... इस किताब में मार्टिन ने लिखा है कि कलात पर जिन्ना की सलाह से ब्रिटिश शासक हैरान थे.कलात हैदराबाद की तरह नहीं था. मार्टिन एक्समैन ने लिखा है कि 20 मार्च 1948 को ख़ान ऑफ कलात पाकिस्तान में शामिल होने के लिए राज़ी हो गए. भारत और अफ़ग़ानिस्तान से निराशा हाथ लगने के बाद उन्होंने ऐसा किया था कलात के खान चाहते थे कि संप्रभु रहने में भारत और अफ़ग़ानिस्तान से मदद मिले.

कलात स्टेट नेशनल पार्टी ने 1945 में ऑल इंडिया स्टेट पीपल्स कॉन्फ़्रेंस में भी हिस्सा लिया

वहीं, पाकिस्तान के इतिहासकार याक़ूब ख़ान बंगाश ने अपनी किताब 'अ प्रिंसली अफेयर' में लिखा है कि कलात जब पाकिस्तान में शामिल नहीं हुआ था, उससे पहले से ही यहाँ लोकतांत्रिक राष्ट्रवादी आंदोलन चल रहा था. कलात स्टेट नेशनल पार्टी ने 1945 में ऑल इंडिया स्टेट पीपल्स कॉन्फ़्रेंस में भी हिस्सा लिया था, तब इसकी अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की थी. दूसरी तरफ़ मुस्लिम लीग को बलूचिस्तान में कभी समर्थन नहीं मिला.

 4 अगस्त 1947 को दिल्ली में एक बैठक हुई. जिसमें कलात के खान के अलावा लॉर्ड माउंटबेटन और जवाहरलाल नेहरू शामिल थे. इस दौरान जिन्ना ने खान के आजादी के फैसले का समर्थन किया. जिन्ना के कहने पर खारन और लास बेला को कलात के साथ मिलाकर एक पूर्ण बलूचिस्तान बनाने का प्रस्ताव रखा गया. इसके बाद कलात ने 15 अगस्त 1947 को अपनी आजादी का ऐलान कर दिया. लेकिन 12 सितंबर को एक ब्रिटिश ज्ञापन में कहा गया कि कलात एक संप्रभू राष्ट्र की जिम्मेदारियों को नहीं निभा सकता है और अक्टूबर 1947 में जिन्ना ने कलात को पाकिस्तान में मिलाने के लिए कहा.

जिन्ना ने धोखा देते हुए एक अलग बलूचिस्तान की मांग को खारिज कर दिया... जिसके बाद कलात ने भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मदद मांगी. नेहरू के पास ये अच्छा मौका था बलूचिस्तान को भारत में लाने का लेकिन उन्होंने कलात की मदद करने से सीधा इनकार कर दिया. जवाहरलाल नेहरू से मदद नहीं मिलने के बाद क्लांत ने हार मान लिया... 26 मार्च को पाकिस्तानी सेना बलूच तटीय क्षेत्र में आ गई और फिर कलात खान को जिन्ना की शर्तों को मानने के लिए मजबूर होना पड़ा.


  भारत के क़ब्ज़े में बलूचिस्तान  होता तो आज हिंगलाज माता मंदिर के दर्शन करने के लिए हिंदुओं को तरसना ना पड़ता


आपको बता दें कि बलूचिस्तान में प्राकृतिक संसाधनों का अनोखा भंडार है लेकिन बलूचिस्तान के रहने वालों की हमेशा अनदेखी की गई है और असल विकास पाकिस्तानी पंजाब का होता रहा है. बलूचिस्तान के लोग काफी गरीब हैं और दो रोटी के लिए भी तरसते रहते हैं... बलूचिस्तान के लोगों को लगातार प्रताड़ित किया जाता रहा है और उनके प्राकृतिक संसाधनों से पूरे पाकिस्तान का पेट भरा जाता है, लेकिन बलूचों का पेट खाली रहता है. बलूचिस्तान में चीन के आने के बाद लोगों का गुस्सा और भड़क गया है. अगर ये सब कुछ हुआ तो सिर्फ और सिर्फ नेहरु की वजह से.

अगर नेहरू कलात खान की मदद कर देते और बलूचिस्तान को भारत के क़ब्ज़े में ले लेते तो आज हिंगलाज माता मंदिर के दर्शन करने के लिए हिंदुओं को तरसना ना पड़ता. जी हां, धार्मिक नजरिए से देखें तो बलूचिस्तान में ही 51 शक्तिपीठों में से एक महत्वपूर्ण शक्ति स्थल मौजूद है, जो हिंगलाज भवानी के नाम से मशहूर है. कहा जाता है हिंगोल नदी के तट पर स्थित ये शक्तिपीठ सतयुग के समय से है जिसे देवी आदिशक्ति के कई अवतारों और स्वरूपों में से एक माना जाता है.


बंटवारे से पहले तक शक्तिपीठों की तीर्थयात्रा की एक परंपरा भी थी


जिस तरह जीवन में एक बार प्रयाग के संगम में स्नान, गंगा सागर में तर्पण और चारधामों के दर्शन जरूरी हैं, उसी तरह हिंगलाज भवानी के दर्शन भी तीर्थयात्रा में शामिल हैं. बंटवारे से पहले तक शक्तिपीठों की तीर्थयात्रा की एक परंपरा भी थी, लेकिन बंटवारे के बाद हिंगलाज देवी के दर्शन करना हिंदू आबादी के लिए एक सपना बन गया, और ये सब किसकी गलती की वजह से हुआ, सिर्फ नेहरु की वजह से.

हमें पता है कि अब कुछ ज्ञानवर्धक लोग आएंगे और कोमेंट सेक्शन में हमारी इस स्टोरी को व्हाट्सएप कोंटेंट बताएंगे, लेकिन अंदर ही अंदर उनको भी इस बात का एहसास है कि नेहरू ने ये क्या कर दिया. हम एक आज़ाद देश में रहते हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार हमारे पास है,

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